ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 51/ मन्त्र 4
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
नृ॒णामु॑ त्वा॒ नृत॑मं गी॒र्भिरु॒क्थैर॒भि प्र वी॒रम॑र्चता स॒बाधः॑। सं सह॑से पुरुमा॒यो जि॑हीते॒ नमो॑ अस्य प्र॒दिव॒ एक॑ ईशे॥
स्वर सहित पद पाठनृ॒णाम् । ऊँ॒ इति॑ । त्वा॒ । नृऽत॑मम् । गीः॒ऽभिः । उ॒क्थैः । अ॒भि । प्र । वी॒रम् । अ॒र्च॒त॒ । स॒ऽबाधः॑ । सम् । सह॑से । पु॒रु॒ऽमा॒यः । जि॒ही॒ते॒ । नमः॑ । अ॒स्य॒ । प्र॒ऽदिवः॑ । एकः॑ । ई॒शे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नृणामु त्वा नृतमं गीर्भिरुक्थैरभि प्र वीरमर्चता सबाधः। सं सहसे पुरुमायो जिहीते नमो अस्य प्रदिव एक ईशे॥
स्वर रहित पद पाठनृणाम्। ऊँ इति। त्वा। नृऽतमम्। गीःऽभिः। उक्थैः। अभि। प्र। वीरम्। अर्चत। सऽबाधः। सम्। सहसे। पुरुऽमायः। जिहीते। नमः। अस्य। प्रऽदिवः। एकः। ईशे॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 51; मन्त्र » 4
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
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अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ प्रजाप्रशंसाविषयमाह।
अन्वयः
हे विद्वांसो यूयं यः सबाधः पुरुमाय एकः सेनेशोऽस्य प्रदिव ईशे सहसे नमः संजिहीते तं वीरं प्रार्चत। हे राजन् ये गीर्भिरुक्थैर्नृणां नृतमं त्वा सत्कुर्युस्तानु त्वमभ्यर्च ॥४॥
पदार्थः
(नृणाम्) नायकानां मनुष्याणाम् (उ) (त्वा) त्वाम् (नृतमम्) अतिशयेन नायकम् (गीर्भिः) वाग्भिः (उक्थैः) प्रशंसावचनैः (अभि) (प्र) (वीरम्) व्याप्तराजविद्याबलम् (अर्चत) सत्कुरुत। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (सबाधः) बाधेन सह वर्त्तमानः (सम्) (सहसे) बलाय (पुरुमायः) यः पुरून् बहून् मिनोति (जिहीते) प्राप्नोति (नमः) अन्नं संस्कारं वा (अस्य) (प्रदिवः) प्रकृष्टप्रकाशस्य (एकः) असहायः (ईशे) ईष्टे। आत्मनेपदेष्विति तलोपः ॥४॥
भावार्थः
विद्वद्भिस्तस्यैव प्रशंसा कार्या यः प्रशंसाऽर्हाणि कर्माणि कुर्यात् ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
अब प्रजा के प्रशंसा के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे विद्वान् जनो ! आप लोग जो (सबाधः) बोध के सहित वर्त्तमान (पुरुमायः) बहुत कार्यों का कर्त्ता (एकः) सहायरहित सेनाधिपति पुरुष (अस्य) इस (प्रदिवः) उत्तम प्रकाश का (ईशे) स्वामी है (सहसे) बल के लिये (नमः) अन्न वा सत्कार को (सम्, जिहीते) प्राप्त होता है उस (वीरम्) राजविद्या और बल से व्याप्त पुरुष का (प्र, अर्चत्) सत्कार करिये। और हे राजन् ! जो (गीर्भिः) वाणियों और (उक्थैः) प्रशंसा के वचनों से (नृणाम्) अग्रणी मनुष्यों के (नृतमम्) अत्यन्त नायक (त्वा) आपका सत्कार करें उनका (उ) ही आप सत्कार करिये ॥४॥
भावार्थ
विद्वानों को चाहिये कि उस ही की प्रशंसा करें कि जो प्रशंसायोग्य कर्मों को करे ॥४॥
विषय
अर्चना व वैरि-विनाश
पदार्थ
[१] (उ) = और (नृणाम्) = नेतृत्व करनेवालों में मार्गदर्शकों में (नृतमम्) = सर्वाधिक मार्गदर्शक (प्रवीरम्) = प्रकृष्ट वीर (त्वा) = तुझे (गीर्भि:) = ज्ञानवाणियों से व (उक्थैः) = स्तुति-वचनों से (सबाध:) = [बाधनम् इति बाध् भावे विप्] शत्रु-बाधन के साथ रहनेवाले लोग (अभि अर्चता) = दिन के प्रारम्भ में व दिन की समाप्ति पर दोनों ओर पूजित करते हैं। (सः) = वह प्रभु का पूजन करनेवाला व्यक्ति (पुरुमायः) = अत्यन्त (प्रज्ञावान्) = बनकर (सहसे) = शत्रु-पराभव के लिए (जिहीते) = गति करता है। प्रभु पूजन से प्रज्ञा का प्रकर्ष प्राप्त होता है और उस प्रज्ञा-प्रकर्ष से रिपुओं का मर्षण होता है । [२] उस प्रभु के लिए ही (नमः) = हम नमन करते हैं। वह (प्रदिवः) = प्रकृष्ट ज्ञानवाला प्रभु (एक:) = अकेला ही (अस्य ईशे) = इस ब्रह्माण्ड का ईशन करता है। वह अकेला ही बिना किसी दूसरे की सहायता के, इस सारे ब्रह्माण्ड का शासन करता है ।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु का अर्चन करें। प्रभु का उपासक प्रज्ञा-प्रकर्ष को प्राप्त करके शत्रुओं का पराभव करता है।
