ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 61/ मन्त्र 8
अ॒स्मा इदु॒ ग्नाश्चि॑द्दे॒वप॑त्नी॒रिन्द्रा॑या॒र्कम॑हि॒हत्य॑ ऊवुः। परि॒ द्यावा॑पृथि॒वी ज॑भ्र उ॒र्वी नास्य॒ ते म॑हि॒मानं॒ परि॑ ष्टः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्मै । इत् । ऊँ॒ इति॑ । ग्नाः । चि॒त् । दे॒वऽप॑त्नीः । इन्द्रा॑य । अ॒र्कम् । अ॒हि॒ऽहत्ये॑ । ऊ॒वु॒रित्यू॑वुः । परि॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । ज॑भ्रे॒ । उ॒र्वी इति॑ । न । अ॒स्य॒ । ते इति॑ । म॒हि॒मान॑म् । परि॑ । स्त॒ इति॑ स्तः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्मा इदु ग्नाश्चिद्देवपत्नीरिन्द्रायार्कमहिहत्य ऊवुः। परि द्यावापृथिवी जभ्र उर्वी नास्य ते महिमानं परि ष्टः ॥
स्वर रहित पद पाठअस्मै। इत्। ऊँ इति। ग्नाः। चित्। देवऽपत्नीः। इन्द्राय। अर्कम्। अहिऽहत्ये। ऊवुरित्यूवुः। परि। द्यावापृथिवी इति। जभ्रे। उर्वी इति। न। अस्य। ते इति। महिमानम्। परि। स्त इति स्तः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 61; मन्त्र » 8
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 28; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 28; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे सभेश ! यथाऽयं द्यावापृथिवी जभ्रेऽस्य वशे उर्वी वर्त्तते यस्यास्याहिहत्ये द्यावापृथिवी चित् भूमिप्रकाशावपि महिमानं न परि स्तः परिछेत्तुं समर्थेन भवतस्तथा यस्मा अस्मा इन्द्रायेदु देवपत्नीर्ग्ना अर्कं पर्य्यूवुः परितः सर्वतो विस्तारयन्ति स राज्यं कर्तुं योग्यः स्यात् ॥ ८ ॥
पदार्थः
(अस्मै) सभाध्यक्षाय (इदु) पादपूरणे (ग्नाः) वाणीः। ग्नेति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) (चित्) अपि (देवपत्नीः) देवैर्विद्वद्भिः पालनीयाः (इन्द्राय) परमैश्वर्यप्रापकाय (अर्कम्) दिव्यगुणसम्पन्नमर्चनीयं वीरम् (अहिहत्ये) अहीनां मेघानां हत्या यस्मिंस्तस्मिन् (ऊवुः) तन्तुवद् विस्तारयेयुः (परि) सर्वतः (द्यावापृथिवी) भूमिप्रकाशौ (जभ्रे) धरति (उर्वी) बहुरूपे द्यावापृथिव्यौ। ऊर्वीति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं०१.१) (न) निषेधे (अस्य) सूर्यस्य (ते) (महिमानम्) स्तुत्यस्य पूज्यस्य व्यवहारस्य भावम् (परि) अभितः (स्तः) भवतः ॥ ८ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यस्य प्रतापमहत्त्वस्याग्रे पृथिव्यादीनां स्वल्पत्वं विद्यते, तथैव पूर्णविद्यावतः पुरुषस्य महिम्नोऽग्रे मूर्खस्य गणना तुच्छाऽस्तीति ॥ ८ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
हे सभापति ! जैसे यह सूर्य्य (द्यावापृथिवी) प्रकाश और भूमि को (जभ्रे) धारण करता वा जिसके वश में (उर्वी) बहुधा रूपप्रकाशयुक्त पृथिवी है (अस्य) जिस इस सभाध्यक्ष के (अहिहत्ये) मेघों के हनन व्यवहार में (चित्) प्रकाश भूमि की (महिमानम्) महिमा के (न) (परि स्तः) सब प्रकार छेदन को समर्थ नहीं हो सकते, वैसे उस (अस्मै) इस (इन्द्राय) ऐश्वर्य प्राप्त करनेवाले सभाध्यक्ष के लिये (इदु) ही (देवपत्नीः) विद्वानों से पालनीय पतिव्रता स्त्रियों के सदृश (ग्नाः) वेदवाणी (अर्कम्) दिव्यगुणुसम्पन्न अर्चनीय वीर पुरुष को (पर्यूवुः) सब प्रकार तन्तुओं के समान विस्तृत करती हैं, वही राज्य करने के योग्य होता है ॥ ८ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य के प्रताप और महत्त्व के आगे पृथिवी आदि लोकों की गणना स्वल्प है, वैसे ही पूर्ण विद्यावाले पुरुष के महिमा के आगे मूर्ख की गणना तुच्छ है ॥ ८ ॥
विषय
नाः देवपत्नी व अहिहत्या
पदार्थ
१. (अस्मै इन्द्राय् इत् उ) = इस शत्रुओं का संहार करनेवाले इन्द्र के लिए ही (अहिहत्ये) = [आहन्ति इति अहिः] निरन्तर आघात करनेवाले कामरूप शत्रु के विनाश के निमित्त (देवपत्नीः) = दिव्य गुणों का रक्षण करनेवाली (ग्नाः चित्) = छन्दोरूप वेदवाणियाँ [ग्नाः वाङ्नाम - १/११, छन्दांसि वै ग्नाः, छन्दोभिर्हि स्वर्ग लोकं गच्छन्ति - शत० ५/५/५७] (अर्कम्) = स्तोत्र को (ऊवुः) = सन्तत करती हैं । सब वेदवाणियाँ प्रभु के गुणों का प्रतिपादन करती हैं । ये दिव्य वाणियाँ मुझमें दिव्य गुणों को रक्षित करनेवाली होती हैं और मुझे स्वर्गमय लोक में पहुँचाती हैं । मैं इन वाणियों से प्रभु का स्तवन करता हूँ २. वह प्रभु (उर्वी द्यावापृथिवी) = इन विशाल द्युलोक व पृथिवीलोक को (परिजभ्रे) = सब प्रकार से वशीभूत कर लेता है [हृ win over] अथवा सब ओर ले जाता है [to lead]| ब्रह्माण्ड में सारी गति उस प्रभु के ही कारण से ही तो है - 'भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया' । ३. (ते) = वे द्यावापृथिवी (अस्य महिमानम्) = इस प्रभु की महिमा को (न परि स्तः) = चारों ओर से व्याप्त नहीं कर सकते । प्रभु की महिमा अनन्त है, ये द्यावापृथिवी प्रभु के एक देश में ही समाये हुए हैं - 'त्रिपादूर्ध्वं उदैत् पुरुषः पादोऽस्येहाभवत् पुनः' ।
भावार्थ
भावार्थ - हम छन्दोरूप वेदवाणियों से प्रभु का स्तवन करते हैं और वासना को विनष्ट करने की शक्ति का लाभ करते हैं । वे प्रभु द्यावापृथिवी को गति दे रहे हैं और ये द्यावापृथिवी प्रभु के एक देश में हैं ।
विषय
गृह पत्नियों के दृष्टान्त से सेनाओं के कर्तव्य ।
भावार्थ
(ग्नाः देवपत्नीः इन्द्राय अर्कम् ऊवुः) जिस प्रकार ऋतुकाल में गमन करने वाली, कमनीय पतियों की स्त्रियां अपने २ ऐश्वर्य या सौभाग्यवान् पति की वृद्धि के लिये तेजस्वी पुत्र सन्तति को बढ़ाती हैं और (ग्नाः देवपत्नीः इन्द्राय अर्कम् ऊवुः) जिस प्रकार ज्ञान करने योग्य विद्वानों के पालने योग्य वेद-वाणियां ऐश्वर्यवान् परमेश्वर की महिमा को प्रकाश करने के लिये अर्चना योग्य स्तुति सूक्त को प्रकट करती हैं उसी प्रकार (ग्नाः) वेग से गमन करने वाली या दूर देशों तक पहुंचने वाली (देवपत्नीः) विजयेच्छु वीर पुरुषों का पालन करने योग्य, अथवा विद्वानों के पालन करने वाली वाणियें, आज्ञाएं और सेनाएं (अस्मै इन्द्राय) इस ऐश्वर्यवान् राष्ट्र और राष्ट्रपति के हित के लिये (अर्कम्) स्तुति योग्य वीर पुरुष को (अहिहत्ये) शत्रु के नाश के कार्य, संग्राम के अवसर में (ऊवुः) आश्रय बनाती हैं