ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 10/ मन्त्र 6
ऋषिः - यमी वैवस्वती
देवता - यमो वैवस्वतः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
को अ॒स्य वे॑द प्रथ॒मस्याह्न॒: क ईं॑ ददर्श॒ क इ॒ह प्र वो॑चत् । बृ॒हन्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्य॒ धाम॒ कदु॑ ब्रव आहनो॒ वीच्या॒ नॄन् ॥
स्वर सहित पद पाठकः । अ॒स्य । वे॒द॒ । प्र॒थ॒मस्य॑ । अह्नः॑ । कः । ई॒म् । द॒द॒र्श॒ । कः । इ॒ह । प्र । वो॒च॒त् । बृ॒हत् । मि॒त्रस्य॑ । वरु॑णस्य । धाम॑ । कत् । ऊँ॒ इति॑ । ब्र॒वः॒ । आ॒ह॒नः॒ । वीच्या॑ । नॄन् ॥
स्वर रहित मन्त्र
को अस्य वेद प्रथमस्याह्न: क ईं ददर्श क इह प्र वोचत् । बृहन्मित्रस्य वरुणस्य धाम कदु ब्रव आहनो वीच्या नॄन् ॥
स्वर रहित पद पाठकः । अस्य । वेद । प्रथमस्य । अह्नः । कः । ईम् । ददर्श । कः । इह । प्र । वोचत् । बृहत् । मित्रस्य । वरुणस्य । धाम । कत् । ऊँ इति । ब्रवः । आहनः । वीच्या । नॄन् ॥ १०.१०.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 10; मन्त्र » 6
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (1)
पदार्थ
हे दिवस ! यद्यपि द्यावापृथिवी मिथुन हमारा साक्षी है, प्रत्युत हा ! (इह) हमारे साथ सम्बन्ध रखनेवाले इस अन्तरिक्ष में (अस्य प्रथमस्य-अह्नः) इस प्रथम दिन अर्थात् सृष्टि के आरम्भ में हुए इस विवाह को (कः) कौन (वेद) जानता है ? अर्थात् कोई नहीं जानता और (ईम्) उस गत विवाह को (कः) किसने (ददर्श) देखा है, तथा (कः) कौन ही (प्रवोचत्) सुनकर कह सके कि हाँ इनका विवाह हुआ, अर्थात् कोई नहीं, क्योंकि संसार प्रत्यक्षवादी है। जो कुछ प्रत्यक्ष देखता है, उसी को कहता है। (मित्रस्य) मित्र का और (वरुणस्य) वरुण का (धाम) स्थान (बृहत्) दूर है। (आहनः) हे हृदयपीडक पते ! (कत्) कैसे (उ) ही कोई उस स्थान को जाकर वहाँ के (नॄन्) मनुष्यों को (वीच्य) सम्मुख करके उनको (ब्रवः) हमारा यह दुःख-वृत्तान्त कहे। मित्र अर्थात् सूर्य तेरा पिता पूर्व दिशा में और वरुण मेरा पिता पश्चिम में है। इस प्रकार अत्यन्त दूर हम दोनों के इन पितृकुलों में जाकर जो इस दुःखवृत्तान्त को सुना सके, ऐसा हमें कोई नहीं दिखलाई पड़ता। दिन का पिता मित्र ‘सूर्य’ और रात्रि का पिता वरुण है ॥६॥
भावार्थ
स्त्री-पुरुषों के विवाहसम्बन्ध दूर स्थान पर होना चाहिए, निकट स्थानवालों का विवाहसम्बन्ध उपयोगी नहीं होता। कभी संकट होने पर पितृकुलों को सहायक बनना चाहिए ॥६॥ समीक्षा (सायणभाष्य)-“मित्रस्य वरुणस्य मित्रावरुणयोर्बृहन्महद्धाम स्थानमहोरात्रं यदस्ति।” यहाँ “दिन और रात मित्रावरुण के धाम हैं” यह सायण का कथन उनकी अभीष्ट व्याख्या से विपरीत है, क्योंकि ‘दिन-रात’ स्थान नहीं हैं। दूसरे यहाँ इस प्रकार कहने की क्या आवश्यकता है, क्योंकि यदि दिन-रात के पितृकुल मित्रावरुण के धाम माने जावें, तब तो यहाँ दिन-रात का अपने संवाद दुःखवृत्तान्त को सुनाना उचित ही है, जो हमारी अर्थयोजना के साथ सम्बन्ध रखता है ॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
