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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 9 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 9/ मन्त्र 1
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    इन्द्रेहि॒ मत्स्यन्ध॑सो॒ विश्वे॑भिः सोम॒पर्व॑भिः। म॒हाँ अ॑भि॒ष्टिरोज॑सा॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑ । आ । इ॒हि॒ । मत्सि॑ । अन्ध॑सः । विश्वे॑भिः । सो॒म॒पर्व॑ऽभिः । म॒हान् । अ॒भि॒ष्टिः । ओज॑सा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रेहि मत्स्यन्धसो विश्वेभिः सोमपर्वभिः। महाँ अभिष्टिरोजसा॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र। आ। इहि। मत्सि। अन्धसः। विश्वेभिः। सोमपर्वऽभिः। महान्। अभिष्टिः। ओजसा॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्रेन्द्रशब्देनोभावर्थावुपदिश्येते।

    अन्वयः

    यथाऽयमिन्द्रः सूर्य्यलोक ओजसा महानभिष्टिर्विश्वेभिः सोमपर्वभिः सहान्धसोऽन्नानां पृथिव्यादीनां प्रकाशेनेहि मत्सि हर्षहेतुर्भवति, तथैव हे इन्द्र त्वं महानभिष्टिर्विश्वेभिः सोमपर्वभिः सह वर्त्तमानः सन् ओजसोऽन्धस एहि प्रापयसि मत्सि हर्षयितासि॥१॥

    पदार्थः

    (इन्द्र) सर्वव्यापकेश्वर सूर्य्यलोको वा (आ) क्रियार्थे (इहि) प्राप्नुहि प्रापयति वा। अत्र पुरुषव्यत्ययः लडर्थे लोट् च। (मत्सि) हर्षयितासि भवति वा। अत्र बहुलं छन्दसीति श्यनो लुक्, पक्षे पुरुषव्यत्ययश्च। (अन्धसः) अन्नानि पृथिव्यादीनि। अन्ध इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) (विश्वेभिः) सर्वैः। अत्र बहुलं छन्दसीति भिस ऐसादेशाभावः। (सोमपर्वभिः) सोमानां पदार्थानां पर्वाण्यवयवास्तैः सह (महान्) सर्वोत्कृष्ट ईश्वरः सूर्य्यलोको वा परिमाणेन महत्तमः (अभिष्टिः) अभितः सर्वतो ज्ञाता ज्ञापयिता मूर्त्तद्रव्यप्रकाशको वा। अत्राभिपूर्वादिष गतावित्यस्माद्धातोर्मन्त्रे वृषेष० (अष्टा०३.३.९६) अनेन क्तिन्। एमन्नादिषु छन्दसि पररूपं वक्तव्यम्। एङि पररूपमित्यस्योपरिस्थवार्त्तिकेनाभेरिकारस्य पररूपेणेदं सिध्यति। (ओजसा) बलेन। ओज इति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९)॥१॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषलुप्तोमापलङ्कारौ। यथेश्वरोऽस्मिन् जगति प्रतिपरमाण्वभिव्याप्य सततं सर्वान् लोकान् नियतान् रक्षति, तथा सूर्य्योऽपि सर्वेभ्यो लोकेभ्यो महत्त्वादाभिमुख्यस्थान् पदार्थानाकृष्य प्रकाश्य व्यवस्थापयति॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब नवम सूक्त के आरम्भ के मन्त्र में इन्द्र शब्द से परमेश्वर और सूर्य्य का प्रकाश किया है-

    पदार्थ

    जिस प्रकार से (अभिष्टिः) प्रकाशमान (महान्) पृथिवी आदि से बहुत बड़ा (इन्द्र) यह सूर्य्यलोक है, वह (ओजसा) बल वा (विश्वेभिः) सब (सोमपर्वभिः) पदार्थों के अङ्गों के साथ (अन्धसः) पृथिवी आदि अन्नादि पदार्थों के प्रकाश से (एहि) प्राप्त होता और (मत्सि) प्राणियों को आनन्द देता है, वैसे ही हे (इन्द्र) सर्वव्यापक ईश्वर ! आप (महान्) उत्तमों में उत्तम (अभिष्टिः) सर्वज्ञ और सब ज्ञान के देनेवाले (ओजसा) बल वा (विश्वेभिः सोमपर्वभिः) सब पदार्थों के अंशों के साथ वर्त्तमान होकर (एहि) प्राप्त होते और (अन्धसः) भूमि आदि अन्नादि उत्तम पदार्थों को देकर हमको (मत्सि) सुख देते हो॥१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेष और लुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे ईश्वर इस संसार के परमाणु-परमाणु में व्याप्त होकर सब की रक्षा निरन्तर करता है, वैसे ही सूर्य्य भी सब लोकों से बड़ा होने से अपने सन्मुख हुए पदार्थों को आकर्षण वा प्रकाश करके अच्छे प्रकार स्थापन करता है॥१॥