विषय
उत्तम राजा के गुण।
भावार्थ
हे राजन् ! (नृणाम्) नायक वीर पुरुषों के बीच (नृतमं) सबसे श्रेष्ठ नायक व पुरुषोत्तम (त्वा) तुझ (वीरम्) वीर को (सबाधः) शत्रुओं और विघ्नों की बाधा करने वाले विद्वान् लोग भी (उक्थैः) उत्तम २ वचनों और (गीर्भिः) उत्तम वाणियों से (अभि प्र अर्चत) सब प्रकार स्तुति करें। वह राजा बलवान् नायकोत्तम (पुरुमायः) बहुतसी प्रज्ञाओं से सम्पन्न होकर (सहसे) अपने बल की वृद्धि के लिये (नमः संजिहीते) अन्न और शत्रु को नमाने के उत्तम साधन वज्र, खड्ग अस्त्रादि बल को (संजिहीते) अच्छी प्रकार प्राप्त करे। और वह (प्रदिवः) उत्तम प्रकाश से युक्त ज्ञान व उत्तम कामना से युक्त (अस्य) इस राष्ट्र का (एकः) एकमात्र सर्वोपरि (ईशे) स्वामी है। (२) परमेश्वर को विद्वान् वाणियों और वेद वचनों से स्तुति करें, वह बहुप्रज्ञायुक्त अपने बल से सबके नमस्कारों को प्राप्त होता और (प्रदिवः एकः ईशे) पुरातन अनादि प्रवाह से चले आये इस जगत् का एक अद्वितीय ईश्वर है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः–४,७-९ त्रिष्टुप्। ५, ६ निचृत्त्रिष्टुप। १-३ निचृज्जगती। १०,११ यवमध्या गायत्री। १२ विराडगायत्री॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
विद्वानांनी त्याचीच प्रशंसा करावी की जो प्रशंसायुक्त काम करतो. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, let all honour and adore you with holy words and songs of worship, you who are mighty brave and best of men and leaders.$Indra is irresistebly brave, strong against the violent, highly meritorious, and he goes forward for a test of victory. All alone he rules over the heavens and the enlightened children of the earth. Salutations to the sole lord ruler of his world of light and life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
About the praise of the people is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned man! honor that brave commander of the army who successfully puts a check on the army of wicked and destroys many evil doers. Being full of wisdom, he is the master light of knowledge and who gets obeisance and good meals for his quality of being strong. O King! you should also show respect to the men, who honor you with admirable words, and are the best among leaders.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The learned persons should admire only that man who does noble praiseworthy deeds.
Foot Notes
(जिहोते) प्राप्नोति । (जिहीते) ओहाङ-गतौ (जुहो) = Gets. Among the three meanings of the verb, third i.e. प्राप्ति has been taken here. (सहसे) बलाय। = For strength. (पुरुमाय:) यः पुरून् बहून् मिनोति यः । ( पुरुमायः ) पुरु इति बहुनाम = One who kills many. (N.G. 3, 1) मात्र-हिन्सायामु (ब्रह्मा)-Prof. Wilson's translation is not based on the Vedic lexicon So it means one is full of wisdom. is Griffith's translation of the word is more rational.
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