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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 3/ मन्त्र 6
    ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः देवता - वैश्वानरोऽग्निः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    अ॒ग्निर्दे॒वेभि॒र्मनु॑षश्च ज॒न्तुभि॑स्तन्वा॒नो य॒ज्ञं पु॑रु॒पेश॑सं धि॒या। र॒थीर॒न्तरी॑यते॒ साध॑दिष्टिभिर्जी॒रो दमू॑ना अभिशस्ति॒चात॑नः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निः । दे॒वेभिः॑ । मनु॑षः । च॒ । ज॒न्तुऽभिः॑ । त॒न्वा॒नः । य॒ज्ञम् । पु॒रु॒ऽपेश॑सम् । धि॒या । र॒थीः । अ॒न्तः । ई॒य॒ते॒ । साध॑दिष्टिऽभिः । जी॒रः । दमू॑नाः । अ॒भि॒श॒स्ति॒ऽचात॑नः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निर्देवेभिर्मनुषश्च जन्तुभिस्तन्वानो यज्ञं पुरुपेशसं धिया। रथीरन्तरीयते साधदिष्टिभिर्जीरो दमूना अभिशस्तिचातनः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निः। देवेभिः। मनुषः। च। जन्तुऽभिः। तन्वानः। यज्ञम्। पुरुऽपेशसम्। धिया। रथीः। अन्तः। ईयते। साधदिष्टिऽभिः। जीरः। दमूनाः। अभिशस्तिऽचातनः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 6
    अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरग्निविद्यामाह।

    अन्वयः

    हे मनुष्या योऽभिशस्तिचातनो दमूनाः साधदिष्टिभिः सह जीरो रथीर्जन्तुभिः सह मनुषस्तन्वानो देवेभिः सहाग्निरन्तरीयते धिया पुरुपेशसं यज्ञं साध्नोति तं विजानीत॥६॥

    पदार्थः

    (अग्निः) पावकः (देवेभिः) दिव्यैर्गुणैः (मनुषः) मनुष्यान् (च) अन्यान् भूतिमतः पदार्थान् (जन्तुभिः) मनुष्यैः। जन्तव इति मनुष्यना०। निघं०२। ३। (तन्वानः) विस्तृणानः (यज्ञम्) सङ्गतं संसारम् (पुरुपेशसम्) बहुरूपम् (धिया) कर्मणा (रथीः) बहवो रथा विद्यन्ते यस्य सः (अन्तः) मध्ये (ईयते) गच्छति (साधदिष्टिभिः) साधाः संसिद्धा दिष्टयश्च ताभिः (जीरः) वेगवान् (दमूनाः) दमनशीलः (अभिशस्तिचातनः) योऽभिशस्ति हिंसां चातयति सः ॥६॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्योऽग्निः सामान्यरूपेण सर्वान् पुष्णाति विशेषरूपेण हिनस्ति पृथिव्यादीनामन्तः प्राप्तोऽस्ति येन बहवो व्यवहाराः सिध्यन्ति सोऽग्निर्विज्ञातव्यः॥६॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    फिर अग्निविद्या के उपदेश को कहते हैं।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (अभिशस्तिचातनः) सब ओर से हिंसा की याचना करता (दमूनाः) और दमनशील (साधदिष्टिभिः) अच्छे प्रकार सिद्ध किई हुई इच्छाओं के साथ (जीरः) वेगवान् (रथीः) जिसके बहुत रथ विद्यमान (जन्तुभिः) मनुष्यों के साथ (मनुषः) मनुष्यों को (तन्वानः) विस्तार अर्थात् उनको वृद्धि देता हुआ और (देवेभिः) दिव्यगुणों के साथ (अग्निः) अग्नि (ईयते) जाता है तथा (धिया) कर्म से (पुरुपेशसम्) बहुत रूपोंवाले (यज्ञम्) प्राप्त संसार को सिद्ध करता है, उसको जानो ॥६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को जो अग्नि सामान्य रूप से सब पदार्थों को पुष्ट करता वा विशेष रूप से उनको नष्ट करता वा पृथिव्यादिकों के भीतर व्याप्त है अर्थात् उनके प्रत्येक परमाणु के साथ है वा जिससे बहुत व्यवहार सिद्ध होते हैं, वह अग्नि विशेषता से जानने योग्य है ॥६॥

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    विषय

    'अभिशस्ति चातन' प्रभु

    पदार्थ

    [१] (अग्निः) = वह अग्रणी प्रभु (साधत् इष्टिभिः) = यज्ञों को सिद्ध करनेवाले (देवेभिः) = विद्वानों [देवताओं] द्वारा (च) = तथा (जन्तुभिः) = प्राणियों द्वारा-गौ इत्यादि पशुओं द्वारा (मनुषः) = विचारशील पुरुष के (पुरुपेशसम्) = नानारूपोंवाले (यज्ञम्) = यज्ञ को धिया बुद्धिपूर्वक (तन्वान:) = विस्तृत करता हुआ है। यज्ञों की पूर्णता में विद्वान् तो सहायक होते ही हैं। इन विद्वानों ने ही विधिपूर्वक यज्ञों को करवाना होता है। गौ इत्यादि पशु भी यज्ञ के लिये घृत आदि पदार्थों को प्राप्त कराके सहायक होते हैं । अन्त में सब व्यवस्था प्रभु द्वारा ही होती है। [२] (रथी:) = वह सब यज्ञों का प्रणेता प्रभु (अन्तः ईयते) = हम सब के हृदयों के अन्दर ही गति करता है। (जीरः) = वह प्रभु क्षिप्रकारी हैं। (दमूना:) = दान के मनवाले हैं, सदा सब आवश्यक पदार्थों को देनेवाले हैं। (अभिशस्तिचातनः) = यज्ञ में विघ्न करनेवाले राक्षसीवृत्ति के व्यक्तियों का नाश करनेवाले हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु ही यज्ञ के सब साधनों को जुटाते हैं और आनेवाले विघ्नों का निराकरण करते हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो अग्नी सामान्यरूपाने सर्व पदार्थांना पुष्ट करतो किंवा विशेष रूपाने नष्ट करतो व पृथ्वी इत्यादीमध्ये व्याप्त आहे, ज्याच्यामुळे पुष्कळ व्यवहार सिद्ध होतात, तो अग्नी माणसांनी विशेषत्वाने जाणावा. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni goes on and ever in the world on the chariot of time conducting and expanding the yajna of existence by the powers of nature and pious human beings with their karma and intelligence executing its auspicious commands. It is tempestuous, self-controlled and all controlling, driving off opposition, calumny and negative criticism.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    More attributes of the Agni (fire).

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O man! you should know the nature and attributes of that Agni (fire) which destroys the germs of diseases, subduer, and swiftly moves along with the fulfilment of noble desires. Harnessed in many kinds of vehicles, and extending the human welfare with the co-operation of others, it passes along with them between heaven and earth. He with his action accomplishes multi formed Yajna.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should know the nature of that Agni (fire) which generally gives nourishment to all. It also burns and particularly destroys the germs of diseases, pervades the earth and its objects and accomplishes many purposes.

    Foot Notes

    (अन्तुभिः ) मनुष्यैः। जन्तव इति मनुष्यनाम (N.G. 2, 3) = By the men. (यज्ञम् ) सङ्गतं संसारम् = Universe. (जीर:) वेगवान् | = Swift moving. (अभिशस्तिचातनः ) योऽभिशस्ति हिंसां चातयति सः। =The destroyer of the diseases that harm a person.

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