ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 61/ मन्त्र 8
ऋषिः - नाभानेदिष्ठो मानवः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स ईं॒ वृषा॒ न फेन॑मस्यदा॒जौ स्मदा परै॒दप॑ द॒भ्रचे॑ताः । सर॑त्प॒दा न दक्षि॑णा परा॒वृङ्न ता नु मे॑ पृश॒न्यो॑ जगृभ्रे ॥
स्वर सहित पद पाठसः । ई॒म् । वृषा॑ । न । फेन॑म् । अ॒स्य॒त् । आ॒जौ । स्मत् । आ । परा॑ । ऐ॒त् । अप॑ । द॒भ्रऽचे॑ताः । सर॑त् । प॒दा । न । दक्षि॑णा । प॒रा॒ऽवृक् । न । ताः । नु । मे॒ । पृ॒श॒न्यः॑ । ज॒गृ॒भ्रे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स ईं वृषा न फेनमस्यदाजौ स्मदा परैदप दभ्रचेताः । सरत्पदा न दक्षिणा परावृङ्न ता नु मे पृशन्यो जगृभ्रे ॥
स्वर रहित पद पाठसः । ईम् । वृषा । न । फेनम् । अस्यत् । आजौ । स्मत् । आ । परा । ऐत् । अप । दभ्रऽचेताः । सरत् । पदा । न । दक्षिणा । पराऽवृक् । न । ताः । नु । मे । पृशन्यः । जगृभ्रे ॥ १०.६१.८
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 61; मन्त्र » 8
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (1)
पदार्थ
(सः-ईं वृषा-आजौ-फेनम्-अस्यत्) वह दुहिता का वीर्यसेचक-पति उस प्राप्त कन्या में प्राणों का तत्त्व वीर्य फेंकता है-छोड़ता है, वह अभीष्ट है, परन्तु (दभ्रचेताः-स्मत्) अल्पमनवाला सब धन के लोभ से तुच्छ भावनावाला हमसे (आ-अप परा-ऐत्) भलीभाँतिरूप से दूर हो जाये-दूर रहे (दक्षिणा न पदा सरत् परावृक्) दी जानेवाली कन्या को पैर से न ठुकराये-अनादर करके न छोड़े (मे ताः पृश्न्यः-न जगृभ्रे) मेरी उन अर्थात् मेरे साथ स्पर्श करनेवाली भूमि सम्पत्तियों को ग्रहण न करे ॥८॥
भावार्थ
कन्या का पति पिता द्वारा दी हुई कन्या में सन्तान उत्पन्न करे, यह तो अभीष्ट है, परन्तु कन्या के पिता की भूमि आदि सारी सम्पत्ति लेने के लोभ में कन्या का ठुकराना-उसे त्याग देना निकृष्ट कार्य है। ऐसा नहीं करना चाहिए ॥८॥
इंग्लिश (1)
Meaning
That master of the home, Agni, like a mighty generous cloud, showers the vitality of life in the process of nature and sends our homage of oblations to far off distances from us except that if some small minded person of stingy character takes no step forward and neglects the ordinances of charity, then Agni, otherwise all embracing, does not accept our oblations.
मराठी (1)
भावार्थ
पती आपल्या पत्नीद्वारे संतान उत्पन्न करतो हे अभीष्ट आहे; परंतु कन्येच्या पित्याची भूमी इत्यादी संपूर्ण संपत्ती घेण्याच्या लोभाने कन्येला सोडून देणे - तिचा त्याग करणे निकृष्ट कार्य आहे, असे करता कामा नये. ॥८॥
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