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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 22 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 22/ मन्त्र 2
    ऋषिः - गाथी कौशिकः देवता - पुरीष्या अग्नयः छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अग्ने॒ यत्ते॑ दि॒वि वर्चः॑ पृथि॒व्यां यदोष॑धीष्व॒प्स्वा य॑जत्र। येना॒न्तरि॑क्षमु॒र्वा॑त॒तन्थ॑ त्वे॒षः स भा॒नुर॑र्ण॒वो नृ॒चक्षाः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑ । यत् । ते॒ । दि॒वि । वर्चः॑ । पृ॒थि॒व्याम् । यत् । ओष॑धीषु । अ॒प्ऽसु । आ । य॒ज॒त्र॒ । येन॑ । अ॒न्तरि॑क्षम् । उ॒रु । आ॒ऽत॒तन्थ॑ । त्वे॒षः । सः । भा॒नुः । अ॒र्ण॒वः । नृ॒ऽचक्षाः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने यत्ते दिवि वर्चः पृथिव्यां यदोषधीष्वप्स्वा यजत्र। येनान्तरिक्षमुर्वाततन्थ त्वेषः स भानुरर्णवो नृचक्षाः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने। यत्। ते। दिवि। वर्चः। पृथिव्याम्। यत्। ओषधीषु। अप्ऽसु। आ। यजत्र। येन। अन्तरिक्षम्। उरु। आऽततन्थ। त्वेषः। सः। भानुः। अर्णवः। नृऽचक्षाः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 22; मन्त्र » 2
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे यजत्राग्ने ! ते दिवि यद्वर्चो यत्पृथिव्यां यदोषधीषु यदप्स्वा वर्तते येनोर्वन्तरिक्षमाततन्थ स त्वं त्वेषो भानुरर्णव इव नृचक्षा भव ॥२॥

    पदार्थः

    (अग्ने) पावकवद्वर्त्तमान (यत्) (ते) तव (दिवि) प्रकाशे (वर्चः) दीप्तिः (पृथिव्याम्) (यत्) (ओषधीषु) सोमादिषु (अप्सु) जलेषु (आ) समन्तात् (यजत्र) सङ्गन्तः (येन) (अन्तरिक्षम्) (उरु) (आततन्थ) समन्तात्तनोति (त्वेषः) दीप्तिमान् (सः) (भानुः) दीप्तिमान् (अर्णवः) समुद्र इव (नृचक्षाः) नॄणां द्रष्टा ॥२॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या यद्विद्युदाख्यं तेजः सूर्य्ये वायौ भूमौ जलेऽन्यत्र चौषध्यादिषु वर्त्तते तद्विज्ञाय सुखानि विस्तारयत ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (यजत्र) प्रीति के पात्र (अग्ने) अग्नि के सदृश तेजस्वी ! (ते) आपके (दिवि) प्रकाश में (यत्) जो (वर्चः) तेज (यत्) जो (पृथिव्याम्) पृथिवी में (ओषधीषु) जो ओषधियों में और जो तेज (अप्सु) जलों में (आ) अच्छा वर्त्तमान है तथा (येन) जिस तेज से (अन्तरिक्षम्) पोलरूप (उरु) वक्षस्थल (आततन्थ) सब ओर से विस्तारकर्त्ता (सः) वह आप (त्वेषः) प्रकाशमान (भानुः) दीप्तियुक्त (अर्णवः) समुद्र के सदृश (नृचक्षाः) मनुष्यों के देखनेवाले होइये ॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो बिजुली नामक तेज सूर्य्य वायु भूमि और जल में तथा अन्य पदार्थों ओषधी आदि में वर्त्तमान, उसको जान के सुख का विस्तार करो ॥२॥

