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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 96 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 96/ मन्त्र 10
    ऋषिः - बरुः सर्वहरिर्वैन्द्रः देवता - हरिस्तुतिः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    उ॒त स्म॒ सद्म॑ हर्य॒तस्य॑ प॒स्त्यो॒३॒॑रत्यो॒ न वाजं॒ हरि॑वाँ अचिक्रदत् । म॒ही चि॒द्धि धि॒षणाह॑र्य॒दोज॑सा बृ॒हद्वयो॑ दधिषे हर्य॒तश्चि॒दा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । स्म॒ । सद्म॑ । ह॒र्य॒तस्य॑ । प॒स्त्योः॑ । अत्यः॑ । न । वाज॑म् । हरि॑ऽवान् । अ॒चि॒क्र॒द॒त् । म॒ही । चि॒त् । हि । धि॒षणा॑ । अह॑र्यत् । ओज॑सा । बृ॒हत् । वयः॑ । द॒धि॒षे॒ । ह॒र्य॒तः । चि॒त् । आ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत स्म सद्म हर्यतस्य पस्त्यो३रत्यो न वाजं हरिवाँ अचिक्रदत् । मही चिद्धि धिषणाहर्यदोजसा बृहद्वयो दधिषे हर्यतश्चिदा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । स्म । सद्म । हर्यतस्य । पस्त्योः । अत्यः । न । वाजम् । हरिऽवान् । अचिक्रदत् । मही । चित् । हि । धिषणा । अहर्यत् । ओजसा । बृहत् । वयः । दधिषे । हर्यतः । चित् । आ ॥ १०.९६.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 96; मन्त्र » 10
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
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    हिन्दी (1)

    पदार्थ

    (उत स्म) हाँ कमनीय परमात्मा के (हर्यतस्य) दो घर समान के मध्य (सद्म) सदन-व्यापन उपवेशन को (अत्यः) घोड़ा (वाजं न) संग्राम को जैसे प्राप्त होता है, ऐसे (हरिवान्) दुःखनाशक सुखकारक कृपाप्रसादवाला परमात्मा (अचिक्रदत्) उपासक के अन्दर वेग से प्राप्त होता है। (मही चित्) महत्त्वपूर्ण ही (धिषणा-ओजसा) स्तुति वाणी को अपने तेज से (अहर्यत्) चाहता है (हर्यतः) वह तू कमनीय (बृहत्) महान् (वयः) जीवन को (चित्) भी (दधिषे) उपासक के लिए धारण कराता है ॥१०॥

    भावार्थ

    परमात्मा मोक्षधाम और संसार दोनों के अन्दर व्यापता है, घोड़ा जैसे संग्राम में व्यापता है, वह उपासक की स्तुति को अपने प्रभाव से चाहता है, उपासक के लिए प्रतिकाल में महान् या महत्त्वपूर्ण जीवन-मोक्ष की आयु को प्राप्त कराता है, धारण कराता है ॥१०॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (उत स्म) अपि खलु (हर्यतस्य) कमनीयस्य परमात्मनः (पस्त्योः सद्म) पस्त्ययोः “यकारलोपश्छान्दसः” गृहभूतयोर्मध्ये “पस्त्यं गृहनाम” [निघ० ३।४] सदनं प्रवेशनं व्यापनम् (अत्यः-वाजं न) अश्वः सङ्ग्राममिव (हरिवान्-अचिक्रदत्) दुःखहारकसुखकारक-कृपाप्रसादवान् परमात्मा गच्छति व्याप्नोति (मही चित्-धिषणा-ओजसा-अहर्यत्) महत्त्वपूर्णा स्तुतिवाचं “द्वितीयाविभक्तेर्लुक् छान्दसः” स्वात्मतेजसा कामयते “धिषणा वाङ्नाम” [निघ० १।११] (हर्यतः) स त्वं कमनीयः (बृहत्-वयः-चित्-दधिषे) महज्जीवनमुपासकायापि धारयसि ॥१०॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Potent and charming Indra pervades the regions of heaven and earth as his home and with his power and presence roars like a hero going to war. With his might he wields both the great earth and the refulgent heaven, loves them and bears abundant food, strength and joy for life there.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा मोक्ष व संसार दोन्हींना व्यापतो. घोडा जसा युद्धात गतिमान असतो तसा परमात्मा उपासकाला वेगाने प्राप्त होतो. तो उपासकाच्या स्तुतीला स्वीकारतो व त्याच्यासाठी महत्त्वपूर्ण जीवन-मोक्षाची आयू प्रदान करवितो, धारण करवितो. ॥१०॥

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