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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 51 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 51/ मन्त्र 5
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    पू॒र्वीर॑स्य नि॒ष्षिधो॒ मर्त्ये॑षु पु॒रू वसू॑नि पृथि॒वी बि॑भर्ति। इन्द्रा॑य॒ द्याव॒ ओष॑धीरु॒तापो॑ र॒यिं॑ र॑क्षन्ति जी॒रयो॒ वना॑नि॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पू॒र्वीः । अ॒स्य॒ । निः॒ऽसि॑धः॑ । मर्त्ये॑षु । पु॒रु । वसू॑नि । पृ॒थि॒वी । बि॒भ॒र्ति॒ । इन्द्रा॑य । द्यावः॑ । ओष॑धीः । उ॒त । आपः॑ । र॒यिम् । र॒क्ष॒न्ति॒ । जी॒रयः॑ । वना॑नि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पूर्वीरस्य निष्षिधो मर्त्येषु पुरू वसूनि पृथिवी बिभर्ति। इन्द्राय द्याव ओषधीरुतापो रयिं रक्षन्ति जीरयो वनानि॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पूर्वीः। अस्य। निःऽसिधः। मर्त्येषु। पुरु। वसूनि। पृथिवी। बिभर्ति। इन्द्राय। द्यावः। ओषधीः। उत। आपः। रयिम्। रक्षन्ति। जीरयः। वनानि॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 51; मन्त्र » 5
    अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे मनुष्यो ये जीरयोऽस्य मर्त्येषु पूर्वीर्निष्षिधो रक्षन्ति पुरू वसूनि पृथिवीव यो बिभर्त्ति द्याव इन्द्राय रयिं वनानि च उताप्याप ओषधी रक्षन्तीव राज्यं बिभर्त्ति स एव राजा भवितुमर्हति ॥५॥

    पदार्थः

    (पूर्वीः) सनातनीः (अस्य) राज्ञः (निष्षिधः) नितरां साधिकाः (मर्त्येषु) मनुष्येषु (पुरू) पुरूणि बहूनि (वसूनि) द्रव्याणि (पृथिवी) (बिभर्त्ति) (इन्द्राय) ऐश्वर्य्याय (द्यावः) सूर्यादिप्रकाशः (ओषधीः) सोमाद्याः (उत) अपि (आपः) प्राणा जलानि (रयिम्) श्रियम् (रक्षन्ति) (जीरयः) ये जीर्यन्ते ते मनुष्याः (वनानि) वनन्ति सम्भजन्ति सुखानि यैस्तानि ॥५॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मर्त्येषु धनानि विज्ञानं भैषज्यं धरन्ति त एव राजकर्मचारिणो भवितुमर्हन्ति ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (जीरयः) वृद्ध होनेवाले मनुष्य (अस्य) इस राजा के (मर्त्येषु) मनुष्यों में (पूर्वीः) अनादि काल से सिद्ध (निष्षिधः) अत्यन्त सिद्ध करनेवालियों की (रक्षन्ति) रक्षा करते हैं और (पुरू) बहुत (वसूनि) द्रव्यों को (पृथिवी) भूमि के सदृश जो पुरुष (बिभर्त्ति) धारण करता है (द्यावः) सूर्य्य आदि के प्रकाश (इन्द्राय) ऐश्वर्य्य के लिये (रयिम्) लक्ष्मी और (वनानि) सन्मुख हों सुख जिनसे उनको (उत) भी (आपः) प्राण वा जल जैसे (ओषधीः) सोमलता और ओषधीयों की रक्षा करते हैं वैसे राज्य का (बिभर्त्ति) पोषण करता है, वही राजा होने के योग्य हो ॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्यों में धन विज्ञान और ओषधि धारण करते, वे ही राजाओं के कर्मचारी होने के योग्य हैं ॥५॥

