ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 10/ मन्त्र 5
गर्भे॒ नु नौ॑ जनि॒ता दम्प॑ती कर्दे॒वस्त्वष्टा॑ सवि॒ता वि॒श्वरू॑पः । नकि॑रस्य॒ प्र मि॑नन्ति व्र॒तानि॒ वेद॑ नाव॒स्य पृ॑थि॒वी उ॒त द्यौः ॥
स्वर सहित पद पाठगर्भे॑ । नु । नौ॒ । ज॒नि॒ता । दम्प॑ती॒ इति॒ दम्ऽप॑ती । कः॒ । दे॒वः । त्वष्टा॑ । स॒वि॒ता । वि॒श्वऽरू॑पः । नकिः॑ । अ॒स्य॒ । प्र । मि॒न॒न्ति॒ । व्र॒तानि॑ । वेद॑ । नौ॒ । अ॒स्य । पृ॒थि॒वी । उ॒त । द्यौः ॥
स्वर रहित मन्त्र
गर्भे नु नौ जनिता दम्पती कर्देवस्त्वष्टा सविता विश्वरूपः । नकिरस्य प्र मिनन्ति व्रतानि वेद नावस्य पृथिवी उत द्यौः ॥
स्वर रहित पद पाठगर्भे । नु । नौ । जनिता । दम्पती इति दम्ऽपती । कः । देवः । त्वष्टा । सविता । विश्वऽरूपः । नकिः । अस्य । प्र । मिनन्ति । व्रतानि । वेद । नौ । अस्य । पृथिवी । उत । द्यौः ॥ १०.१०.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 10; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (1)
पदार्थ
(विश्वरूपः) संसार को प्रकट करनेवाला (त्वष्टा) सबके कृत्यों का नियामक (सविता) विवस्वान् (कः) प्रजापति (देवः) देव (गर्भे नु) गर्भ में ही अर्थात् पृथिवीतल पर आने से पूर्व ही (नौ) हम दोनों को (दम्पती) पति-पत्नी (जनिता) बना चुका है। हा ! दैव नियम कैसे हैं ? कि पूर्व ही से दाम्पत्य सिद्ध होने पर भी मैं गर्भाधानरहित या सन्तानशून्य रह जाऊँ। हा ! मुझे यह दुःख सहन नहीं होता है। हम प्रजापति के सम्पादित दाम्पत्यफल के बिना ही इस घने दुःखपङ्क में रह जावेंगे। (नकिः) तो फिर (अस्य) इस प्रजापति के (व्रतानि) सारे नियम (प्रमिनन्ति) टूट जाने चाहिएँ। क्योंकि हम तो झूठ बोलते ही नहीं कि हमारा दाम्पत्य प्रजापति ने स्थिर किया था, जिसके गर्भाधानफल के लिये हम विलाप कर रहे हैं, अपितु (अस्य) इस प्रजापति का (पृथ्वी-उत-द्यौः) द्यावापृथिवी यह एक मिथुन अर्थात् जोड़ा भी (नौ) हम दोनों ‘दिन-रात’ के दाम्पत्य को (वेद) जानता है, क्योंकि हमारे दोनों के विवाह को इस जोड़े ने देखा है, अतः यह द्यावापृथिवी मिथुन भी हमारा साक्षी है ॥५॥
भावार्थ
सृष्टि में जोड़े पदार्थ ईश्वरीय व्यस्था से हैं, उनके टूटने से सृष्टि नहीं चलेगी। ऐसे ही गृहस्थ-नियम का भी उल्लङ्घन न करें। वर-वधू का विवाह अन्य विवाहित जनों के साक्ष्य में होना चाहिए, संन्यासी व ब्रह्मचारी का विवाह में साक्ष्य अपेक्षित नहीं ॥५॥ समीक्षा (सायणभाष्य)-“मातुरुदरे सहवासजनित्वं दम्पतित्वं पृथिवी भूमिर्वेद जानाति, उतापि च द्यौर्द्युलोकोऽपि जानाति।” प्रस्तुत व्याख्या में द्यावापृथिवी सहवासजनित दम्पतित्व कैसे जानते हैं, इस बात को सायण अपनी कल्पनासिद्धि के आग्रह के कारण स्पष्ट न कर सके।