ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 113/ मन्त्र 6
ऋषिः - शतप्रभेदनो वैरूपः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराड्जगती
स्वरः - निषादः
इन्द्र॒स्यात्र॒ तवि॑षीभ्यो विर॒प्शिन॑ ऋघाय॒तो अ॑रंहयन्त म॒न्यवे॑ । वृ॒त्रं यदु॒ग्रो व्यवृ॑श्च॒दोज॑सा॒पो बिभ्र॑तं॒ तम॑सा॒ परी॑वृतम् ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑स्य । अत्र॑ । तवि॑षीभ्यः । वि॒ऽर॒प्शिनः॑ । ऋ॒घा॒य॒तः । अ॒रं॒ह॒य॒न्त॒ । म॒न्यवे॑ । वृ॒त्रम् । यत् । उ॒ग्रः । वि । अवृ॑श्चत् । ओज॑सा । अ॒पः । बिभ्र॑तम् । तम॑सा । परि॑ऽवृतम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रस्यात्र तविषीभ्यो विरप्शिन ऋघायतो अरंहयन्त मन्यवे । वृत्रं यदुग्रो व्यवृश्चदोजसापो बिभ्रतं तमसा परीवृतम् ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रस्य । अत्र । तविषीभ्यः । विऽरप्शिनः । ऋघायतः । अरंहयन्त । मन्यवे । वृत्रम् । यत् । उग्रः । वि । अवृश्चत् । ओजसा । अपः । बिभ्रतम् । तमसा । परिऽवृतम् ॥ १०.११३.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 113; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अत्र) इस अवसर पर (विरप्शिनः) महैश्वर्यगुणयुक्त (ऋघायतः) शत्रुओं को हिंसित करते हुए (इन्द्रस्य) राजा के (तविषीभ्यः) बलवती सेनाओं के सैनिक (मन्यवे) मन्तव्य के लिये-शासन पालन करने के लिये (अरंहयन्त) वेग से गति करते हैं (यत्) जब (उग्रः) प्रतापी राजा (तमसा परीवृतम्) अन्धकार से आच्छादित (अपः-बिभ्रतम्) आप्त प्रजाओं को स्वाधीन करनेवाले (वृत्रम्) शत्रु को (ओजसा) बल से (वि अवृश्चत्) छिन्न-भिन्न करता है-नष्ट करता है ॥६॥
भावार्थ
युद्ध के अवसर पर महैश्वर्यवान् शत्रुओं को नष्ट करनेवाले राजा के सैनिक शासन का पालन करने के लिये वेग से आगे बढ़ते हैं, जब कि प्रतापी राजा प्रजा को स्वाधीन करनेवाले शत्रु को नष्ट करता है ॥६॥
विषय
वृत्र- व्रश्चन
पदार्थ
[१] (अत्र) = यहाँ इस मानव जीवन में (विरप्शिन:) = प्रभु के नामों का उच्चारण करनेवाले (ऋघायतः) = काम आदि शत्रुओं का हिंसन करते हुए (इन्द्रस्य) = जितेन्द्रिय पुरुष के (तविषीभ्यः) = बलों से इसकी इन्द्रियाँ (मन्यवे) = ज्ञान प्राप्ति के लिए (अरंहयन्त) = वेगवाली होती हैं। जब हम जितेन्द्रिय बनते हैं, प्रभु का स्मरण करते हैं और काम आदि का संहार करने के लिए यत्नशील होते हैं तो हमारी इन्द्रियाँ ज्ञान प्राप्ति में प्रवृत्त होती हैं । [३] यह होता तभी है (यद्) = जब कि (उग्रः) = एक तेजस्वी पुरुष (ओजसा) = ओजस्विता से (वृत्रम्) = वासना को (व्यवृश्चत्) = काट डालता है, छिन्न-भिन्न कर देता है । उस वासना को, जो कि (अपः बिभ्रतम्) = [भृ=take away] हमारे रेत: कणों को हमारे से दूर ले जाती है तथा (तमसा परीवृतम्) = अन्धकार से आवृत है । वासना के कारण शक्ति नष्ट होती है, अज्ञानान्धकार बढ़ता है। इस ज्ञान की आवरणभूत वृत्र नामक वासना को जब हम नष्ट करते हैं तो हमारी इन्द्रियाँ ज्ञान प्राप्ति के लिए वेग से आगे बढ़ती हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- हम वासना का विनाश करके ज्ञान प्राप्ति के लिए अग्रसर हों ।
विषय
शत्रुनाश के उत्तम फल। राजा के आतंक का परिणाम।
भावार्थ
(यत्) जब वह (उग्रः) बलवान्, शस्त्रादि को उठाने चाला, भयंकर होकर (अपः बिभ्रतम्) जलों को धारण करने वाले मेघवत् आप्त प्रजाओं के धारण करने वाले और (तमसा परिवृतम्) अन्धकार से घिरे (वृत्रम्) विध्नकारी शत्रु को (वि अवृश्चत्) विशेष रूप से काट गिराता है (अत्र) इस अवसर में (तविषीभ्यः) शक्तियों के (इन्द्रस्य) स्वामी, (विरप्शिनः) महान् (ऋघायतः) शत्रुनाशक राजा के कारण प्रतिपक्षी जन (अरहयन्त) वेग से भाग जाते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः शतप्रभदनो वैरूपः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, ५ जगती। ३, ६, ९ विराड् जगती। ३ निचृज्जगती। ४ पादनिचृज्जगती। ७, ८ आर्चीस्वराड् जगती। १० पादनिचृत्त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अत्र) अस्मिन्नवसरे (विरप्शिनः-ऋघायतः-इन्द्रस्य) महैश्वर्यगुण-युक्तस्य “विरप्शिन् महैश्वर्यगुणयुक्तमनुष्यः” [यजु० १।२८ दयानन्दः] शत्रून् हिंसतः “ऋघायतो हिंसतः” [ऋ० ४।३८।८ दयानन्दः] राज्ञः (तविषीभ्यः) तविषीणाम् “व्यत्ययेन षष्ठीस्थाने चतुर्थी” बलवतीनां सेनानां सैनिकाः (मन्यवे-अरंहयन्त) मन्तव्याय शासनाय शासनपालनाय वेगेन गच्छन्ति (यत्-उग्रः) यदा उग्रः प्रतापी राजा (तमसा परीवृतम्) तमसा पूर्णमज्ञानेनाच्छादितम् (अपः-बिभ्रतम्) आप्ताः प्रजाः-स्वाधीनीकरं शत्रुं (ओजसा वृत्रं वि अवृश्चत्) बलेनावरक आक्रमणकारिणं शत्रुं छिन्नं करोति ॥६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
When the blazing Indra with his might breaks the demonic cloud hoarding the waters of life covered in darkness, then in honour of the brave hero of shattering thunder and his brilliant forces, poets sing songs of adoration.
मराठी (1)
भावार्थ
जेव्हा पराक्रमी राजा प्रजेला त्रास देणाऱ्या शत्रूला नष्ट करतो तेव्हा त्या युद्धात महा ऐश्वर्यवान शत्रूला नष्ट करणाऱ्या राजाचे सैनिक शासनाचे पालन करण्यासाठी वेगाने पुढे जातात. ॥६॥
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