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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 91 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 91/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अरुणो वैतहव्यः देवता - अग्निः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    स द॑र्शत॒श्रीरति॑थिर्गृ॒हेगृ॑हे॒ वने॑वने शिश्रिये तक्व॒वीरि॑व । जनं॑जनं॒ जन्यो॒ नाति॑ मन्यते॒ विश॒ आ क्षे॑ति वि॒श्यो॒३॒॑ विशं॑विशम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । द॒र्श॒त॒ऽश्रीः । अति॑थिः । गृ॒हेऽगृ॑हे । वने॑ऽवने । शि॒श्र॒िये॒ । त॒क्व॒वीःऽइ॑व । जन॑म्ऽजनम् । जन्यः॑ । न । अति॑ । म॒न्य॒ते॒ । विशः॑ । आ । क्षे॒ति॒ । वि॒श्यः॑ । विश॑म्ऽविशम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स दर्शतश्रीरतिथिर्गृहेगृहे वनेवने शिश्रिये तक्ववीरिव । जनंजनं जन्यो नाति मन्यते विश आ क्षेति विश्यो३ विशंविशम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः । दर्शतऽश्रीः । अतिथिः । गृहेऽगृहे । वनेऽवने । शिश्रिये । तक्ववीःऽइव । जनम्ऽजनम् । जन्यः । न । अति । मन्यते । विशः । आ । क्षेति । विश्यः । विशम्ऽविशम् ॥ १०.९१.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 91; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सः) वह परमात्मा (दर्शतश्रीः) दर्शनीय शोभावाला (अतिथिः) पूजनीय (गृहे गृहे) प्रत्येक मनुष्य के हृदय घर में (वने वने) भलीभाँति भजन के साधन अन्तःकरण में (शिश्रिये) रहता है (तक्ववीः-इव) गतिशील वायु को प्राप्त होनेवाले आकाश के सामन (जनं जनं जन्यः) जन-जन के प्रति जनहित (न अति-मन्यते) किसी से उपेक्षा नहीं  करता है, उदारता बरतता  है, (विशः-आ क्षेति) प्रजाओं के प्रति-प्रजाओं के अन्दर निवास करता है (विशं विशं विश्यः) प्रत्येक प्रजा का प्रजाहितैषी परमात्मा स्तुति करने योग्य है ॥२॥

    भावार्थ

    परमात्मा दर्शनीय शोभावाला प्रत्येक के हृदय में और अन्तःकरण में रहता है, वह आकाश के समान व्यापक जनमात्र का हितैषी प्राणिमात्र का कल्याणकारी उदार है, उसकी स्तुति करनी चाहिये ॥२॥

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    विषय

    दर्शतश्रीः 'प्रभु'

    पदार्थ

    [१] (स) = वे प्रभु (दर्शतश्री:) = दर्शनीय शोभावाले हैं, हिमाच्छादित पर्वतों में, समुद्रों में, पृथिवी में सर्वत्र प्रभु की महिमा का दर्शन होता है । वे प्रभु (गृहे गृहे) = प्रत्येक घर में (अतिथिः) = [अत सातत्यगमने] निरन्तर आनेवाले हैं । यह हमारा ही दोष है कि हम उस प्रभु का स्वागत करने को तैयार नहीं होते । [२] [तक्वन् = rushing forwald, श्री गतौ] वे प्रभु (तक्कीः इव) = तीव्रगति से आनेवाले की तरह (वने वने) = [वन= संभक्तौ] प्रत्येक उपासक में (शिश्रिये) = आश्रय करते हैं, प्रत्येक उपासक में प्रभु का निवास है । [३] (जन्यः) = सब लोगों का हित करनेवाला वह प्रभु (जनं जनम्) = किसी भी मनुष्य को (न अतिमन्यते) = [विसृज्य न गच्छति सा०] छोड़ नहीं जाता। उस प्रभु की कृपादृष्टि सब पर रहती है । [४] (विश्यः) = सब प्रजाओं का हित करनेवाला वह प्रभु (विशः आक्षेति) = समन्तात् सब प्रजाओं में निवास करता है। वे प्रभु विशं विशं [आक्षेति ] प्रत्येक प्रजावर्ग को शासित करते हैं। प्रभु के शासन का उल्लंघन न कर सकने से सब प्रजाएँ कर्मानुसार दिये दण्ड को भोगती हुई विविध योनियों में जन्म लेती हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ-संसार में सर्वत्र प्रभु की महिमा दिखती है। वे प्रभु सब प्राणियों में निवास करते हैं, सबका शासन करते हैं।

