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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 62 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 62/ मन्त्र 11
    ऋषिः - नोधा गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - आर्षीत्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स॒ना॒युवो॒ नम॑सा॒ नव्यो॑ अ॒र्कैर्व॑सू॒यवो॑ म॒तयो॑ दस्म दद्रुः। पतिं॒ न पत्नी॑रुश॒तीरु॒शन्तं॑ स्पृ॒शन्ति॑ त्वा शवसावन्मनी॒षाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒ना॒ऽयुवः॑ । नम॑सा । नव्यः॑ । अ॒र्कैः । व॒सु॒ऽयवः॑ । म॒तयः॑ । द॒स्म॒ । द॒द्रुः॒ । पति॑म् । न । पत्नीः॑ । उ॒श॒तीः । उ॒शन्त॑म् । स्पृ॒शन्ति॑ । त्वा॒ । श॒व॒सा॒ऽव॒न् । म॒नी॒षाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सनायुवो नमसा नव्यो अर्कैर्वसूयवो मतयो दस्म दद्रुः। पतिं न पत्नीरुशतीरुशन्तं स्पृशन्ति त्वा शवसावन्मनीषाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सनाऽयुवः। नमसा। नव्यः। अर्कैः। वसुऽयवः। मतयः। दस्म। दद्रुः। पतिम्। न। पत्नीः। उशतीः। उशन्तम्। स्पृशन्ति। त्वा। शवसाऽवन्। मनीषाः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 62; मन्त्र » 11
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 2; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ते कीदृशा एतद्वेदितारो विद्वांश्चेत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे शवसावन् दस्म सभापते ! त्वं यथा सनायुवो नमसाऽर्कैः सह वर्त्तमाना वसूयवो मनीषा मतय उशन्तं पतिं नोशन्तीर्नव्यः पत्नीः स्पृशन्ति यथा च दद्रुः कुटिलां गतिं गच्छन्ति तथा त्वा प्रजाः सेवन्ताम् ॥ ११ ॥

    पदार्थः

    (सनायुवः) सनातनस्य कर्मणः कर्त्तार इवाचरन्तः (नमसा) नमस्कारेण युक्ताः (नव्यः) नवीना युवतयः। अत्र सुपां सुलुक् इति जसः स्थाने सुः। (अर्कैः) मन्त्रैर्विचारैः सह (वसूयवः) आत्मनो वसूनि विद्याधनानीच्छन्तः (मतयः) मन्यन्ते जानन्ति ये ते विद्वांसः (दस्म) अन्धकारोपक्षेतः (दद्रुः) द्रान्ति (पतिम्) पालयितारम् (न) इव (पत्नीः) भार्य्या युवतयः (उशन्तीः) कामयमानाः (उशन्तम्) कामयमानम् (स्पृशन्ति) आलिङ्गयन्ति (त्वा) (शवसावन्) बलयुक्त (मनीषाः) ये मनांसि विज्ञानानीषन्ते ते। अत्र शकन्ध्वादित्वात् पररूपम् ॥ ११ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा स्त्रीपुरुषयोः सह वर्त्तमानेनापत्यान्युत्पद्यन्ते तथैव रात्रिंदिवयोः सह वर्त्तमानेन सर्वे व्यवहारा जायन्ते। यथा च सूर्य्यप्रकाशभूमिच्छायाभ्यां विनैतयोरुत्पत्तिर्भवितुं न शक्या तथा दम्पतीभ्यां विना मैथुनसृष्ट्युत्पत्तिरसंभवा ॥ ११ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर भी दिन और रात्रि कैसे तथा इनके जाननेवाले विद्वान् लोग कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे (शवसावन्) बलयुक्त (दस्म) अविद्यान्धकारविनाशक सभापते ! तू जैसे (सनायुवः) सनातन कर्म के करनेवालों के समान आचरण करते (नमसा) अन्न वा नमस्कार तथा (अर्कैः) मन्त्र अर्थात् विचारों के साथ वर्त्तमान (वसूयवः) अपने लिये विद्या, धनों और (मनीषाः) विज्ञानों के इच्छा करने (मतयः) सबको जाननेवाले विद्वान् लोग (न) जैसे (नव्यः) नवीन (उशतीः) काम की चेष्टा से युक्त (पत्नीः) स्त्री (उशन्तम्) काम की इच्छा करनेवाले (पतिम्) पति का (स्पृशन्ति) आलिङ्गन करती हैं और जैसे (दद्रुः) कुटिल गति को प्राप्त होनेवालों को जानते हैं, वैसे (त्वा) तुझको प्रजा सेवें ॥ ११ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को समझना चाहिये कि जैसे स्त्री-पुरुषों के साथ वर्त्तमान होने से सन्तानों की उत्पत्ति होती है, वैसे ही रात-दिनों के एक-साथ वर्तमान होने से सब व्यवहार सिद्ध होते हैं। और जैसे सूर्य का प्रकाश और पृथिवी की छाया के विना रात और दिन का सम्भव नहीं होता, वैसे ही स्त्री-पुरुष के विना मैथुनी सृष्टि नहीं हो सकती ॥ ११ ॥