अपने को उससे जोड़तीं और उसके बल को बढ़ाती हैं। वह राजा या वीर सेनापति (द्यावापृथिवी) आकाश और पृथिवी को सूर्य के समान राजवर्ग और प्रजावर्ग तथा विद्वान् और अविद्वान् दोनों वर्गों को (परि जभ्रे) सब प्रकार से अपने वश कर लेता है। (ते) वे दोनों वर्ग (अस्य) उसके ( महिमानम् ) बड़े भारी सामर्थ्य को (न परि स्तः) कभी अतिक्रमण नहीं करते । परमेश्वमेर के पक्ष में—समस्त दिव्य पदार्थ और सूर्य आदि की पालक शक्तियें परमेश्वर पर आश्रित हैं । वही आकाश पृथ्वी को धारण करता है और वे दोनों उसकी महिमा को अपने में नहीं बांध सकतीं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नोधा गौतम ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः–१, १४, १६ विराट् त्रिष्टुप् । २, ७, ९ निचृत् विष्टुप् । ३, ४, ६, ८, १०, १२ पंक्तिः । ५, १५ विराट पंक्तिः । ११ भुरिक् पंक्ति: । १३ निचृतपंक्तिः । षोडशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
फिर वह कैसा है, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे सभेश ! यथा अयं द्यावापृथिवी जभ्रे अस्य वशे उर्वी वर्त्तते यस्य अस्य अहिहत्ये द्यावापृथिवी चित् भूमिप्रकाशौ अपि महिमानं न परि स्तः परिछेत्तुं समर्थेन भवतः तथा यस्मै अस्मै इन्द्राय इत् उ देवपत्नीः ग्नाः अर्कं परि ऊवुः परितः सर्वतः विस्तारयन्ति स राज्यं कर्तुं योग्यः स्यात् ॥८॥
पदार्थ
हे (सभेश)= सभा के स्वामी ! (यथा) =जैसे, (अयम्)=यह, (द्यावापृथिवी)= द्यावा और पृथिवी को, (जभ्रे) धरति=धारण करते हैं, (अस्य) =इसके, (वशे)= वश में, (उर्वी) बहुरूपे द्यावापृथिव्यौ= बहु रूप द्यावा और पृथिवी, (वर्त्तते)=हैं, (यस्य)=इस, (अस्य) सूर्यस्य =सूर्य के, (अहिहत्ये) अहीनां मेघानां हत्या यस्मिंस्तस्मिन्=बादल के छिन्न-भिन्न होने में, (द्यावापृथिवी) भूमिप्रकाशौ= भूमि और प्रकाश को, (चित्) अपि=भी, (ते) महिमानम्- स्तुत्यस्य पूज्यस्य व्यवहारस्य भावम्=पूज्य व्यवहार के भाव का, (न) निषेधे =नहीं, (परि) अभितः=हर ओर से, (स्तः) भवतः=होते हैं, (परिछेत्तुम्)=छिन्न-भिन्न करने में, (समर्थेन)=समर्थ, (भवतः)= होते हैं, (तथा)=वैसे ही, (यस्मै)=इस, (अस्मै) सभाध्यक्षाय=सभाध्यक्ष, (इन्द्राय) परमैश्वर्यप्रापकाय=परम ऐश्वर्य प्राप्त करानेवाले के लिये, (इदु) पादपूरणे, (देवपत्नीः) देवैर्विद्वद्भिः पालनीयाः=देवों और विद्वानों के द्वारा रक्षित किये जाने योग्य है, (ग्नाः) वाणीः= वाणी, (अर्कम्) दिव्यगुणसम्पन्नमर्चनीयं वीरम्= दिव्य गुण सम्पन्न पूजनीय वीरों को, (परि) सर्वतः=हर ओर से, (ऊवुः) तन्तुवद् विस्तारयेयुः=धागे के समान, (परितः) सर्वतः=हर ओर, (विस्तारयन्ति)= विस्तार करते हैं, (सः)=वह, (राज्यम्)= राज्य, (कर्तुम्) =पर शासन करने के, (योग्यः)= योग्य, (स्यात्)=होवे ॥८॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य के प्रताप और महत्त्व के आगे पृथिवी आदि लोक अल्प संख्या में हैं, वैसे ही पूर्ण विद्यावाले पुरुष की महिमा के आगे मूर्ख की गणना तुच्छ होती है ॥८॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (सभेश) सभा के स्वामी ! (यथा) जैसे, (अयम्) इस (द्यावापृथिवी) द्यौ और पृथिवी को (जभ्रे) धारण करते हैं। (अस्य) इसके (वशे) वश में (उर्वी) बहु रूप द्यौ और पृथिवी (वर्त्तते) हैं। (यस्य) इस (अस्य) सूर्य के (अहिहत्ये) बादल के छिन्न-भिन्न होने में (द्यावापृथिवी) भूमि और प्रकाश को (चित्) भी (ते) पूज्य व्यवहार के भाव में (परि) हर ओर से (न+स्तः) नहीं होते हैं [और] (परिछेत्तुम्) छिन्न-भिन्न करने में (समर्थेन) समर्थ (भवतः) होते हैं। (तथा) वैसे ही (यस्मै) इस (अस्मै) सभाध्यक्ष (इन्द्राय) परम ऐश्वर्य प्राप्त करानेवाले के लिये (देवपत्नीः) देवों और विद्वानों के द्वारा रक्षित किये जाने योग्य है। (ग्नाः) वाणी (अर्कम्) दिव्य गुण सम्पन्न पूजनीय वीरों को (परि) हर ओर से (ऊवुः) धागे के समान (विस्तारयन्ति) विस्तार करते हैं। (सः) वह [सभा का स्वामी] (राज्यम्) राज्य (कर्तुम्) पर शासन करने के (योग्यः) योग्य (स्यात्) होवे ॥८॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अस्मै) सभाध्यक्षाय (इदु) पादपूरणे (ग्नाः) वाणीः। ग्नेति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) (चित्) अपि (देवपत्नीः) देवैर्विद्वद्भिः पालनीयाः (इन्द्राय) परमैश्वर्यप्रापकाय (अर्कम्) दिव्यगुणसम्पन्नमर्चनीयं वीरम् (अहिहत्ये) अहीनां मेघानां हत्या यस्मिंस्तस्मिन् (ऊवुः) तन्तुवद् विस्तारयेयुः (परि) सर्वतः (द्यावापृथिवी) भूमिप्रकाशौ (जभ्रे) धरति (उर्वी) बहुरूपे द्यावापृथिव्यौ। ऊर्वीति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं०१.१) (न) निषेधे (अस्य) सूर्यस्य (ते) (महिमानम्) स्तुत्यस्य पूज्यस्य व्यवहारस्य भावम् (परि) अभितः (स्तः) भवतः ॥८॥ विषयः-पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे सभेश ! यथाऽयं द्यावापृथिवी जभ्रेऽस्य वशे उर्वी वर्त्तते यस्यास्याहिहत्ये द्यावापृथिवी चित् भूमिप्रकाशावपि महिमानं न परि स्तः परिछेत्तुं समर्थेन भवतस्तथा यस्मा अस्मा इन्द्रायेदु देवपत्नीर्ग्ना अर्कं पर्य्यूवुः परितः सर्वतो विस्तारयन्ति स राज्यं कर्तुं योग्यः स्यात् ॥८॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यस्य प्रतापमहत्त्वस्याग्रे पृथिव्यादीनां स्वल्पत्वं विद्यते, तथैव पूर्णविद्यावतः पुरुषस्य महिम्नोऽग्रे मूर्खस्य गणना तुच्छाऽस्तीति ॥८॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्याचा प्रभाव (प्रताप) व महत्त्व यापुढे पृथ्वी इत्यादीची गणना क्षुल्लक आहे. तसेच पूर्ण विद्यायुक्त पुरुषाच्या महिमेपुढे मूर्खाची गणना तुच्छ आहे. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
For this Indra, blazing as the sun with light and grandeur, holy voices served and preserved by noble sages and scholars composed hymns of praise and offered homage to Indra on the break up of the cloud. Indra holds both the vast heaven and earth, but these two do not comprehend his grandeur and greatness (which exceeds heaven and earth both).