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    विषय

    अतिथिवत् परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    (सः) वह परमेश्वर (दर्शत-श्रीः) दर्शनीय विभूति वाला, (गृहे-गृहे अतिथिः) घर २ में अतिथि के तुल्य पूज्य एवं (गृहे-गृहे) प्रत्येक ग्रहण करने योग्य पदार्थ में बाह्य सत्ता को अतिक्रमण कर के अतीन्द्रिय रूप में विद्यमान, अन्तर्व्यापक (वने-वने) काष्ठ २ में (तक्कवीः इव) व्यापक अग्नि के तुल्य (वने-वने) प्रत्येक जलबिन्दु, या प्रत्येक ऐश्वर्य युक्त पदार्थ में (शिश्रिये) शोभा को प्राप्त है, वह (जन्यः) समस्त उत्पन्न होने वाले प्राणियों का हितकारी और स्वयं भी समस्त जगत् को उत्पन्न करने वाला है वह (जनं जनं) प्रत्येक प्राणी में व्यापक रह कर, भी (विशः) प्रजाओं को वा लोकों को (न अति मन्यते) अभिमान से तिरस्कृत नहीं करता, वह किसी की भी उपेक्षा नहीं करता, प्रत्युत वह (विश्यः) प्रजाओं का हितकारी होकर (विशं-विशं आ क्षेति) प्रत्येक प्रजा के भीतर राजावत् निवास करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः अरुणो वैतहव्यः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:- १, ३, ६ निचृज्जगती। २, ४, ५, ९, १०, १३ विराड् जगती। ८, ११ पादनिचृज्जगती। १२, १४ जगती। १५ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूकम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सः) स परमात्मा (दर्शतश्रीः) दर्शनीयशोभावान् (अतिथिः) पूज्यः “अतिथिः पूजनीयः” [ऋ० १।१२८।४-दयानन्दः] (गृहे गृहे वने वने शिश्रिये) प्रत्येकजनस्य हृद्गृहे सम्भजनसाधनेऽन्तःकरणे श्रितोऽस्ति (तक्ववीः-इव) तकति-गच्छतीति तक्वा वायुः “तकति गतिकर्मा” [निघ० २।१४] तक्वानं गतिमन्तं वायुं व्याप्नोतीति तक्ववीः-आकाशः, आकाश इव सर्वव्यापकः (जनं जनं जन्यः) जनं जनं प्रति जनहितः (न-अति मन्यते) न हि स उपेक्षते (विशः-आ क्षेति) प्रजाः प्रति निवसति (विशं विशं विश्यः) विशं विशं प्रति प्रजां प्रजां प्रति प्रजाहितः स परमात्मा स्तोतव्यः ॥२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Commanding excellent grace and grandeur, honoured like a holy guest, it abides in every home and every forest like a flying bird. Lover of humanity, it blesses every community, ignores none, scorns none, loves every class of people and lives with all classes and communities with equal love and favour.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा दर्शनीय, शोभायुक्त, प्रत्येकाच्या हृदयात व अंत:करणात असतो. तो आकाशाप्रमाणे व्यापक, लोकांचा हितेच्छु प्राणिमात्रासाठी कल्याणकारी, उदार आहे. त्याची स्तुती केली पाहिजे. ॥२॥

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