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    विषय

    अब नवम सूक्त के आरम्भ के मन्त्र में इन्द्र शब्द से परमेश्वर और सूर्य्य का प्रकाश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    यथा अयम् इन्द्रः सूर्य्यलोक ओजसा महान् अभिष्टिः विश्वेभिः  सोमपर्वभिः सह  अन्धसः अन्नानाम् पृथिव्या आदीनां प्रकाशेन इहि मत्सि हर्ष हेतुः भवति, तथा एव हे इन्द्र त्वं महान् अभिष्टिभिः विश्वेभिः सोम पर्वभिः सह वर्त्तमानः सन् ओजसा अन्धस एहि प्रापयसि मत्सि हर्षयितासि॥१॥

    पदार्थ

    (यथा)=जैसे, (अयम्)=यह, (इन्द्रः) सर्वव्यापकेश्वर सूर्य्यलोको वा=सर्व व्यापक परमेश्वर या सूर्य्य, (सूर्य्यलोक)=सूर्य्यलोक, (ओजसा) बलेन=बल से, (महान्)=महान, (अभिष्टिः) अभितः सर्वतो ज्ञाता ज्ञापयिता मूत्तद्रव्यप्रकाशको वा=हर ओर से जानने वाला और जनाने वाला मूर्तिमान पदार्थों का प्रकाशक, (विश्वेभिः) सर्वैः=समस्त, (सोमपर्वभिः) सोमानां पदार्थानां पर्वाण्यवयवास्तैः=सोम पदार्थों के अंशों के साथ वर्त्तमान होकर, (सह)=साथ, (अन्धसः) अन्नानि पृथिव्यादीनि=पृथ्वी और अन्नादि पदार्थों के प्रकाश से, (अन्नानाम्)=अन्नों के, (पृथिव्या)=पृथिवी का, (आदीनाम्)=प्रारम्भ का, (प्रकाशेन)=प्रकाश के द्वारा, (इहि) प्राप्नुहि प्रापयति वा=प्राप्त होता है, (मत्सि) हर्षयितासि भवति=सुखी होता है, (वा)=और (हर्षः)=सुख, (हेतुः)=कारण, (भवति)=होता है, (तथा)=वैसे, (एव)=ही, (हे)=हे इन्द्र)=उपरोक्त, (त्वम्)=आप, (महान्)=महान्, (अभिष्टिभिः)-अभितः सर्वतो ज्ञाता ज्ञापयिता मूर्त्तद्रव्यप्रकाशको  वा तेन = हर ओर से सर्वज्ञ और ज्ञान को देने वाले व  मूर्त्तमान द्रव्य के प्रकाशक! (विश्वेभिः) सर्वैः=समस्त, (सोमपर्वभिः) सोमानां पदार्थानां पर्वाण्यवयवास्तैः=सोम पदार्थों के अंशों के साथ वर्तमान होकर, (सह)=साथ, (वर्त्तमानः+सन्) वर्त्तमान होते हुए, (ओजसा) बलेन=बल से, (अनधसः) अन्नानि पृथिव्यादीनि=पृथ्वी और अन्नादि पदार्थों के प्रकाश से, (एहि)=प्राप्त होते हैं, (प्रापयसि)=प्राप्त करते हो, (मत्सि) हर्षयिताषि भवति वा=सुखी होता है या सुख देता है, (हर्षयितासि)=सुखी होता है॥१॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में श्लेष और लुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे ईश्वर इस संसार के परमाणु-परमाणु में व्याप्त होकर सब की रक्षा निरन्तर करता है, वैसे ही सूर्य्य भी सब लोकों से बड़ा होने से अपने सन्मुख हुए पदार्थों को आकर्षण वा प्रकाश करके अच्छे प्रकार स्थापन करता है॥१॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (यथा) जैसे (अयम्) यह (इन्द्रः) सर्व व्यापक परमेश्वर (सूर्य्यलोक)   या सूर्य्यलोक है। (ओजसा) यह बल से (महान्) महान्, (अभिष्टिः) हर ओर से जानने वाला और जनाने वाला और मूर्तिमान पदार्थों का प्रकाशक (विश्वेभिः) है और समस्त (सोमपर्वभिः) सोम पदार्थों के अंशों के (सह) साथ वर्त्तमान होकर (अन्धसः) पृथ्वी के (अन्नानाम्) अन्न आदि पदार्थों के प्रकाश  से (पृथिव्या) पृथिवी के (आदीनाम्) प्रारम्भ में (प्रकाशेन) प्रकाश के द्वारा (इहि) प्राप्त कराता है। (मत्सि) सुखी होता है (वा) और (हर्षः) सुख का (हेतुः) कारण (भवति) होता है, (तथा) वैसे (एव) ही  (इन्द्र) हे सर्व व्यापक परमेश्वर! (त्वम्) आप  (महान्) महान् (अभिष्टिभिः) हर ओर से सर्वज्ञ और ज्ञान को देने वाले व  मूर्त्तमान द्रव्य के प्रकाशक (विश्वेभिः) समस्त (सोमपर्वभिः) सोम पदार्थों के अंशों के (सह) साथ (वर्त्तमानः+सन्) वर्त्तमान होते हुए (ओजसा) आप बल, (अनधसः) पृथ्वी और अन्नादि पदार्थों के प्रकाश को (एहि) प्राप्त कराते हो (मत्सि) और हमें सुख देते हो॥१॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (इन्द्र) सर्वव्यापकेश्वर सूर्य्यलोको वा (आ) क्रियार्थे (इहि) प्राप्नुहि प्रापयति वा। अत्र पुरुषव्यत्ययः लडर्थे लोट् च। (मत्सि) हर्षयितासि भवति वा। अत्र बहुलं छन्दसीति श्यनो लुक्, पक्षे पुरुषव्यत्ययश्च। (अन्धसः) अन्नानि पृथिव्यादीनि। अन्ध इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) (विश्वेभिः) सर्वैः। अत्र बहुलं छन्दसीति भिस ऐसादेशाभावः। (सोमपर्वभिः) सोमानां पदार्थानां पर्वाण्यवयवास्तैः सह (महान्) सर्वोत्कृष्ट ईश्वरः सूर्य्यलोको वा परिमाणेन महत्तमः (अभिष्टिः) अभितः सर्वतो ज्ञाता ज्ञापयिता मूर्त्तद्रव्यप्रकाशको वा। अत्राभिपूर्वादिष गतावित्यस्माद्धातोर्मन्त्रे वृषेष० (अष्टा०३.३.९६) अनेन क्तिन्। एमन्नादिषु छन्दसि पररूपं वक्तव्यम्। एङि पररूपमित्यस्योपरिस्थवार्त्तिकेनाभेरिकारस्य पररूपेणेदं सिध्यति। (ओजसा) बलेन। ओज इति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९)॥१॥
    विषयः- तत्रेन्द्रशब्देनोभावर्थावुपदिश्येते।