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (sabheśa) =Lord of Assembly, (yathā) =like, (ayam) =this, (dyāvāpṛthivī)= to heaven earth, (jabhre) =possess, (asya) =its, (vaśe) =control, (urvī) multiform heaven and earth, (varttate) =are, (yasya) =this, (asya) =of the Sun, (ahihatye) =in piercing of the cloud, (dyāvāpṛthivī) =to earth and light, (cit) =also, (te)=in a respectful manner, (pari) =from all side, (na+staḥ)=are not, [aura]=and, (parichettum) =in piercing, (samarthena) =capable, (bhavataḥ)=are, (tathā) =similarly, (yasmai) =this, (asmai) =Chairman of the assembly, (indrāya)= for the one who attains supreme opulence,, (devapatnīḥ) = is worthy of being protected by gods and scholars, (gnāḥ) =speech, (arkam) =to the revered heroes endowed with divine qualities, (pari) =from all sides, (ūvuḥ) =like a thread, (vistārayanti) =expand, (saḥ) =that, [sabhā kā svāmī]=lord of the Assembly, (rājyam) =state, (kartum) =to rule over, (yogyaḥ)=capable of, (syāt)=be.
English Translation (K.K.V.)
O Lord of the Assembly! Like, this heaven and earth are held. Many forms of heaven and earth are under its control. In the disintegration of the clouds of this Sun, even the land and the light are not treated with respect from all sides and are capable of disintegrating. Similarly, this Speaker of the Assembly deserves to be protected by the deities and scholars for the one who attains supreme opulence. The speech of revered heroes endowed with divine qualities expands like a thread from every side. That lord of the Assembly should be capable of ruling the state.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Just as the worlds like the earth are small in number compared to the majesty and importance of the Sun, similarly the number of a fool is insignificant in comparison to the glory of a man with complete knowledge.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is he (Indra) is taught further in the 8th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O President of the Assembly, he alone is fit to rule, who is like the sun that upholds and controls the extensive heaven and earth, whose vastness cannot be surpassed by them and who pierces the cloud. The noble speeches protected by the enlightened persons glorify such praiseworthy brave person who is endowed with divine virtues and causes to obtain great wealth of all kinds.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(ग्नाः) वाणीः ग्नेति वाङ्नाम (निघ० १.११ ) (अर्कम् ) दिव्यगुणसम्पन्नम् अर्चनीयंवीरम् = A brave person endowed with divine virtues and therefore adorable. (उर्वी ) बहुरूपे द्यावापृथिवी । उर्वोति पृथिवीनाम ( निघ० १.१ ) = The heaven, and earth full of the articles of various forms. उरु इति बहुनाम (निघ्र० ३.१ )
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As before the power and majesty of the sun, the vastness of the earth etc. is insignificant, in the same manner, a foolish person has no value before a highly learned man, possessing perfect knowledge.
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