हे दिवस ! यद्यपि द्यावापृथिव्याविति मिथुनमावयोः साक्षि, प्रत्युत हा ! (इह) इहास्मत्सम्बद्धेऽन्तरिक्षे तु (अस्य प्रथमस्य-अह्नः) पूर्वस्य विवाहसमयस्य वृत्तम् (कः-वेद) को जानाति ? न कोऽपीत्यर्थः, तथा च (कः-ईम्) गतं विवाहं कः खलु (ददर्श) दृष्टवान् न कोऽपीति भावः, अपि च (कः-प्र वोचत्) कश्च श्रुत्वा प्रवोचत् यद् जातोऽनयोर्विवाह इति प्रवक्तुमर्हति, न कोऽपीत्येव, कुतः ? प्रत्यक्षवादिनो वै संसारिणः प्रत्यक्षं यत्पश्यन्ति तद्वदन्तीति (मित्रस्य वरुणस्य धाम बृहत्) मित्रावरुणयोर्धाम स्थानं बृहद् लम्बायमानं दूरमित्यर्थः (आहनः) हे हृदयपीडक पते ! (कत्-उ) कुतो हि तद् धाम गत्वा तत्रस्थान् (नॄन् वीच्य) जनान् वीक्ष्य सम्मुखीकृत्य तान् (ब्रवः) कश्चिद् ब्रूयादेतदावयोर्दुःखवृत्तान्तमिति। मित्रः सूर्य्यस्ते पिता पूर्वस्यां दिशि वरुणश्च मे पिता पश्चिमायां दिशि, एवमुभयोः स्थानं गत्वैतद्दुःखवृत्तान्तं कः श्रावयेत् ? न कश्चिदपि तत्र गन्तुमस्माकमत्र विद्यते। मित्रः सूर्य्योऽत्र प्रमाणम्-“मित्रो दाधार पृथिवीमुत द्याम्” [ऋ० ३।५९।१] अत्र दयानन्दर्षिणाऽप्यस्य सूर्य एवार्थो लिखितः। दिनस्य पिता मित्रः, रात्रेः पिता वरुणः, इत्थमेव तैत्तिरीयेऽप्युक्तम्-“मैत्रं वा अहः, वारुणी रात्रिः” [तै० ब्रा० १।७।१०।१] ॥६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Who knows of this complementarity created at the dawn of creation? He alone knows. As of now, who witnessed it? Who can vouchsafe it now? Vast is the distance between east, the house of Mitra, sun and the day, and west, house of Varuna, presiding deity of the night. O wanton dear, having seen the people now, who can say anything about that?
मराठी (1)
भावार्थ
स्त्री-पुरुषांचा विवाहसंबंध दूर स्थानी झाला पाहिजे. जवळ असणाऱ्यांचा विवाहसंबंध उपयोगाचा नाही. कधी संकट आल्यास पितृकुलाने सहायक बनले पाहिजे. ॥६॥
टिप्पणी
समीक्षा - (सायण भाष्य) - ‘मित्रस्य वरुणस्य मित्रावरुणयोर्बृहन्म हद्धाम स्थानमहोरात्रं यदस्ति’ येथे दिवस व रात्र मित्रावरुणाचे धाम आहेत.’ हे सायणचे कथन त्यांच्या अभीष्ट व्याख्येच्या विपरीत आहे. कारण दिवस-रात्र स्थान नाहीत. दुसरे म्हणजे या प्रकारे सांगण्याची आवश्यकता काय आहे? कारण जर दिवस-रात्रीचे पितृकुल मित्रावरुणचे धाम मानले गेल्यास येथे दिवस-रात्रीचा संवाद आपल्या दु:ख वृतान्ताला ऐकविणे योग्य आहे. जो आमच्या अर्थयोजनेशी संबंधित आहे.
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