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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 35/ मन्त्र 8
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - अपान्नपात् छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    यो अ॒प्स्वा शुचि॑ना॒ दैव्ये॑न ऋ॒तावाज॑स्र उर्वि॒या वि॒भाति॑। व॒या इद॒न्या भुव॑नान्यस्य॒ प्र जा॑यन्ते वी॒रुध॑श्च प्र॒जाभिः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । अ॒प्ऽसु । आ । शुचि॑ना । दैव्ये॑न । ऋ॒तऽवा॑ । अज॑स्रः । उ॒र्वि॒या । वि॒ऽभाति॑ । व॒याः । इत् । अ॒न्या । भुव॑नानि । अ॒स्य॒ । प्र । जा॒य॒न्ते॒ । वी॒रुधः॑ । च॒ । प्र॒ऽजाभिः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो अप्स्वा शुचिना दैव्येन ऋतावाजस्र उर्विया विभाति। वया इदन्या भुवनान्यस्य प्र जायन्ते वीरुधश्च प्रजाभिः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः। अप्ऽसु। आ। शुचिना। दैव्येन। ऋतऽवा। अजस्रः। उर्विया। विऽभाति। वयाः। इत्। अन्या। भुवनानि। अस्य। प्र। जायन्ते। वीरुधः। च। प्रऽजाभिः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 35; मन्त्र » 8
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 23; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वद्विषयमाह।

    अन्वयः

    य तावाऽजस्रो दैव्येन शुचिनोर्विया विभाति सोऽन्या भुवनानि वयाः प्रजाभिरिदिवाप्सु प्रजायन्तेऽस्य संसारस्य मध्ये या वीरुधश्च आजायन्ते ता विजानीयात् ॥८॥

    पदार्थः

    (यः) (अप्सु) व्यापकेषु पदार्थेषु (आ) समन्तात् (शुचिना) पवित्रेण (दैव्येन) देवैः कृतेन (तावा) य तं वनति संभजति सः (अजस्रः) निरन्तरम् (उर्विया) बहुरूपः (विभाति) प्रकाशते (वयाः) शाखाः (इत्) एव (अन्या) अन्यानि (भुवनानि) (अस्य) (प्र) (जायन्ते) (वीरुधः) ओषधयः (च) (प्रजाभिः) ॥८॥

    भावार्थः

    ये पवित्रबुद्धयो दिव्यकर्म्माणो निरन्तरं सृष्टिक्रमं जानन्ति ते सदानन्दिता जायन्ते ॥८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वानों के विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    (यः) जो (तावा) सत्य का अच्छे प्रकार सेवन करता हुआ (अजस्रः) निरन्तर (दैव्येन) विद्वानों से किये हुए (शुचिना) पवित्र व्यवहार से (उर्विया) बहुरूप (विभाति) प्रकाशित होता है वह (अन्या) और (भुवनानि) लोक-लोकान्तरों को (वयाः) शाखाओं को तथा (प्रजाभिः) प्रजा के समान (इत्) ही (अप्सु) व्यापक जल रूपी पदार्थों में जो (प्रजायन्ते) उत्पन्न होते हैं उन्हें और (अस्य) इस संसार के बीच जो (वीरुधश्च) ओषधियाँ (आ) उत्पन्न होते हैं उन सबको जानें ॥८॥

    भावार्थ

    जो पवित्र बुद्धि दिव्य कर्म करनेवाले निरन्तर सृष्टिक्रम को जानते हैं, वे सदा आनन्दित होते हैं ॥८॥

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    विषय

    'दिव्य प्रकाश', 'धन' तथा 'उत्तम सन्तान'

