ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 11/ मन्त्र 6
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
आ॒रे अ॒स्मदम॑तिमा॒रे अंह॑ आ॒रे विश्वां॑ दुर्म॒तिं यन्नि॒पासि॑। दो॒षा शि॒वः स॑हसः सूनो अग्ने॒ यं दे॒व आ चि॒त्सच॑से स्व॒स्ति ॥६॥
स्वर सहित पद पाठआ॒रे । अ॒स्मत् । अम॑तिम् । आ॒रे । अंहः॑ । आ॒रे । विश्वा॑म् । दुः॒ऽम॒तिम् । यत् । नि॒ऽपासि॑ । दो॒षा । शि॒वः । स॒ह॒सः॒ । सू॒नो॒ इति॑ । अ॒ग्ने॒ । यम् । दे॒वः । आ । चि॒त् । सच॑से । स्व॒स्ति ॥
स्वर रहित मन्त्र
आरे अस्मदमतिमारे अंह आरे विश्वां दुर्मतिं यन्निपासि। दोषा शिवः सहसः सूनो अग्ने यं देव आ चित्सचसे स्वस्ति ॥६॥
स्वर रहित पद पाठआरे। अस्मत्। अमतिम्। आरे। अंहः। आरे। विश्वाम्। दुःऽमतिम्। यत्। निऽपासि। दोषा। शिवः। सहसः। सूनो इति। अग्ने। यम्। देवः। आ। चित्। सचसे। स्वस्ति ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 11; मन्त्र » 6
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 6
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अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे सहसः सूनोऽग्ने ! यत्त्वं देव इवाऽस्मदारे अमतिमारे अंह आरे विश्वां दुर्मतिं निक्षिप्य यं निपासि तं शिवः सन् दोषा दिवसे चित्स्वस्ति आ सचसे तस्मादस्माभिः पूज्योऽसि ॥६॥
पदार्थः
(आरे) दूरे (अस्मत्) (अमतिम्) (आरे) (अंहः) पापात्मकं कर्म (आरे) (विश्वाम्) समग्राम् (दुर्म्मतिम्) दुष्टां प्रज्ञाम् (यत्) यतः (निपासि) नितरां रक्षसि (दोषा) रात्रौ (शिवः) मङ्गलकारी (सहसः) बलवतः (सूनो) अपत्य (अग्ने) परमविद्वन् (यम्) (देवः) जगदीश्वर इव (आ) (चित्) अपि (सचसे) सम्बध्नासि (स्वस्ति) सुखम् ॥६॥
भावार्थः
इदं वयं निश्चिनुमो येऽस्मान् दुष्टाचारादधर्मसङ्गाद् दुर्बुद्धेर्दूरेकुर्वन्ति त एवाऽहर्निशमस्माभिः सत्कर्त्तव्याः सन्तीति ॥६॥ अत्राग्निराजविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥६॥ इत्येकादशं सूक्तमेकादशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (सहसः) बलवान् के (सूनो) सन्तान और (अग्ने) अत्यन्त विद्वान् (यत्) जिससे आप (देवः) ईश्वर के सदृश (अस्मत्) हम लोगों से (आरे) दूर (अमतिम्) मूर्खपन को (आरे) दूर (अंहः) पापकर्म को और (आरे) दूर (विश्वाम्) समग्र (दुर्मतिम्) दुष्ट बुद्धि को निरन्तर अलग करा (यम्) जिसकी (निपासि) अत्यन्त रक्षा करते हो उसको (शिवः) मङ्गलकारी हुए (दोषा) रात्रि और दिन में (चित्) भी (स्वस्ति) सुख को (आ, सचसे) सम्बन्ध कराते हो, इससे हम लोगों से पूजा करने योग्य हो ॥६॥
भावार्थ
यह हम लोग निश्चय करते हैं कि जो लोग हम लोगों को अधर्मी और दुष्ट बुद्धिवाले पुरुष से दूर करते हैं, वे ही दिन-रात्रि हम लोगों से सत्कार करने योग्य हैं ॥६॥ इस सूक्त में अग्नि, राजा और विद्वान् के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥६॥ यह ग्यारहवाँ सूक्त और ग्यारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
'अमति व दुर्मति' का दूरीकरण
पदार्थ
[१] हे (सहसः सूनो) = बल के पुत्र, शक्ति के पुञ्ज (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (यंचित्) = जिसको भी (आसचसे) = आप प्राप्त होते हैं, उसके लिये आप (शिवः) = कल्याणकर होते हैं। (दोषा) = रात्रि में भी (देवः) = प्रकाश को प्राप्त करानेवाले होते हैं। (स्वस्ति) = वह पुरुष सदा उत्तम स्थिति में होता है । [२] हे प्रभो ! (यत्) = जब (निपासि) = आप हमारा निश्चय से रक्षण करते हैं तो (अस्मत्) = हमारे से (अमतिम्) = 'अशनाया वै पाया मति' अपनाया रूप पापमति को (आरे) = दूर करिये । हमारे से महाशन, कभी भी न तृप्त होनेवाले, काम को