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    विषय

    प्रभुरूप पति

    पदार्थ

    १. हे (दस्म) = दर्शनीय तथा दुःखों व पापों का विध्वंस करनेवाले प्रभो ! (सनायुवः) = सनातन आपकी कामना करनेवाले, अनित्य पदार्थों को छोड़कर नित्य आपकी प्राप्ति की कामनावाले (नव्यः) = [नु स्तुतौ] स्तुति करनेवालों में उत्तम (वसूयवः) = वसुओं - निवास के लिए आवश्यक तत्त्वों की कामना करनेवाले (मतयः) बुद्धिमान्, विचारशील पुरुष नमसा नमन के द्वारा (अर्कैः) = अर्चना के साधनभूत मन्त्रों के द्वारा (दद्रुः) = निरन्तर आपकी ओर गतिवाले होते हैं । आपकी प्राप्ति से सब वसुओं की प्राप्ति हो ही जाती है । २. (उशतीः) = चाहती हुई (पत्नीः) = पत्नियाँ (उशन्तं पतिम्) = चाहते हुए पति को (न) = जैसे (स्पृशन्ति) = आलिंगन करती हैं, उसी प्रकार हे (शवसावन्) = सब बलों के स्वामिन् प्रभो ! (मनीषाः) = बुद्धि की परिपूर्णतावाले पुरुष (त्वा) = आपका (स्पृशन्ति) = स्पर्श करते हैं । बुद्धिमान् पुरुष पत्नी के स्थानापन्न होकर प्रभु को अपना पति जानते हैं । उन्हें प्रभु के उपासन में ही आनन्द आता है । ये ‘आत्मक्रीड़, आत्मरति’ बन जाते हैं । इनका मन प्रभु के उपासन में ही लगता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - विचारशील पुरुष प्रभु को ही अपना पति मानते हैं, उसकी ही वे उपासना करते हैं । प्रभु के आराधन से ही सब वसुओं की प्राप्ति की कामनावाले होते हैं । प्रभु इनके लिए दस्म सब दुःखों के हरनेवाले होते हैं ।

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    विषय

    स्त्रियों के समान विद्वानों का कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( दस्म ) दर्शनीय ! हे प्रजा के दुःखों के नाश करने हारे ! तू (नव्यः) स्तुति करने योग्य है । ( उशतीः ) कामना युक्त पत्नियां जिस प्रकार ( उशन्तम् पतिम् स्पृशन्ति ) कामना युक्त अपने पति के पास जातीं और उससे आलिंगन करती हैं उसी प्रकार हे ( शवसावन् ) बलवन् ! ( मनीषाः ) मननशील, विज्ञान युक्त ( सनायुवः ) सनातन से चले आये, अनादि सिद्ध वेद के ज्ञान और कर्मों के करने हारे, ( वसूयवः ) ऐश्वर्य के इच्छुक, ( मतयः ) मननशील, विद्वान् गण ( उशन्तं त्वा ) कान्तिमान्, प्रजा के इच्छुक तुझ ( पतिम् ) प्रजा के पालक को स्वयं ( उशन्तीः) कामना युक्त होकर ( दद्रुः ) प्राप्त हों और (स्पृशन्ति) तुझे बलपूर्वक पकड़ लें, तेरा दृढ़ता से आश्रय लें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नोधा गौतम ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, ४, ६ विराडार्षी त्रिष्टुप् । २, ५, ९ निचृदार्षी त्रिष्टुप् । १०—१३ आर्षी त्रिष्टुप् । भुरिगार्षी पंक्तिः । त्रयो दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर भी दिन और रात्रि कैसे हैं तथा इनके जाननेवाले विद्वान् लोग कैसे हैं, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे शवसावन् दस्म सभापते ! त्वं यथा सनायुवः नमसा अर्कैः सह वर्त्तमाना वसूयवः मनीषा मतय उशन्तं पतिं न उशन्तीः नव्यः पत्नीः स्पृशन्ति यथा च दद्रुः कुटिलां गतिं गच्छन्ति तथा त्वा प्रजाः सेवन्ताम्॥११॥