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(विश्वरूपः) विश्वं संसारं रूपयति प्रकटयतीति विश्वरूपः (त्वष्टा) त्वक्षति सर्वेषां पदार्थानां कृत्यानीति त्वष्टा (सविता) विवस्वान् (कः) प्रजापतिः “प्रजापतिर्वै कः” [गोप० १।२२] (देवः) दिव्यगुणः (गर्भे नु नौ दम्पती जनिता) गर्भे हि-आवां पतिपत्न्यौ जनिता-जनयिता सम्पादयिता, यथा चान्यत्र वेदेऽप्युक्तम्-“त्वष्टा जायामजनयत् त्वष्टास्यै त्वां पतिम्” [अथर्व० ६।७८।३] जनिता मन्त्रे सूत्रेण णिजन्तो निपातितः। हा, दैवनियमान्। पूर्वतोऽपि दाम्पत्ये सिद्धेऽत्राहं गर्भाधानरहिता सन्तानशून्या वा तिष्ठेयम्। हा ! न मर्षये दुःखमेतत् (नकिः-अस्य व्रतानि प्र मिनन्ति) ‘नकिर्’ अव्ययमाकाङ्क्षायाम्, यद्येवमेव दुःखपङ्के प्रजापतिसम्पादितदाम्पत्यस्य फलमन्तरेणावां स्थास्यावः। नकिर्नोचेत्तर्ह्यस्य प्रजापतेर्व्रतानि-सर्वे नियमाः प्रमिनन्ति-प्रहिंसेयुर्विनश्येयुरिति सम्भाव्यमेतत्, “मीङ् हिंसायाम्” [क्र्यादिः] तस्माल्लिङर्थे लेट् “सिब्बहुलं लेटि” [अष्टा० ३।१।३४] अनेन च ह्रस्वः (अस्य पृथिवी उत द्यौः-नौ वेद) न चावामत्रासत्यवादिनौ, कुतः ? अस्य प्रजापतेर्यद् द्यावापृथिव्यौ मिथुनमस्ति तद्-मिथुनं नावावां दम्पतीति वेद जानाति। यत्-आवयोर्दाम्पत्यं विवाहं दृष्टवत् तस्मात्तन्मिथुनमावयोः साक्षि ॥५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Yami: Our generator Savita, creator of the universe, Tvashta, maker of forms and Kah, sustainer of created forms, made us a couple in nature’s womb of generation itself as keepers of this earthly home. None can now violate the rules of the lord’s discipline, they don’t. Mother earth and father heavenly sun know of this complementarity of ours.
मराठी (1)
भावार्थ
सृष्टीमध्ये जोडे ईश्वरीय व्यवस्थेप्रमाणे आहेत. ते विभागले गेले किंवा तुटले तर सृष्टी चालणार नाही. त्यासाठी गृहस्थांनी नियमांचे उल्लंघन करू नये. वर-वधूचा विवाह इतर विवाहित लोकांच्या साक्षीने झाला पाहिजे. संन्यासी व ब्रह्मचारी यांची विवाहात साक्ष अपेक्षित नाही. ॥५॥
टिप्पणी
समीक्षा - (सायण भाष्य) ‘मातुरुदरे सहवास जनित्वं दम्पतित्वं पृथिवी भूमिर्वेद, जानाति, उतापि च द्यौर्द्युलोकोऽपि जानाति’ या व्याख्येत द्यावापृथ्वी सहवासजनित दम्पतित्व कसे जाणले जाते ही गोष्ट सायण आपल्या कल्पनासिद्धीच्या आग्रहामुळे स्पष्ट करू शकला नाही.
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