पृथक् करिये। उस धनादि विषयों की इच्छा को दूर करिये जो कि कभी तृप्त नहीं होती। (अंहः) = कुटिलता को (आरे) = हमारे से पृथक् करिये। और (विश्वां दुर्मतिम्) = सब अशुभ विचारों को (आरे) = दूर कीजिये । इस दुर्मति के दूर होने पर ही हमारे जीवन से सब अशुभ कर्म दूर होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रकाशमय प्रभु के प्राप्त होने से हमारी 'अमति, अंहस् व दुर्मति' दूर हो जाती है। यही कल्याण का मार्ग है। सम्पूर्ण सूक्त प्रभु उपासन से ज्ञान प्राप्ति तथा दुर्मति के विनाश का प्रतिपादन कर रहा है। अगले सूक्त का प्रारम्भ भी इन्हीं शब्दों से है कि प्रभु के उपासन से ज्ञान ज्योति प्राप्त होती है-
विषय
उत्तम बुद्धि दे ।
भावार्थ
हे (सहसः सूनो) बलवान्, सहनशील पुरुष के पुत्र, उत्तम पिता के पुत्र ! विद्वन् ! एवं हे (सहसः सूनो) शत्रु पराजयकारी बल के प्रेरक सञ्चालक सेनापते ! हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य तेजस्विन्! अग्रणी ! नायक हे (देव) सूर्य के समान प्रकाशक एवं ज्ञान धनादि के देने हारे ! (दोषा) रात्रियें अग्नि वा दीपक के तुल्य तेजस्वी होकर (दोषा) दोषों वा दुर्गुणों वा संकटों के बीच विद्यमान (यं चित्) जिसको भी तू (स्वस्ति) उसके कल्याण के लिये (आसचसे) प्राप्त होता है, स्नेह करता है तू उसके लिये (शिवः) कल्याणकारी मंगल वा शान्तिजनक होता है । इस लिये तू (अस्मत्) हम से भी (अमतिम्) मति रहित अज्ञानी अज्ञान वा भूख प्यास की पीड़ा जिससे प्रेरित होकर मनुष्य पापाचरण करता है । उसे (आरे) दूर कर । (अहं आरे) हमारे पाप को दूर कर । (विश्वां दुर्मति) समस्त प्रकार की दुष्ट बुद्धि को भी (आरे) दूर कर (यत्) क्योंकि तू ही (निपासि) सब को सब प्रकार से बचाया करता है । इत्येकादशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ अग्निर्देवता । छन्दः–१, २, ५, ६ निचृत्रिष्टुप्। ३ स्वराडबृहती । ४ भुरिक् पंक्तिः ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
आम्ही हा निश्चय करतो की, जे लोक आम्हाला अधर्मी व दुष्ट बुद्धीच्या पुरुषापासून दूर करतात त्यांचाच सदैव आम्ही सत्कार करावा. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, child of omnipotence and patience, take off from us callousness, take away sin, take away all hate and enmity from the world. Whosoever you protect, you promote, lord generous and refulgent, you are good and kind to him night and day. He is blest. May all be good and gracious!
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Again the duties of the learned persons are mentioned.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O great scholar ! you are son of a mighty person. Like God, you remove from us all ignorance all sins and all the evil thoughts and protect your favorites, because you are auspicious or benevolent. You united us and others day and night with full scale welfare. Therefore, you are venerable.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
We decide to honor only those persons who keep us away from all un-righteous conduct, company of the wicked and evil intellect.
Foot Notes
(आरे ) दूरे । आरे इति दूरनाम (NG 3, 26 ) । = Far away. (देवः) जगदीश्वर इव । देवो दानाद् वा दीपनाद वा द्योतनाद् वा (NKT 7, 4, 16 ) शान्ति सुखानन्दप्रदाता परमेश्वरः । = Like God (अहः ) पापात्मकं कर्म | अहन्ति प्राप्नुवंति दुःख येन तत् अहः पापम् । = Sin.
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