    पदार्थ

    हे (शवसावन्) बलयुक्त= बल से युक्त, (दस्म) अन्धकारोपक्षेतः=अन्धकार को मिटानेवाले, (सभापते)= सभापति ! (त्वम्)=तुम, (यथा)=जैसे, (सनायुवः) सनातनस्य कर्मणः कर्त्तार इवाचरन्तः=सनातन कर्मों के करनेवालों की तरह व्यवहार करते हो, (नमसा) नमस्कारेण युक्ताः= नमस्कार करते हुए, (अर्कैः) मन्त्रैर्विचारैः सह=मन्त्रों के साथ विचार करते हुए, (वर्त्तमाना)= वर्त्तमान, (वसूयवः) आत्मनो वसूनि विद्याधनानीच्छन्तः=अपने में धन और विद्या की इच्छा करते हुए, (मनीषाः) ये मनांसि विज्ञानानीषन्ते ते=मन से विशेष ज्ञान की इच्छा करनेवाले, (मतयः) मन्यन्ते जानन्ति ये ते विद्वांसः=मानने और जाननेवाले विद्वान्, (उशन्तम्) कामयमानम्=कामना करनेवाले, (पतिम्) पालयितारम्=रक्षक के, (न) इव =समान, (उशन्तीः) कामयमानाः= कामना करते हुए, (नव्यः) नवीना युवतयः= नवीन युवतियां, (पत्नीः) भार्य्या युवतयः=पत्नी युवतियां, (स्पृशन्ति) आलिङ्गयन्ति= आलिङ्गन करती हैं, (च)=और, (यथा)=जैसे, (दद्रुः) द्रान्ति=प्राप्त होवें, (कुटिलाम्)= नदी के समान, (गतिम्) =गति से, (गच्छन्ति)=जाती हैं, (तथा)=वैसे ही, (त्वा)=तुम्हारी, (प्रजाः)= प्रजा, (सेवन्ताम्)=सेवा करे॥११॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे स्त्री-पुरुषों के साथ-साथ वर्त्तमान होने से सन्तानों की उत्पत्ति होती है, वैसे ही रात-दिनों के एक-साथ वर्तमान होने से सब व्यवहार क्रियान्वित होते हैं। और जैसे सूर्य के प्रकाश की पृथिवी पर छाया के विना उन रात और दिन का होना सम्भव नहीं होता है, वैसे ही दम्पत्तियों के विना मैथुनी सृष्टि की उत्पत्ति सम्भव नहीं हो सकती है ॥११॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (शवसावन्) बल से युक्त, (दस्म) अन्धकार को मिटानेवाले (सभापते) सभापति ! (त्वम्) तुम, (यथा) जैसे (सनायुवः) सनातन कर्मों के करनेवालों की तरह व्यवहार करते हो और (नमसा) नमस्कार करते हुए (अर्कैः) मन्त्रों के साथ विचार करते हुए (वर्त्तमाना) वर्त्तमान, (वसूयवः) अपने धन और विद्या की इच्छा करते हुए (मनीषाः) मन से विशेष ज्ञान की इच्छा करनेवाले, (मतयः) मानने और जाननेवाले विद्वान् हो और (उशन्तम्) कामना करनेवाले (पतिम्) रक्षक के (न) समान (उशन्तीः) कामना करते हुए (नव्यः) नवीन युवतियां, (पत्नीः) जो पत्नियां हैं (च) और (स्पृशन्ति) आलिङ्गन करती हैं, (च) और (यथा) जैसे (दद्रुः) प्राप्त होती हैं, वे (कुटिलाम्) नदी के समान (गतिम्) गति से (गच्छन्ति) जाती हैं, (तथा) वैसे ही (त्वा) तुम्हारी (प्रजाः) प्रजा (सेवन्ताम्) सेवा करे॥११॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (सनायुवः) सनातनस्य कर्मणः कर्त्तार इवाचरन्तः (नमसा) नमस्कारेण युक्ताः (नव्यः) नवीना युवतयः। अत्र सुपां सुलुक् इति जसः स्थाने सुः। (अर्कैः) मन्त्रैर्विचारैः सह (वसूयवः) आत्मनो वसूनि विद्याधनानीच्छन्तः (मतयः) मन्यन्ते जानन्ति ये ते विद्वांसः (दस्म) अन्धकारोपक्षेतः (दद्रुः) द्रान्ति (पतिम्) पालयितारम् (न) इव (पत्नीः) भार्य्या युवतयः (उशन्तीः) कामयमानाः (उशन्तम्) कामयमानम् (स्पृशन्ति) आलिङ्गयन्ति (त्वा) (शवसावन्) बलयुक्त (मनीषाः) ये मनांसि विज्ञानानीषन्ते ते। अत्र शकन्ध्वादित्वात् पररूपम् ॥११॥ विषयः- पुनस्ते कीदृशा एतद्वेदितारो विद्वांश्चेत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे शवसावन् दस्म सभापते ! त्वं यथा सनायुवो नमसाऽर्कैः सह वर्त्तमाना वसूयवो मनीषा मतय उशन्तं पतिं नोशन्तीर्नव्यः पत्नीः स्पृशन्ति यथा च दद्रुः कुटिलां गतिं गच्छन्ति तथा त्वा प्रजाः सेवन्ताम्॥११॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा स्त्रीपुरुषयोः सह वर्त्तमानेनापत्यान्युत्पद्यन्ते तथैव रात्रिंदिवयोः सह वर्त्तमानेन सर्वे व्यवहारा जायन्ते। यथा च सूर्य्यप्रकाशभूमिच्छायाभ्यां विनैतयोरुत्पत्तिर्भवितुं न शक्या तथा दम्पतीभ्यां विना मैथुनसृष्ट्युत्पत्तिरसंभवा ॥११॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. माणसांनी हे जाणावे की जसे स्त्री-पुरुष एकत्र राहिल्याने संतानांची उत्पत्ती होते तसेच रात्र व दिवस बरोबर असल्यामुळे सर्व व्यवहार सिद्ध होतात व जसा सूर्याचा प्रकाश व पृथ्वीच्या छायेशिवाय रात्र व दिवस होणे शक्य नाही तसेच स्त्री-पुरुषाशिवाय मैथुनी सृष्टी होऊ शकत नाही. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra, lord adorable of wondrous action, bright and generous, people of intelligence, faith and meditation, desirous of wealth and food for the body, mind and soul, lovers of yajna, rush to you offering gifts of homage with hymns of praise and prayer as loving wives in passion approach the loving husbands and feel immortalised by the beatific touch of your presence.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How are the learned is taught in the 11th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O mighty Indra (President of the Assembly) thou art dispeller of the darkness of ignorance, as affectionate admirable young wives, adhere to their loving husbands, so let all wise men who act according to the teaching of the eternal Vedas and who desire to acquire wealth of knowledge and other kinds, approach thee that desirest and lovest them and art their protector. Let them cling to thee with praiseworthy thoughts and serve thee with reverence.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (वसूयव:) आत्मनो वसूनि विद्याधनानीच्छन्तः =Desiring wealth of knowledge. (दस्म) अन्धकारोप क्षेप्तः = Dispeller of the darkness of ignorance,) (दसु-उपक्षये)

