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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 15/ मन्त्र 2
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒वं॒शे द्याम॑स्तभायद्बृ॒हन्त॒मा रोद॑सी अपृणद॒न्तरि॑क्षम्। स धा॑रयत्पृथि॒वीं प॒प्रथ॑च्च॒ सोम॑स्य॒ ता मद॒ इन्द्र॑श्चकार॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒वं॒शे । द्याम् । अ॒स्त॒भा॒य॒त् । बृ॒हन्त॑म् । आ । रोद॑सी॒ इति॑ । अ॒पृ॒ण॒त् । अ॒न्तरि॑क्षम् । सः । धा॒र॒य॒त् । पृ॒थि॒वीम् । प॒प्रथ॑त् । च॒ । सोम॑स्य । ता । मदे॑ । इन्द्रः॑ । च॒का॒र॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अवंशे द्यामस्तभायद्बृहन्तमा रोदसी अपृणदन्तरिक्षम्। स धारयत्पृथिवीं पप्रथच्च सोमस्य ता मद इन्द्रश्चकार॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अवंशे। द्याम्। अस्तभायत्। बृहन्तम्। आ। रोदसी इति। अपृणत्। अन्तरिक्षम्। सः। धारयत्। पृथिवीम्। पप्रथत्। च। सोमस्य। ता। मदे। इन्द्रः। चकार॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 15; मन्त्र » 2
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे मनुष्या योऽवंशे द्यामस्तभयाद्बृहन्तं ब्रह्माण्डं रोदसी अन्तरिक्षं चापृणत्पृथिवीं धारयत्सोमस्य मदे ता पप्रथदेतत्सर्वं इन्द्रः क्रमेण चकार स युष्माभिरुपासनीयः ॥२॥

    पदार्थः

    (अवंशे) अविद्यमाने वंश इव वर्त्तमानेऽन्तरिक्षे (द्याम्) प्रकाशम् (अस्तभायत्) स्तभ्नाति (बृहन्तम्) महान्तम् (आ) (रोदसी) सूर्यभूमी (अपृणत्) पृणाति व्याप्नोति (अन्तरिक्षम्) आकाशम् (सः) (धारयत्) धरति (पृथिवीम्) (पप्रथत्) विस्तारयति (च) (सोमस्य) उत्पन्नस्य जगतो मध्ये (ता) तानि (मदे) आनन्दे (इन्द्रः) परमेश्वरः (चकार) करोषि ॥२॥

    भावार्थः

    केचिन्नास्तिक्यमाश्रित्य यद्येवं वदेयुर्य इमे लोकाः परस्पराकर्षणेन स्थिता एषां कश्चिदन्यो धारको रचयिता वा नास्तीति तान्प्रत्येवं विद्वांसः समादध्युः−यदि सूर्य्याद्याकर्षणेनैव सर्वे लोकाः स्थितिं लभन्ते तर्हि सृष्टेः प्रान्तेऽन्याकर्षकलोकाभावादाकर्षणं कथं सम्भवेत्तस्मात्सर्वव्यापकस्य परमेश्वरस्याकर्षणेनैव सूर्यादयो लोकाः स्वस्वरूपं स्वक्रियाश्च धरन्त्येतानि जगदीश्वरकर्माणि दृष्ट्वा धन्यवादैरीश्वरः सदा प्रशंसनीयः ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (अवंशे) अविद्यमान जिसका मान उस वंश के समान वर्त्तमान अन्तरिक्ष में (द्याम्) प्रकाश को (अस्तभायत्) रोकता (बृहन्तम्) बढ़ते हुए ब्रह्माण्ड को (रोदसी) सूर्य लोक भूमि लोक और (अन्तरिक्षम्) आकाश को (अपृणत्) प्राप्त होता (पृथिवीम्) पृथिवी को धारण करता (सोमस्य) उत्पन्न हुए जगत् के बीच (मदे) आनन्द के निमित्त (ता) उक्त कर्मों को (पप्रथत्) विस्तारता है उसको (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् परमेश्वर क्रम से (चकार) करता है (सः) वह तुम लोगों को उपासना करने योग्य है ॥२॥

