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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 120 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 120/ मन्त्र 9
    ऋषिः - बृहद्दिव आथर्वणः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ए॒वा म॒हान्बृ॒हद्दि॑वो॒ अथ॒र्वावो॑च॒त्स्वां त॒न्व१॒॑मिन्द्र॑मे॒व । स्वसा॑रो मात॒रिभ्व॑रीररि॒प्रा हि॒न्वन्ति॑ च॒ शव॑सा व॒र्धय॑न्ति च ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒व । म॒हान् । बृ॒हत्ऽदि॑वः । अथ॑र्वा । अवो॑चत् । स्वाम् । त॒न्व॑म् । इन्द्र॑म् । ए॒व । स्वसा॑रः । मा॒त॒रिभ्व॑रीः । अ॒रि॒प्राः । हि॒न्वन्ति॑ । च॒ । शव॑सा । व॒र्धय॑न्ति च ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवा महान्बृहद्दिवो अथर्वावोचत्स्वां तन्व१मिन्द्रमेव । स्वसारो मातरिभ्वरीररिप्रा हिन्वन्ति च शवसा वर्धयन्ति च ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एव । महान् । बृहत्ऽदिवः । अथर्वा । अवोचत् । स्वाम् । तन्वम् । इन्द्रम् । एव । स्वसारः । मातरिभ्वरीः । अरिप्राः । हिन्वन्ति । च । शवसा । वर्धयन्ति च ॥ १०.१२०.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 120; मन्त्र » 9
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (एव) इस प्रकार (महान् बृहद्दिवः) महान् विद्यावान् (अथर्वा) स्थिर योगी (स्वां तन्वम्) अपनी विस्तृत स्तुति प्रार्थना को (इन्द्रम्-एव) इन्द्र-ऐश्वर्यवान् परमात्मा के प्रति ही (अवोचत्) बोलता है (स्वसारः) स्वयं सरणशील होती हुयी (मातरिभ्वरीः) जगन्निर्माता परमात्मा में वर्तमान होती हुयी (अरिप्राः) निष्पाप स्तुतिधाराएँ (हिन्वन्ति) परमात्मा को प्रसन्न करती हैं तथा (च) और (शवसा) बल से-प्रभाव से (वर्धयन्ति) स्तुति करनेवाले के अन्दर परमात्मा को साक्षात् कराती हैं ॥९॥

    भावार्थ

    महान् विद्वान् अपनी स्तुति प्रार्थना को जब परमात्मा के प्रति अर्पित करता है, तो निष्पाप स्तुतियाँ परमात्मा में आश्रय लेकर उसे प्रभावित करती हैं और स्तुति करनेवाले के अन्दर साक्षात् कराती हैं ॥९॥

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    विषय

    मैं 'इन्द्र' ही तो हूँ [यदि वा द्या स्यामहं त्वम्] ए॒वा

    पदार्थ

    [१] (एवा) = इस प्रकार (महान्) = पूजा की वृत्तिवाला [मह पूजायाम्] (बृहद्दिवः) = उत्कृष्ट ज्ञान-धनवाला (अथर्वा) = न डाँवाडोल वृत्तिवाला पुरुष (स्वां तन्वम्) = अपने शरीर को (इन्द्रं एव अवोचत्) = परमेश्वर ही कहता है । अन्तः स्थित प्रभु के कारण उसे प्रभु ही समझता है । शीशी में शहद हो, तो शीशी की ओर संकेत करके यही तो कहा जाता है कि 'यह शहद है'। इसी प्रकार आनन्द स्थित प्रभु को देखता हुआ यह अपने शरीर की ओर निर्देश करता हुआ यही कहता है कि 'यह प्रभु ही है'। [२] इस प्रकार ये (स्वसार:) = उस आत्मतत्त्व की ओर चलनेवाले, (मातरिभ्वरी:) = सदा वेदवाणीरूप माता में होनेवाले, अर्थात् वेदज्ञान को प्राप्त होनेवाले (अरिमाः) = निर्दोष पुरुष (हिन्वन्ति च) = उस प्रभु की ओर जाते हैं (च) = और (शवसा) = शक्ति के द्वारा (वर्धयन्ति) = अपने को बढ़ाते हैं । जितना-जितना हम प्रभु के समीप होते जाते हैं, उतनी उतनी हमारी शक्ति बढ़ती जाती है।

