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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 2/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - अग्निः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    तमु॒क्षमा॑णं॒ रज॑सि॒ स्व आ दमे॑ च॒न्द्रमि॑व सु॒रुचं॑ ह्वा॒र आ द॑धुः। पृश्न्याः॑ पत॒रं चि॒तय॑न्तम॒क्षभिः॑ पा॒थो न पा॒युं जन॑सी उ॒भे अनु॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । उ॒क्षमा॑णम् । रज॑सि । स्वे । आ । दमे॑ । च॒न्द्रम्ऽइ॑व । सु॒ऽरुच॑म् । ह्वा॒रे । आ । द॒धुः॒ । पृश्न्याः॑ । प॒त॒रम् । चि॒तय॑न्तम् । अ॒क्षऽभिः॑ । पा॒थः । न । पा॒युम् । जन॑सी॒ इति॑ । उ॒भे इति॑ । अनु॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तमुक्षमाणं रजसि स्व आ दमे चन्द्रमिव सुरुचं ह्वार आ दधुः। पृश्न्याः पतरं चितयन्तमक्षभिः पाथो न पायुं जनसी उभे अनु॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम्। उक्षमाणम्। रजसि। स्वे। आ। दमे। चन्द्रम्ऽइव। सुऽरुचम्। ह्वारे। आ। दधुः। पृश्न्याः। पतरम्। चितयन्तम्। अक्षऽभिः। पाथः। न। पायुम्। जनसी इति। उभे इति। अनु॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    ये विद्वांसो जनसी उभे पाथः पायुन्न वर्त्तमानं रजस्युक्षमाणं स्वे दमे चन्द्रमिव सुरुचं पृश्न्या ह्वारे पतरं चितयन्तं तमग्निमक्षभिरन्वादधुस्ते पदार्थविदो जायन्ते ॥४॥

    पदार्थः

    (तम्) (उक्षमाणम्) सिञ्चन्तम् (रजसि) ऐश्वर्ये (स्वे) स्वकीये (आ) समन्तात् (दमे) गृहे (चन्द्रमिव) हिरण्यमिव। चन्द्रमिति हिरण्यना०। निघं० १। २॥ (सुरुचम्) सुष्ठु प्रकाशमानम् (ह्वारे) ह्वरन्ति कुटिलां गतिं गच्छन्ति पदार्थां यस्मिँस्तस्मिन् (आ) (दधुः) दधति (पृश्न्याः) अन्तरिक्षस्य मध्ये (पतरम्) पतन्तम् (चितयन्तम्) (अक्षभिः) इन्द्रियैः (पाथः) उदकम् (न) इव (पायुम्) यः पिबति तम् (जनसी) जनयित्र्यौ द्यावापृथिव्यौ (उभे) (अनु) ॥४॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथोदकं पिपासितं तर्पयति तथा कार्येषु संप्रयोजितोऽग्निरैश्वर्येण सह जनान् योजयति ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    जो विद्वान जन (जनसी) सब पदार्थों को उत्पन्न करनेवाली द्यावापृथिवी अर्थात् सूर्य पृथिवी के सम्बन्ध से मानुषी सृष्टि के अन्नादि पदार्थ उत्पन्न होते हैं (उभे) दोनों वा (पाथः) जल (पायुम्) उसके पीनेवाले को (न) वैसे वर्त्तमान तथा (रजसि) ऐश्वर्य के निमित्त (उक्षमाणम्) सींचा हुआ (स्वे) अपने (दमे) कला घर में (चन्द्रमिव) सुवर्ण के समान (आसुरुचम्) अच्छे प्रकार प्रकाशमान (पृश्न्याः) वा अन्तरिक्ष के बीच (ह्वारे) जिस व्यवहार में कुटिल गति को पदार्थ प्राप्त होते हैं, उसमें (पतरम्) गमन को प्राप्त होता (चितयन्तम्) और पदार्थों को इकठ्ठा कराता (तम्) उस अग्नि को (अक्षभिः) इन्द्रियों के साथ (अन्वादधुः) अनुकूलता से स्थापन करते हैं, वे पदार्थवेत्ता होते हैं ॥४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे जल पियासे को तृप्त करता है, वैसे कार्यों में संप्रयुक्त किया हुआ अग्नि ऐश्वर्य के साथ जनों को युक्त करता है ॥४॥