    भावार्थ

    कोई नास्तिकता को स्वीकार कर यदि ऐसे कहे कि जो ये लोक परस्पर के आकर्षण से स्थिर हैं, इनका कोई और धारण करने वा रचनेवाला नहीं है, उनके प्रति विद्वान् जन ऐसा समाधान देवें कि यदि सूर्यादि लोकों के आकर्षण से ही सब लोक स्थिति पाते हैं, तो सृष्टि के अन्त में अर्थात् जहाँ कि सृष्टि के आगे कुछ नहीं है, वहाँ के लोकों का और लोकों के आकर्षण के बिना आकर्षण होना कैसे सम्भव है। इससे सर्वव्यापक परमेश्वर की आकर्षण शक्ति से ही सूर्यादि लोक अपने रूप और अपनी क्रियाओं को धारण करते हैं। ईश्वर के इन उक्त कर्मों को देख धन्यवादों से ईश्वर की प्रशंसा सर्वदा करनी चाहिये ॥२॥

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    विषय

    सूर्य का स्थापन, पृथिवी का धारण

    पदार्थ

    १. (अवंशे) = अनवलम्बन- आधार रहित आकाश में (द्याम्) = देदीप्यमान सूर्य को (अस्तभायद्) = वे प्रभु थामते हैं और (रोदसी) = द्यावापृथिवी को तथा (बृहन्तम् अन्तरिक्षम्) = विशाल अन्तरिक्षलोक को (आ अपृणत्) = समन्तात् तेज व प्रकाश से पूरित कर देते हैं । २. (स) = वे प्रभु ही (पृथिवीम्) = इस पृथिवी को (धारयत्) = धारण करते हैं (च) = और (पप्रथत्) = विस्तृत करते हैं । (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु (सोमस्य मदे) = सोम के उल्लास में (ता) = उन महत्त्वपूर्ण कार्यों को चकार करते हैं। प्रभु तो सोम के- शक्ति के पुञ्ज हैं। इस शक्ति के कारण ही वे इन कार्यों को कर पाते हैं। एक प्रभु का उपासक भी [इन्द्रः] = जितेन्द्रिय बनकर सोमरक्षण करता हुआ मस्तिष्करूप द्युलोक में ज्ञान-सूर्योदय करता है–शरीर, हृदय व मस्तिष्क को प्रकाशमय करता है और पृथिवीरूप शरीर की शक्तियों का विस्तार करता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सर्वशक्तिमान् प्रभु ही निराधार आकाश प्रदेश में सूर्य की स्थापना करके त्रिलोक को प्रकाश से परिपूर्ण करते हैं और इस विस्तृत पृथिवी को धारण करते हैं।

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    विषय

    परमेश्वर का वर्णन ।

    भावार्थ

    (अवंशे) बांस या स्तम्भ के बिना ही जो अवलम्ब रहित आकाश में ( वृहन्तम् द्याम् ) बड़े भारी नक्षत्र आदि से भरे, ऊपर के महान् आकाश को ( अस्तभायत् ) ऐसे स्थिर कर रहा है जैसे स्तम्भ के आश्रय पर तम्बू तान दिया जाता है। इसी प्रकार बिना आश्रय के ही ( रोदसी ) सूर्य पृथिवी दोनों लोक, ( अन्तरिक्षं ) अन्तरिक्ष, (पृथिवीं) और पृथिवी को भी ( धारयत् ) धारण कर रहा है। और पृथिवी को ( पप्रथत् च ) विस्तृत बनाता है । ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् परमेश्वर यह (ताः) सब ( सोमस्य मदे ) जगत् के सञ्चालक बल के ( मदे ) अति हर्ष, या अधिक होने के कारण ही ( चकार ) करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १ भुरिक् पङ्क्तिः । ७ स्वराट् पङ्क्तिः । २, ४, ५, ६, १, १० त्रिष्टुप् । ३ निचृत् त्रिष्टुप् । ८ विराट् त्रिष्टुप् । पञ्च दशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    एखादा नास्तिक म्हणेल की हे गोल परस्पर आकर्षणाने स्थिर आहेत, त्यांना धारण करणारा कोणी नाही. विद्वानाने त्याचे समाधान असे करावे, की जर सूर्य इत्यादी गोलांच्या आकर्षणानेच सर्व गोल स्थित असतील तर सृष्टी प्रलयाच्या वेळी गोलांच्या आकर्षणाशिवाय आकर्षण होणे कसे शक्य आहे? यामुळे सर्वव्यापक परमेश्वराच्या आकर्षणशक्तीनेच सूर्य इत्यादी गोल आपले रूप व आपल्या क्रिया धारण करतात. ईश्वराच्या वरील कर्मांना पाहून धन्यवाद मानून त्याची प्रशंसा करावी. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord of existence, sustains the mighty heaven of light in space without a supporting column. He fills the heaven and earth and the skies of the middle regions with light and fertility for life and holds the earth in orbit. And thus the lord manifests his power and glory in the expansive universe across the spaces. In the ecstasy and Ananda of the soma of creation, the lord performs all these actions for life and humanity.

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