    भावार्थ

    भावार्थ- ज्ञानी देखता है कि प्रभु की व्याप्ति के कारण वह प्रभु ही तो है । वह प्रभु की ओर चलनेवाला बनता है, सदा ज्ञान में निवास करता है और इस प्रकार अपनी शक्ति को बढ़ाता है । सूक्त का सार यह है कि ज्येष्ठ ब्रह्म का स्तवन करता हुआ यह 'बृहद्दिव' 'इन्द्र' ही हो जाता है । यह अब उस ज्योतिर्मय प्रभु को अपने अन्दर देखने के कारण 'हिरण्यगर्भ' हो जाता है और प्रजाओं के रक्षण में लगा हुआ 'प्राजापत्य' होता है। प्रभु का 'हिरण्यगर्भ' नाम से स्तवन करता हुआ कहता है कि-

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    विषय

    परमेश्वर का विराट् रूप।

    भावार्थ

    (एवा) इस प्रकार (महानू) सबसे बड़ा (अथर्वा) सबका पालन करने वाला, प्रजापति (बृहद् दिवः) बड़े भारी जगत् को प्रकाशित करने वाला परमेश्वर (इन्द्रम् एव) परमैश्वर्यमय विराट् रूप को (स्वां तन्वम् एव) अपने देह के समान ही (अवोचत्) बतला रहा है। (स्वसारः) उसके अपने आत्म-सामर्थ्य से चलने वाली जगत् है की महान् शक्तियां (मातरिभ्वरीः) अपने निर्माता प्रभु के आश्रय से रह कर अपने को प्रकट करती हुई (अरि-प्राः) अपने स्वामी के अङ्गों की तरह उसको पूर्ण करती हुईं वा (अरिप्राः) सर्वथा निर्दोष होकर (शवसा) बड़े भारी बल से (हिन्वन्ति) जगत् को सञ्चालित करतीं और (वर्धयन्ति) जगत् की वृद्धि वा संहार करती हैं वा उसी प्रभु की महिमा को बढ़ाती हैं। इति द्वितीयो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्बृहद्दिव आथर्वणः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः– १ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। २, ३, ६ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४, ५, ९ निचृत्त्रिष्टुप्। ७, ८ विराट् त्रिष्टुप्। नवर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (एव महान् बृहद्दिवः-अथर्वा) एवं महाविद्यावान् स्थिरो योगी (स्वां तन्वम्-इन्द्रम्-एव-अवोचत्) स्वकीयां विस्तृतां स्तुतिं प्रार्थनाम्-इन्द्रं-परमात्मानं प्रत्येव कथयति (स्वसारः-मातरिभ्वरीः-अरिप्राः) स्वयं सरन्त्यस्तथा मातरि जगन्निर्मातरि तस्मिन् परमात्मनि भवन्त्यः-‘मातरि शब्दपूर्वकाद् भूधातोः’ “अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते” [अष्टा० ३।२।७५] इति वनिप् प्रत्ययः “वनो र च” [अष्टा० ४।१।७] इति ङीप्-रेफश्च ‘निष्पापाः’ स्तुतिधाराः-तमिन्द्रं परमात्मानं (हिन्वन्ति च शवसा-वर्धयन्ति च) प्रीणयन्ति “हिन्वन्ति प्रीणयन्ति” [ऋ० १।१४४।५ दयानन्दः] ‘हिवि प्रीणनार्थः’ [भ्वादि०] तथा स्वप्रभावेण वर्धयन्ति स्तोतरि साक्षात् कारयन्ति च ॥९॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Thus does the sage of boundless light and vision of wisdom with settled mind address his song of adoration to Indra only, and the pure immaculate fluent streams of speech like motherly creations inspire the world and exalt humanity with strength and enthusiasm.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    महान विद्वान आपल्या स्तुती प्रार्थनेला जेव्हा परमात्म्याला अर्पित करतो तेव्हा निष्पाप स्तुुती परमात्म्याच्या आश्रयाने त्याला प्रभावित करते व स्तुती करणाऱ्यामध्ये परमात्म्याला साक्षात करविते. ॥९॥

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