    अन्वयः- यथाऽयमिन्द्रः सूर्य्यलोक ओजसा महानभिष्टिर्विश्वेभिः सोमपर्वभिः सहान्धसोऽन्नानां पृथिव्यादीनां प्रकाशेनेहि मत्सि हर्षहेतुर्भवति, तथैव हे इन्द्र त्वं महानभिष्टिर्विश्वेभिः सोमपर्वभिः सह वर्त्तमानः सन् ओजसोऽन्धस एहि प्रापयसि मत्सि हर्षयितासि॥१॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र श्लेषलुप्तोमापलङ्कारौ। यथेश्वरोऽस्मिन् जगति प्रतिपरमाण्वभिव्याप्य सततं सर्वान् लोकान् नियतान् रक्षति, तथा सूर्य्योऽपि सर्वेभ्यो लोकेभ्यो महत्त्वादाभिमुख्यस्थान् पदार्थानाकृष्य प्रकाश्य व्यवस्थापयति॥१॥

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    विषय

    ओजसा अभिष्टिः

    पदार्थ

    मेरी ओर आ  , (अन्धसा) - इस आध्यातव्य - अत्यन्त ध्यान देने योग्य सोम से (मत्सि) - तू आनन्द का अनुभव कर । सोम के रक्षण के द्वारा तू नीरोग  , निर्द्वेष व निर्विकल्प होकर एक अद्भूत हर्ष का अनुभव करेगा । 