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    विषय

    तेजोमय प्रभु

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (यत्) = जो दिवि द्युलोक में सूर्यरूप से रहनेवाला (वर्च:) = तेज है, वह (ते) = आपका ही है । (पृथिव्याम्) = पृथिवी में अग्निरूप से (यत्) = जो तेज है, वह भी आपका ही है । हे (यजत्र) = पूज्य प्रभो ! (ओषधीषु) = ओषधियों में सोमरूप से जो तेज है और (अप्सु) = जलों में 'और्व' नामक जो तेज (आ) = समन्तात् विद्यमान है, वह सब आपका ही है। [२] (येन) = जिस वायुरूप तेज से (उरु अन्तरिक्षम्) = इस विशाल अन्तरिक्ष को (आततन्थ) = आप विस्तृत करते हो (सः) = वे आप (त्वेष:) = दीप्ति ही दीप्ति हो, (भानुः) = सूर्य के समान देदीप्यमान आप हो । (अर्णवः) = आप ज्ञान के समुद्र हो । (नृचक्षा:) = सब मनुष्यों का ध्यान करनेवाले हो । प्रभु अपने तेज से व ज्ञान से सब प्राणियों का पालन करते हैं । वस्तुतः तेज व ज्ञान देकर ही प्रभु पालन करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- द्युलोक में, पृथिवीलोक में, अन्तरिक्ष में, ओषधियों व जलों में सर्वत्र प्रभु के ही के पुञ्ज हैं। तेज व ज्ञान द्वारा वे सब मनुष्यों तेज का अंश दीप्त हो रहा है। प्रभु तेज व ज्ञान का रक्षण करते हैं ।

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    विषय

    पक्षान्तर में अग्नि तत्व का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) ज्ञानवन् ! अग्नि के समान प्रकाशक ! (ते यद् वर्चः) तेरा जो तेज (दिवि) सबके कामना करने योग्य ज्ञान-प्रकाश में और (पृथिव्याम्) अति विस्तृत वेद वाणी में और (यत्) जो तेज (ओषधीषु) देह में ताप को धारण करने वाले (अप्सु) प्राणों में है। हे (यजत्र) शक्ति और ज्ञान के देने हारे ! (येन) जिस तेज से (उरु) तू बहुत बड़े (अन्तरिक्षं) अन्तःकरण में विद्यमान ज्ञान को (आ ततन्थ) विस्तारित करता है (सः) वह तू (मानुषः) प्रकाशमान सूर्य के समान (त्वेषः) तीक्ष्ण, तेजस्वी (अर्णवः) समुद्र के समान गम्भीर (नृचक्षाः) मनुष्यों के बीच द्रष्टा और उपदेष्टा है। (२) अग्निपक्ष में—अग्नि तत्व का ही वह तेज है पृथिवी में अग्नि रूप से, ओषधियों में रस या काष्ठरूप से, जलों में और्वा-नल या मेघों में विद्युत् रूप से है जिससे विशाल अन्तरिक्ष पूर्ण हो जाता है वह सूर्य, कान्तिमान्, जलमय, मेघवान्, सब मनुष्यों का द्रष्टा, दिखाने वाला, चक्षु का जनक भी है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गाथी ऋषिः॥ पुरीष्या अग्नयो देवता॥ छन्दः– १ त्रिष्टुप्। २, ३ भुरिक् पंक्तिः। ५ निचृत् पंक्तिः। ४ विराडनुष्टुप्॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    येथे वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. विद्युत नावाचे तेज सूर्य, वायू, भूमी, जल व औषधीत विद्यमान असते. ते जाणून सुख वाढवा. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, lord of light and power, loving, emanating and sharing the life of everything in existence, your splendour that shines in the light of heaven, breathes on the earth, reflects in the greenery of the herbs, and rolls in the waters of space and oceans, and by which the skies and spaces grow far and farther, that splendour and glory is the blazing sun, the deep ocean and the light of the eye for humanity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    More attributes of Agni are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person shining like the fire ! O unifier ! the splendor that is in your light (of knowledge ) , the splendor that is on the earth i.e., in the herbs or plants, and in the water, it has extended the vast firmament. You should be like the resplendent and refulgent, like the sun and deep like the ocean and be observer of men in their true perspective.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! you should Know the splendor in the form of electricity, that is found in the sun, air, earth, waters, herbs, plants and other things in order to promote more happiness.

    Foot Notes

    (अर्णवः) समुद्र इव । (अर्णवः) अर्णः इति उदकनाम (N.G, 1, 12) तद्द्वान् समुद्रः । Like the ocean.( त्वेष:) दीप्तिमान् |= Resplendent. (त्वेषः) त्विष दीप्तौ। = To shine. (दिवि ) प्रकाशे। = In the light.

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