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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 101 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 101/ मन्त्र 10
    ऋषिः - बुधः सौम्यः देवता - विश्वे देवा ऋत्विजो वा छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ तू षि॑ञ्च॒ हरि॑मीं॒ द्रोरु॒पस्थे॒ वाशी॑भिस्तक्षताश्म॒न्मयी॑भिः । परि॑ ष्वजध्वं॒ दश॑ क॒क्ष्या॑भिरु॒भे धुरौ॒ प्रति॒ वह्निं॑ युनक्त ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । तु । सि॒ञ्च॒ । हरि॑म् । ई॒म् । द्रोः । उ॒पऽस्थे॑ । वाशी॑भिः । त॒क्ष॒त॒ । अ॒श्म॒न्ऽमयी॑भिः । परि॑ । स्व॒ज॒ध्व॒म् । दश॑ । क॒क्ष्या॑भिः । उ॒भे इति॑ । धुरौ॑ । प्रति॑ । वह्नि॑म् । यु॒न॒क्त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ तू षिञ्च हरिमीं द्रोरुपस्थे वाशीभिस्तक्षताश्मन्मयीभिः । परि ष्वजध्वं दश कक्ष्याभिरुभे धुरौ प्रति वह्निं युनक्त ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । तु । सिञ्च । हरिम् । ईम् । द्रोः । उपऽस्थे । वाशीभिः । तक्षत । अश्मन्ऽमयीभिः । परि । स्वजध्वम् । दश । कक्ष्याभिः । उभे इति । धुरौ । प्रति । वह्निम् । युनक्त ॥ १०.१०१.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 101; मन्त्र » 10
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (1)

    पदार्थ

    (द्रोः) जिसमें प्राण रक्तधाराएँ-द्रवण करते हैं-बहते हैं, ऐसे वृक्षरूप देह के (उपस्थे) हृदयप्रदेश में (हरिम्) ताप हरनेवाले परमात्मा को उसके आनन्दरस को (तु-ईम्) हाँ फिर (आ षिञ्च) भलीभाँति सिञ्चन कर (अश्मन्मयीभिः) व्यापनशील (वाशीभिः) स्तुतिवाणियों से (तक्षत) स्तुति करो-साक्षात् करो तथा (दश कक्ष्याभिः) दश रज्जुबन्धनियों अर्थात् पाँच ज्ञानेन्द्रियों, वाणी, मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्कार से (वह्निम्) सबके बोढा़-वहन करनेवाले परमात्मा को (धुरौ प्रति-युनक्त) धारणीय संसार और मोक्ष के प्रति संयुक्त करो, (परि स्वजध्वम्) उसे परिपूर्णरूप से आलिङ्गित करो ॥१०॥

    भावार्थ

    प्राण रक्तधाराओं के बहने के स्थान शरीर में हृदय के अन्दर तापहारक परमात्मा के आनन्दरस को सींचना चाहिये तथा स्तुतिवाणियों द्वारा उसका साक्षात् करना चाहिये। पाँच ज्ञानेन्द्रियों, वाणी, और अन्तःकरण-चतुष्टय द्वारा सबको वहन करनेवाले परमात्मा को संसार और मोक्ष में आश्रित करे ॥१०॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (द्रोः) यस्मिन् द्रवन्ति प्राणा रक्तधाराश्च स द्रुर्देहः “ऊर्ध्व-मूलोऽवाक्शाखः” [कठो०] तस्य (उपस्थे) हृदयप्रदेशे (हरिम्) तापहरं परमात्मानं तदानन्दरसं (तु-ईम्) पदपूरणौ (आ सिञ्च) समन्तात् सिञ्च (अश्मन्मयीभिः-वाशीभिः) व्यापनशीलाभिर्वाग्भिः-स्तुतिभिः (तक्षत) स्तुवीध्वं (दश-कक्ष्याभिः) दशभिः-रज्जुभिर्बन्धनीभिः-पञ्च ज्ञानेन्द्रियैर्वागिन्द्रियेण मनोबुद्धिचित्ताहङ्कारैश्च (वह्निम्) सर्ववोढारं परमात्मानं (धुरौ प्रति युनक्त) धारणीयौ संसारमोक्षौ प्रति संयोजयत (परि स्वजध्वम्) तं परिपूर्णरूपेणालिङ्गयत ॥१०॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O yajaka, pour inspiring soma into the cask, fill it to the brim, refine the cask with chiselled strokes of adamantine will, season the soma and secure the cask with ten sensitive fingers, and yoke the horse to the two suspension poles of the chariot.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जेथे प्राण व रक्तधारा वाहतात अशा हृदयात तापहारक परमेश्वराचा आनंद सिंचित केला पाहिजे. पाच ज्ञानेंद्रिये वाणी व अंत:करण चतुष्ट्याद्वारे सर्वांना वहन करणाऱ्या पमरेश्वराचा संसार व मोक्षासाठी आश्रय घेतला पाहिजे. ॥१०॥

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