    २. इन (विश्वेभिः सोमपर्वभिः) - सोम के शरीर में ही पूरणों के द्वारा (महान्) - तू बड़ा बनता है । यदि हम शरीर में ही इस सोम के व्याप्त करने को १०० अंक दें तो १ प्रतिशत रक्षण करनेवाला असुर्यलोक में जन्म लेता है  , १५ प्रतिशत रक्षा करनेवाला मर्त्यलोक व पृथिवीलोक में  , ५० प्रतिशत रक्षण करनेवाला चन्द्रलोक में  , ७५ प्रतिशत रक्षण करनेवाला द्युलोक में तथा ९९ प्रतिशत रक्षण करनेवाला स्वर्लोक में जन्म को प्राप्त करता है । इस प्रकार स्पष्ट है कि 'सोम का शरीर में पूरण' मनुष्य को महान् बनानेवाला है । 

    ३. इस प्रकार महान् (ओजसा) - पराक्रम के द्वारा (अभिष्टिः) - शत्रुओं का अभिभव करनेवाला बन [शत्रूणामभिभविता] । सोम से मनुष्य सशक्त बनता है । तेज से लेकर सहस् तक सभी बल परमात्मा से ही प्राप्त होते हैं । प्रभु की प्राप्ति सोम के रक्षण से होती है । हम उतने ही महान् बन पाते हैं जितना हम सोम का रक्षण करते हैं । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हम सोम का रक्षण करें  , आनन्दमय मनवाले हों । सोम के पूरण से महान् बनकर ओजस्विता से शत्रु का दमन करें और प्रभु को प्राप्त करें । 

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात इन्द्र शब्दाच्या अर्थाचे वर्णन, उत्तम उत्तम धनप्राप्तीसाठी ईश्वराची प्रार्थना व पुरुषार्थ करण्याच्या आज्ञेचे प्रतिपादन केल्यामुळे या नवव्या सूक्ताच्या अर्थाची संगती आठव्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर आहे असे समजले पाहिजे. या सूक्ताचाही अर्थ सायणाचार्य इत्यादी आर्यावर्तवासी व विल्सन इत्यादी इंग्रजांनी सर्वस्वी मंत्राच्या विरुद्ध वर्णिलेला आहे.

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेष व लुप्तोपमालंकार आहेत. जसा ईश्वर या जगातील परमाणूंमध्ये व्याप्त असून सतत सर्वांचे रक्षण करतो, तसेच सर्व गोलांमध्ये मोठा व मुख्य असल्यामुळे सूर्य आपल्या आकर्षणाने व प्रकाशाने चांगल्या प्रकारे नियमन करतो. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord of light and life, come with all the soma-celebrations of food, energy and joy, great as you are with majesty, power and splendour omnipresent, and give us the ecstasy of living with enlightenment.

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    Subject of the mantra

    Now in the beginning of this hymn, by the word ‘Indra’ God and Sun have been elucidated in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yathā)=as, (ayam)=this, (indraḥ)=Omnpresent God, (sūryyaloka) =or the Sun world, (ojasā)=by strength, (mahān)=great, (abhiṣṭiḥ)=knowing from all direction, making one known and elucidating all concrete materials, (viśvebhiḥ)=all, (somaparvabhiḥ)=part of the Soma substances, (saha)=with, (andhasaḥ)=by light of earth and food et cetera materials (pṛthivyā)=of earth, (ādīnām)=of beginning, (prakāśena)=by light, (ihi)=gets obtained, (matsi)=delight, (vā)=and, (hetuḥ)=cause,(bhavati)=becomes, (tathā)=in the same way, (eva)=only, (indraḥ)=O all-pervading God! (tvam) =you, (mahān)=great, (abhiṣṭibhiḥ)=omniscient from all sides and giver of knowledge and promulgator of embodied matter, (viśvebhiḥ)=all, (somaparvabhiḥ)=fragments of soma substances, (saha)=with, (varttamānaḥ+ san)= being present,, (ojasā)=you/power force, (anadhasaḥ)=earth and food et cetera, (ehi)=obtain, (matsi)=and give us happiness.

    English Translation (K.K.V.)

    Like this is the all-pervading God or the Sun world. It is great by force, being known from all sides and is the illuminator of the embodied substances and presents itself with the fractions of all Soma substances and receives from the light of the earth's food etc. He is happy and is the cause of happiness, in the same way, O all-pervading God! You are the great Omniscient from all sides and the giver of knowledge and the revealer of the embodied substance, being present with the fragments of all Soma substances. You get the power, the light of the earth and other things and give us happiness.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    In this mantra there are paronomasia and latent simile as figurative. Just as God, pervading the atom and atomic parts of this world, constantly protects everyone, similarly the Sun, being greater than all the worlds, by attracting or lighting the objects in front of him, establishes it well.

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