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    विषय

    प्रभु की निषेधाज्ञाएँ

    पदार्थ

    [१] (अस्य) = इस हृदयस्थ प्रभु की (निष्षिधः) = निषेधाज्ञाएँ किसी कर्म को न करने की प्रेरणाएँ (पूर्वीः) = हमारा पालन व पूरण करनेवाली हैं। हमें सब अशुभ कर्मों को करने के समय इस हृदयस्थ प्रभु की ओर से 'भय, शंका व लज्जा' उत्पन्न होती है और इस प्रकार हम अशुभ कर्म करने से रुक जाते हैं। [२] यह उस पिता प्रभु की ही कृपा है कि पृथिवी यह पृथिवी माता हमारे लिए (पुरु) = पालक व पूरक (वसूनि) = धनों को (बिभर्ति) = धारण करती है। (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिए (द्यावः) = ये प्रकाशमय लोक (ओषधी:) = ओषधियाँ (उत) = और (आप:) = जल (रयिम्) = धन को (रक्षन्ति) = रखते हैं- प्राप्त कराते हैं। इस जितेन्द्रिय पुरुष के लिए (जीरय:) = जीर्ण होनेवाले वृद्ध मनुष्य (वनानि) = [वन् संभक्तौ] उपासनाओं को रक्षित करते हैं, अर्थात् वृद्ध जन इन्हें उपासना के लिए प्रेरित करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम हृदयस्थ प्रभु की प्रेरणा को सुननेवाले बनें। प्रभु ने हमारे लिए इस पृथिवी में सब वसुओं को रखा है। ओषधियाँ व जल हमें उस रयि (धन) को प्राप्त कराते हैं, जो कि हमारी वृत्ति को प्रभुप्रवण बनाती है।

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    विषय

    राजा की अज्ञाओं का प्रवर्तन। और उसके ऐश्वर्य का विस्तार

    भावार्थ

    (अस्य) इस प्रसिद्ध राजा के (पूर्वीः) सनातन से चली आई वेदादि शास्त्रों से प्रतिपादित (निष्षिधः) निषेध आज्ञाएं, अनुशासन और कार्य को साधन करने वाली सेनाएं और चेष्टाएं (मर्त्येषु) मनुष्यों के बीच प्रवृत्त हों (पृथिवी) पृथिवी उसके ही लिये (वसूनि पुरु) बहुत से ऐश्वर्यों को (बिभर्त्ति) धारण करती है। और (इन्द्राय) उस ऐश्वर्यवान् के लिये ही (द्यावः) सब भूमियें, सब प्रकाशमान पदार्थ, (ओषधीः) ओषधियें (उत आपः) और नदियें समुद्र आदि (जीरयः) जीर्ण हो जाने वाले मनुष्य और (वनानि) वन, प्रान्त भी (पुरु वसूनि रक्षन्ति) बहुत से ऐश्वर्यों को रखते हैं। अथवा जिस प्रकार पृथिवी, सूर्य, ओषधियां, जल या प्राण गण, मनुष्य वनादि रक्षा करते और ऐश्वर्य रखते हैं उसी प्रकार वह राजा भी ऐश्वर्य धारण करे और सबकी रक्षा करे। (२) परमेश्वर की सनातन वेद-आज्ञाएं मनुष्यों में प्रचलित हैं। पृथिवी, सूर्य, ओषधि, जल, मनुष्य वनादि उसी के ऐश्वर्य को धारते हैं। उसकी ही शक्ति से वे सबको पालते, रक्षा करते हैं। इति पञ्चदशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः–४,७-९ त्रिष्टुप्। ५, ६ निचृत्त्रिष्टुप। १-३ निचृज्जगती। १०,११ यवमध्या गायत्री। १२ विराडगायत्री॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे धन, विज्ञान व औषधी धारण करतात, तेच राजाचे कर्मचारी होण्यायोग्य असतात. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Many and ancient are his blessings and defences among the people. Abundant wealth does the earth hold. The regions of light, the sun light, the greenery, the flowing waters and vapours, the veteran citizens, the forests, all these hold, preserve and protect many forms of wealth for Indra, ruler of the world.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties and functions of the rulers are emphasized.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men! he alone deserves to be a king. under whose supervision, well experienced men always preserve and protect the traditional activities, because they lead to accomplishments, like the earth upholds various kinds of wealth. The wealth and resources support the kingdom like the light of the Sun, Soma waters and Pranas (vital airs). and other plants: The forests preserve wealth of life for prosperity.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those alone are fit to be the officers of the State who uphold wealth, knowledge and health of the people, (who try to make the State advanced in all these aspects).

    Foot Notes

    (द्याव:) सुर्यादिप्रकाशः। =The light of the Sun and other luminaries. (आपः ) प्राणा: जलानि वा । आपो वै प्राणा: । (Stph, 4,8,2,2,) = Pranas (Vital airs and waters). (इन्द्राय) ऐश्वर्याय। = For prosperity.

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