ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 94/ मन्त्र 1
इ॒मं स्तोम॒मर्ह॑ते जा॒तवे॑दसे॒ रथ॑मिव॒ सं म॑हेमा मनी॒षया॑। भ॒द्रा हि न॒: प्रम॑तिरस्य सं॒सद्यग्ने॑ स॒ख्ये मा रि॑षामा व॒यं तव॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मम् । स्तोम॑म् । अर्ह॑ते जा॒तऽवे॑दसे । रथ॑म्ऽइव । सम् । म॒हे॒म॒ । म॒नी॒षया॑ । भ॒द्रा । हि । नः॒ । प्रऽम॑तिः । अ॒स्य॒ । स॒म्ऽसदि॑ । अग्ने॑ । स॒ख्ये । मा । रि॒षा॒म॒ । व॒यम् । तव॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इमं स्तोममर्हते जातवेदसे रथमिव सं महेमा मनीषया। भद्रा हि न: प्रमतिरस्य संसद्यग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ॥
स्वर रहित पद पाठइमम्। स्तोमम्। अर्हते जातऽवेदसे। रथम्ऽइव। सम्। महेम। मनीषया। भद्रा। हि। नः। प्रऽमतिः। अस्य। सम्ऽसदि। अग्ने। सख्ये। मा। रिषाम। वयम्। तव ॥ १.९४.१
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 94; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथाऽग्निशब्देन विद्वद्भौतिकार्थावुपदिश्येते ।
अन्वयः
हे अग्ने विद्वन् यथा वयं मनीषयाऽर्हते जातवेदसे रथमिवेमं स्तोमं संमहेम वास्य तव सख्ये संसदि नो या भद्रा प्रमतिरस्ति तां हि खलु मा रिषाम तथा त्वं मा रिष ॥ १ ॥
पदार्थः
(इमम्) प्रत्यक्षं कार्यनिष्ठम् (स्तोमम्) गुणकीर्त्तनम् (अर्हते) योग्याय (जातवेदसे) यो विद्वान् जातं सर्वं वेत्ति तस्मै जातेषु कार्येषु विद्यमानाय वा (रथमिव) यथा रमणसाधनं विमानादियानं तथा (सम्) (महेम) सत्कुर्याम। अत्रान्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (मनीषया) विद्याक्रियासुशिक्षाजातया प्रज्ञया (भद्रा) कल्याणकारिणी (हि) खलु (नः) अस्माकम् (प्रमतिः) प्रकृष्टा बुद्धिः (अस्य) सभाध्यक्षस्य (संसदि) संसीदन्ति विद्वांसो यस्याम् तस्याम् (अग्ने) विद्यादिगुणैर्विख्यात (सख्ये) सख्युर्भावे कर्मणि वा (मा) निषेधे (रिषामा) हिंसिता भवेम। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (वयम्) (तव) ॥ १ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा शिल्पविद्यासिद्धानि विमानादीनि संसाध्य मित्रान् सत्कुर्युस्तथैव पुरुषार्थेन विदुषः सत्कुर्युः। यदा यदा सभासदः सभायामासीरंस्तदा तदा हठदुराग्रहं त्यक्त्वा सर्वेषां कल्याणकरं कार्य्यं न त्यजेयुः। यद्यदग्न्यादिपदार्थेषु विज्ञानं स्यात्तत्तत्सर्वैः सह मित्रभावमाश्रित्य सर्वेभ्यो निवेदयेयुः। नैतेन विना मनुष्याणां हितं संभवति ॥ १ ॥
हिन्दी (2)
विषय
अब सोलह ऋचावाले चौरानवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में अग्नि शब्द से विद्वान् और भौतिक अर्थों का उपदेश किया है ।
पदार्थ
हे (अग्ने) विद्यादि गुणों से विदित विद्वन् ! जैसे (वयम्) हम लोग (मनीषया) विद्या, क्रिया और उत्तम शिक्षा से उत्पन्न हुई बुद्धि से (अर्हते) योग्य (जातवेदसे) जो कि उत्पन्न हुए जगत् के पदार्थों को जानता है वा उत्पन्न हुए कार्य्यरूप द्रव्यों में विद्यमान उस विद्वान् के लिये (रथमिव) जैसे विहार करानेहारे विमान आदि यान को वैसे (इमम्) कार्य्यों में प्रवृत्त इस (स्तोमम्) गुणकीर्त्तन को (संमहेम) प्रशंसित करें वा (अस्य) इस (तव) आपके (सख्ये) मित्रपन के निमित्त (संसदि) जिसमें विद्वान् स्थित होते हैं उस सभा में (नः) हम लोगों को (भद्रा) कल्याण करनेवाली (प्रमतिः) प्रबल बुद्धि है उसको (हि) ही (मा, रिषामा) मत नष्ट करें, वैसे आप भी न नष्ट करें ॥ १ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जैसे विद्या से सिद्ध होते हुए विमानों को सिद्धकर मित्रों का सत्कार करें वैसे ही पुरुषार्थ से विद्वानों का भी सत्कार करें। जब-जब सभासद् जन सभा में बैठें तब-तब हठ और दुराग्रह को छोड़ सबके सुख करने योग्य काम को न छोड़ें। जो-जो अग्नि आदि पदार्थों में विज्ञान हो उस-उस को सबके साथ मित्रपन का आश्रय करके और सबके लिये दें, क्योंकि इसके विना मनुष्यों के हित की संभावना नहीं होती ॥ १ ॥
विषय
प्रभुस्तवनरूप रथ
पदार्थ
१. (इमं स्तोमम्) = इस स्तोत्र को (अर्हते) = [पूज्याय] उस पूजा के योग्य (जातवेदसे) = [जातं जातं वेत्ति] सर्वज्ञ प्रभु के लिए (मनीषया) = बुद्धिपूर्वक (संमहेम) = सम्यक् पूजित करते हैं, बुद्धिपूर्वक प्रभु का स्तवन करते हैं । यह स्तवन (रथं इव) = हमारी जीवनयात्रा के लिए रथ की भाँति होता है । जिस प्रकार बढ़ई [तक्षा] से बनाये गये रथ से लौकिक यात्रा पूरी होती है, उसी प्रकार इस बुद्धिपूर्वक बनाये गये स्तोत्र से जीवनयात्रा पूर्ण होती है । २. (अस्य) = इस प्रभु के (संसदि) = समीप बैठने में = उपासन में (नः) = हमारी (हि) = निश्चय से (भद्रा प्रमतिः) = कल्याणकारिणी प्रकृष्ट बुद्धि होती है । उपासना से बुद्धि शुद्ध व पवित्र होती है । ३. इसलिए हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (वयम्) = हम (तव सख्ये) = आपकी मित्रता में (मा रिषाम) = हिंसित न हों । प्रभु की मित्रता में पवित्र, कल्याणी मति प्राप्त होती है और इस कल्याणी मति से हिंसा की आंशका नहीं रहती । हम काम - क्रोधादि शत्रुओं से पराजित नहीं होते । यह कल्याणी मति हमारे जीवन को पवित्र बनाये रखती है ।
भावार्थ
भावार्थ = प्रभुस्तवन हमारी जीवनयात्रा की पूर्ति के लिए रथ के समान हो । प्रभु की उपासना से हमें कल्याणी मति प्राप्त हो । प्रभु की मित्रता में हम किसी भी प्रकार से हिंसित न हों ।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात ईश्वर, सभाध्यक्ष, विद्वान व अग्नी यांच्या गुणांचे वर्णन आहे. त्यामुळे या सूक्तार्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसे जशी शिल्पविद्यासिद्ध होऊन विमाने तयार करून मदत करणाऱ्या मित्रांचा सत्कार करतात, तसा पुरुषार्थाने विद्वानांचाही सत्कार करावा. ज्या ज्या वेळी सभासद जनसभेत बसतात तेव्हा त्यांनी हट्ट, दुराग्रहाचा त्याग करावा. सर्वांना सुख लाभेल असे कार्य करावे, ते सोडू नये. जे जे अग्नी इत्यादी पदार्थात विज्ञान आहे ते ते सर्वांना मित्रत्वभावाने विदित करावे. कारण त्याशिवाय माणसांचे हित साधता येत नाही. ॥ १ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
This song of celebration and worship in honour of venerable Jataveda, Agni, omnipresent in the created world and lord omniscient, we sing in praise of his glory with our mind and soul in sincerity and offer it to him as a joyous holiday chariot fit for his majesty. Blessed is our mind in his company, while we sit in the assembly of devotees.$Agni, lord of light and knowledge, we pray, may we never come to suffering while we enjoy your company and friendship.
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