    पदार्थ

    १. (यः) = जो (अप्सु) = रेतः कणों में रहता है-इनका रक्षण करता है, वह (ऋतावा) = ॠत का रक्षण करनेवाला (अजस्त्र:) = [न जस्रं यस्य, जस्स्रं = Exhaustion, fatigue] न थकनेवाला [अव्यथ्य ३.५.५] तथा (शुचिना) = पवित्र (दैव्येन) = दिव्य प्रकाश से (उर्विया विभाति) = खूब ही चमकता है। २. (अन्या) - इस दिव्य प्रकाश से भिन्न (भुवनानि) = ऐश्वर्य तो [भुवनं=becoming prosperous] (अस्य) = इसके (वयाः इत्) = शाखाएँ ही होती हैं। इसकी मुख्य सम्पत्ति तो वह दिव्य प्रकाश होता है–सांसारिक ऐश्वर्य भी गौणरूप से इसके समीप होते ही हैं। (च) = और ये (वीरुधः) = विशिष्ट रोहण- प्रादुर्भाववाले ये व्यक्ति (प्रजाभिः) = उत्तम सन्तानों से (प्रजायन्ते) = प्रजावाले होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - रेतः कणों का रक्षक 'दिव्य प्रकाश प्राप्त करता है। सांसारिक सम्पत्ति व उत्तम सन्तान भी प्राप्त करता है। इसका मौलिक धन दिव्यप्रकाश होता है और बाह्य धन व उत्तम सन्तान इसके आनुषंगिक धन होते हैं।

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    विषय

    स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (अप्सु ऋतावा) अन्तरिक्ष में जिस प्रकार जलवान् मेघ या विद्युत् ( उर्विया विभाति ) बहुत प्रकाश से चमकता है, ( अन्या भुवनानि अस्य वया इत् ) सब उत्पन्न होने वाले प्राणी, अन्न, वनस्पति आदि इसकी ही शाखाएं हैं, वे ( प्रजाभिः वीरुधः च जायन्ते ) सन्तति प्रसन्ततियों द्वारा लताओं के समान ही विविध रूपों में बीजों द्वारा उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार ( यः ) जो गृहस्थ गृहपति पुरुष ( अप्सु ) गृहस्थ धर्म से प्राप्त हुई दाराओं में (ऋतावा) सत्य ज्ञान, यज्ञ और ऐश्वर्य और वीर्य धर्म से युक्त ( अजस्रः ) अविनष्ट होकर ( दैव्येन ) विद्वानों से उपदेश किये या कामना करने योग्य ( शुचिना ) पवित्र कर्त्तव्य और तेजादि से ( उर्विया ) खूब ( आ विभाति ) अच्छी प्रकार प्रकाशित होता है ( अस्य ) उसके ही ( अन्या भुवना ) अन्य उत्पन्न होने वाले सन्तान ( वयाः इत् ) शाखाओं के समान उत्पन्न होते हैं और ( प्रजाभिः ) और उत्तम सन्ततियों द्वारा ( वीरुधः च ) लताओं के समान विविध रूप बीजों को जन्म देने वाली या गृहस्थ धर्म में विशेष रूप से रुद्ध, सहधर्मिणियें (प्रजायन्ते) उत्तम २ सन्तानों को उत्पन्न करती हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः॥ अपान्नपाद्देवता॥ छन्दः– १, ४, ६, ७, ९, १०, १२, १३, १५ निचृत् त्रिष्टुप्। ११ विराट् त्रिष्टुप्। १४ त्रिष्टुप्। २, ३, ८ भुरिक् पङ्क्तिः। स्वराट् पङ्क्तिः॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे पवित्र बुद्धी व दिव्यकर्म करणारे असतात तसेच सतत सृष्टिक्रम जाणतात ते सदैव आनंदित असतात. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Abiding in the holy waters of nature’s liquid bounty, dedicated to nature’s law and blest with her consecrating power, vast and constant with the earth, he shines with immaculate purity of character and the majesty of light divine. The other regions of the world are like the branches of his family tree where, too, further, grow the trees with their own farther branches.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of the enlightened persons.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The truthful and learned person incessantly shines with his divine and pure radiance in the various forms Pranas. He should know how the herbs are grown in water and the plants with their branches as well as different worlds.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those enlightened persons always enjoy bliss who are endowed with pure intellects, and are engaged day and night in doing noble deeds. They who know the order of creation of the universe.

    Foot Notes

    (ऋतावा ) य ऋतं वनति संभजति सः । ऋतुमिति सत्यमाम (N.G. 3-10)= Truthful.(उविया) बहुरूप: । उरु इतिबहुनाम = (N.G. 3 ) = Assuming various forms or functions.

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