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    विषय

    सर्वत्र व्याप्त आनन्दमय प्रभु

    पदार्थ

    १. (तम्) = उस प्रभु को, जो कि (रजसि) = हृदयान्तरिक्ष में (आ उक्षमाणम्) = आनन्द रस का (सर्वतः) = सेचन करनेवाले हैं, तथा (चन्द्रम् इव सुरुचम्) = चन्द्रमा के समान उत्कृष्ट दीप्तिवाले हैं, उन प्रभु को (स्वे दमे) = अपने ही शरीरगृह में (ह्वारे) = [उपहारे= The solitary place] वासनाशून्य एकान्त हृदयदेश में (आदधुः) = स्थापित करते हैं । २. उस प्रभु को स्थापित करते हैं, जो कि (पृश्न्याः पतरम्) = सम्पूर्ण अन्तरिक्षलोक में व्याप्त होनेवाले हैं। (अक्षभिः) = अपनी अनन्त आखों से [विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतस्पात्] (चितयन्तम्) = सबके सब कर्मों को जान रहे हैं। (पाथः न पायुम्) = उदक की तरह जो हम सबके रक्षक हैं-पानी जैसे भेषज है-सब रोगों का निवारण करनेवाला 'वारि ' है, उसी प्रकार प्रभु हम सबके रक्षक हैं। (उभे जनसी) = दोनों जन्म देनेवाले पिता-माता के रूप में द्यावापृथिवी को (अनु) = व्याप्त किये हुए हैं। इस प्रभु को हृदय गुहा में धारण करते हैं । वस्तुतः इस प्रकार प्रभु को हृदय में धारण करने पर ही अद्भुत आनन्दरस का अनुभव होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु को अपने शरीर में वासनाशून्य विजन हृदयदेश में हम धारण करें। यह धारण ही हमें आनन्द की अनुभूति का देनेवाला होगा।

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    विषय

    राजा के कर्त्तव्य पक्षान्तर में परमेश्वर का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( तम् उक्षमाणं, सुरुचम् ह्वारे आदधुः ) जिस प्रकार बड़े भारों को दूर तक ढो ले जाने में समर्थ, अतिकान्तिमान् अग्नि को ‘ह्वार’ अर्थात् गुप्त स्थान में रखते हैं और ( पृश्न्याः पतरं अक्षभिः चितयन्तम् पायुं ) पृथ्वी पर वेग से चलने वाले अग्नि या तप्त ( गैस ) आदि पदार्थ को ( अक्षभिः ) नाना धुरों से गति देने वाले, सुरक्षित अग्नि को विद्वान् लोग यन्त्र में स्थापित करते हैं उसी प्रकार (तम्) उस (उक्षमाणं) राष्ट्र के कार्यभार को उठाने में समर्थ और (उक्षमाणं) मेघ के समान समृद्धि की वर्षाओं से सबको सींचकर पुष्ट करने हारे पुरुष को (स्वे दमे) अपने गृह में आहवनीय, या गार्हपत्य या गृहपति के समान ( रजसि ) प्रजाजनों के हितार्थ या सबके रंजन करने वाले (स्वे दमे) अपने निज शासन कार्य में (आदधुः) विद्वान् लोग स्थापित करते हैं। उसी प्रकार ( सुरुचं ) उत्तम कान्तिमान् उत्तम रुचि वाले, सुस्वभाव, उत्तम प्रकृति के ( चन्द्रम् इव ) चन्द्र या सुवर्ण के समान सबके आल्हादक पुरुष को ( ह्वारे ) कुटिल कार्यों के दमन करने के लिये (आदधुः) स्थापित करें । (पाथः न पायु) जलपान का इच्छुक पुरुष जिस प्रकार जल को पान कर लेता है उसी प्रकार ( पृश्न्याः पतरं ) पृथ्वी को ऐश्वर्य युक्त करने वाले और ( अक्षभिः ) इन्द्रियों से ज्ञान करने वाले आत्मा के समान ( चितयन्तम् ) अध्यक्षों द्वारा प्रजाजन को ज्ञानवान्, सदा सावधान करने वाले ( पाथः न पायुं ) जलके समान ऐश्वर्य के भोक्ता, एवं जल के रक्षक बन्ध या सेतु के समान ( पाथः पायुम् ) राष्ट्रपालक बल को पालन करने वाले ( तम् ) उस नायक पुरुष को ( उभे जनसी अनु ) दोनों राजा और प्रजा वर्ग के जनों के अनुकूल अभिमत करके ( आदधुः ) विद्वान् लोग स्थापित करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, २, ७, १२ विराट् जगती । ४ जगती । ५, ६, ९, १३ निचृज्जती ३, ८, १० ११ भुरिक् त्रिष्टुप् ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे जल तृषार्थांना तृप्त करते तसे कार्यात योग्य प्रकारे वापर केलेला अग्नी लोकांना ऐश्वर्ययुक्त करतो. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    That energy of Agni, generous, creative and abundant, falling from space profusely in particles in waves of motion, concentrating in both heaven and earth through the skies, the scholars with their organs of perception, volition and intelligence collect like food for the journey of progress and store it, dear and lovely as gold, in the power homes of their own making and use it in circular and wavy motion for the production of power and vitality in simulation of both creative earth and heaven.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    More about the scholars of science and technology.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The learned persons know secret of sun and earth and of the resultant mundane creations like the food grains etc. For the prosperity of people, they provide water for drinking and irrigation. Suitably they link and delink various substances in the shining firmament along with disturbing and hurdling hurdling elements. With proper adjustment, they know well about the substances.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The water quenches the thirst and irrigates the fields. Likewise, a scholar makes people prosperous with proper adjustments.

    Foot Notes

    (चन्द्रमिव ) हिरण्यमिव । चन्द्रमिति हिरण्यनाम | ( N.G. 1.2) (ह्वारे) ह्वरन्ति कुटिलां गति गच्छन्ति पदार्था यस्मिँस्तस्मिन् – Wherein the substances move zigzag. (जनसी) जनयित्यौ द्यावापृथिव्यौ । = Sun and earth.

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