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As children are born with the co-habitation of the husband and wife, in the same manner, all dealings are produced with the combination of the day and night and the association of the light of the sun and the shadow of the earth. It is impossible to have progeny without the cohabitation (coitus) of the husband and wife.

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    Subject of the mantra

    Even then, this mantra has preached about how day and night are and how the learned people are who know them.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (śavasāvan)=full of strength, (dasma)=who destroys darkness, (sabhāpate) =President of the Assembly, (tvam) =you, (yathā) =like, (sanāyuvaḥ)=you behave like the doers of eternal deeds and, (namasā) =offering salutation, (arkaiḥ)=thinking with mantras, (varttamānā) =present, (vasūyavaḥ) =desiring with own wealth and learning, (manīṣāḥ)= those who desire special knowledge from their heart, (matayaḥ)=be a scholar who believes and knows and, (uśantam)= those who wish, (patim) =of protector, (na) =like, (uśantīḥ) =those desiring, (navyaḥ)=new maidens, (patnīḥ)=wives, (ca) =and, (spṛśanti) =embracing, (ca) =and, (yathā) =like,(dadruḥ) =get obtained, they, (kuṭilām) =like river, (gatim) =with speed, (gacchanti) =go, (tathā) =similarly, (tvā) =your, (prajāḥ)=people (sevantām) =must serve.

    English Translation (K.K.V.)

    O full of strength, who destroys darkness, President of the Assembly! You, who behave like the doers of eternal deeds and are present while offering salutation, thinking with mantras, desiring for your wealth and knowledge, desiring special knowledge from your heart, you are a scholar who believes and knows and the new maidens who wish like a wishful protector, who are wives and embrace and as they are received, go with the speed of a river, may your people must serve you in the same way.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There are simile and silent vocal simile as figurative in this mantra. Just as children are born when men and women are present together, similarly all activities are carried out by the simultaneous presence of day and night. And just as the existence of night and day is not possible on the earth without the shadow of Sunlight, in the same way the creation of sexual creation is not possible without couples.

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