ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 10/ मन्त्र 10
ऋषिः - यमो वैवस्वतः
देवता - यमी वैवस्वती
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
आ घा॒ ता ग॑च्छा॒नुत्त॑रा यु॒गानि॒ यत्र॑ जा॒मय॑: कृ॒णव॒न्नजा॑मि । उप॑ बर्बृहि वृष॒भाय॑ बा॒हुम॒न्यमि॑च्छस्व सुभगे॒ पतिं॒ मत् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । घ॒ । ता । ग॒च्छा॒न् । उत्ऽत॑रा । यु॒गानि॑ । यत्र॑ । जा॒मयः॑ । कृ॒णव॑न् । अजा॑मि । उप॑ । बर्बृ॑हि । वृ॒ष॒भाय॑ । बा॒हुम् । अ॒न्यम् । इ॒च्छ॒स्व॒ । सु॒ऽभ॒गे॒ । पति॑म् । मत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ घा ता गच्छानुत्तरा युगानि यत्र जामय: कृणवन्नजामि । उप बर्बृहि वृषभाय बाहुमन्यमिच्छस्व सुभगे पतिं मत् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । घ । ता । गच्छान् । उत्ऽतरा । युगानि । यत्र । जामयः । कृणवन् । अजामि । उप । बर्बृहि । वृषभाय । बाहुम् । अन्यम् । इच्छस्व । सुऽभगे । पतिम् । मत् ॥ १०.१०.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 10; मन्त्र » 10
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (1)
पदार्थ
किन्तु हे रात्रे ! (ता) वे (युगानि) युग-अवसर (घ) तो (उत्तरा) बहुत काल के अनन्तर (आगच्छात्) आवेंगे (यत्र) जब कि ये (जामयः) असमानजातीय-व्यधायक-मेल में रुकावट डालनेवाले (अजामि) असमानजातीयरहितकर्म-अव्यवधायक कर्म-अविरुद्ध कर्म (करिष्यन्ति) करेंगे। परन्तु हे रात्रे ! तब तक तुझ पुत्राभिलाषिणी से बिना गार्हस्थ्य के ठहरना दुष्कर है, इसलिये मैं पुत्रोत्पत्र करने में असमर्थ होता हुआ तुझे आज्ञा देता हूँ कि (सुभगे) हे प्यारी ! (वृषभाय) वीर्य प्रदान करने में समर्थ पुरुष के लिये (बाहुम्) अपनी भुजा को (उपबर्बृहि) फैल और (मत्) मुझ दिन से (अन्यम्) भिन्न (पतिम्) पुरुष को (इच्छस्व) स्वीकार कर ॥१०॥
भावार्थ
ज्योतिष के रहस्य को स्पष्ट करते हुए मन्त्र में कहा गया है कि एक समय ऐसा आयेगा कि ये अलग-अलग रूप में न रहकर एक हो जावेंगे, वह सृष्टि का प्रलयकाल होगा। गृहस्थ के लिये वेद का आदेश है कि जो पति गर्भाधान करने में असमर्थ है, वह सन्तानाभिलाषिणी पति को नियोग से सन्तानोत्पत्ति करने की अनुमति दे देवे ॥१०॥ समीक्षा (सायणभाष्य)-“यत्र येषु कालेषु जामयो भगिन्यो-अज्राम्यभ्रातरं पतिं कृण्वन्करिष्यन्ति” यमी जो सायण के मत में भगिनी है, वह इसी वैदिक समय में ही सम्भोग करने को तैयार है, फिर यह कैसा हेतु वचन है ? हाँ, यदि वाक्य वचन हो कि यम भ्राता अभ्राता का कार्य करेगा, ऐसा उत्तर समय आवेगा, तब तो हेतु दर्शाना ठीक भी था, किन्तु सायण की अर्थयोजना हेतुदोष से युक्त है ॥१०॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
किन्तु हे रात्रे ! (ता) तानि (युगानि घ) युगानि-अवसराणि तु (उत्तरा) उत्तरकालीनानि-उत्तराणि (आ गच्छान्) आगमिष्यन्ति (यत्र जामयः) असमानजातीया मध्ये व्यवधायकाः (कृण्वन्-अजामि) करिष्यन्त्यजामिकर्माणि-असमानजातीयरहितकर्माणि-अव्यवधायक-कर्माणि-अविरुद्धकर्माणि, हे रात्रे ! न तावत्पर्यन्तं गार्हस्थ्यमन्तरेण त्वया पुत्राभिलाषिण्या स्थातुं शक्यते तस्मात् त्वम् (उप बर्बृहि वृषभाय बाहुम्-अन्यम्-इच्छस्व सुभगे पतिं मत्) “उपधेहि-प्रसारय” [निरु० ४।२०]। सुभगे वृषभाय वीर्यसेक्त्रे बाहुं प्रसारय तथा च मद्दिनादन्यं पतिमिच्छस्व-स्वीकुरु ॥१०॥
इंग्लिश (1)
Meaning
But O night, those times would follow long long ages hence when contraries would lie together and coexist without contradictions. Therefore for the time, O sweet and debonair, extend your hand of love to someone other than me, a real virile husband.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्योतिष्याचे रहस्य स्पष्ट करत मंत्रात म्हटलेले आहे, की एक वेळ अशी येईल, की हे युगल वेगवेगळ्या रूपात न राहून एक होतील व सृष्टीचा प्रलयकाल होईल. गृहस्थासाठी वेदाचा आदेश आहे की - जो पती गर्भाधान करण्यास असमर्थ आहे त्याने संतानाभिलाषिणी पत्नीला नियोगाने सन्तानोत्पत्ती करण्याची अनुमती द्यावी. ॥१०॥
टिप्पणी
समीक्षा - (सायण भाष्य) ‘यत्र येषु कालेषु जामयो भगिन्योअजाम्य-भ्रातरं पतिं कृण्वन्करिष्यन्ति’ यमी जी सायणच्या मते भगिनी आहे ती याच वैदिक काळी संभोग करण्यास तयार आहे. मग हे कसले हेतुवचन आहे? जर हे वाक्य वचन असेल, की यम भ्राता अभ्राताचे कार्य करेल असे उत्तर वेळ येईल तेव्हा हेतू दर्शविणेही ठीक होते; परंतु सायणची अर्थ योजना हेतुदोषाने युक्त आहे.
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