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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 2/ मन्त्र 13
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्वम॑ग्ने वा॒घते॑ सु॒प्रणी॑तिः सु॒तसो॑माय विध॒ते य॑विष्ठ। रत्नं॑ भर शशमा॒नाय॑ घृष्वे पृ॒थुश्च॒न्द्रमव॑से चर्षणि॒प्राः ॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । अ॒ग्ने॒ । वा॒घते॑ । सु॒ऽप्रनी॑तिः । सु॒तऽसो॑माय । वि॒ध॒ते । य॒वि॒ष्ठ॒ । रत्न॑म् । भ॒र॒ । श॒श॒मा॒नाय॑ । घृ॒ष्वे॒ । पृ॒थु । च॒न्द्रम् । अव॑से । च॒र्ष॒णि॒ऽप्राः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमग्ने वाघते सुप्रणीतिः सुतसोमाय विधते यविष्ठ। रत्नं भर शशमानाय घृष्वे पृथुश्चन्द्रमवसे चर्षणिप्राः ॥१३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। अग्ने। वाघते। सुऽप्रनीतिः। सुतऽसोमाय। विधते। यविष्ठ। रत्नम्। भर। शशमानाय। घृष्वे। पृथु। चन्द्रम्। अवसे। चर्षणिऽप्राः॥१३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 13
    अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राजविषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे घृष्वे यविष्ठाग्ने ! सुप्रणीतिः पृथु चर्षणिप्राः संस्त्वं सुतसोमाय शशमानाय विधते वाघतेऽवसे चन्द्रं रत्नं भर ॥१३॥

    पदार्थः

    (त्वम्) (अग्ने) अग्निरिव पूर्णविद्यया प्रकाशमान (वाघते) मेधाविने (सुप्रणीतिः) सुष्ठु प्रगता नीतिर्येन सः (सुतसोमाय) सुतः सोम ऐश्वर्यमोषधिरसो वा येन तस्मै (विधते) विविधव्यवहारं यथावत्कुर्वते (यविष्ठ) अतिशयेन युवन् (रत्नम्) रमणीयं धनम् (भर) धर (शशमानाय) सर्वेषां दुःखानामुल्लङ्घकाय (घृष्वे) पदार्थानां सङ्घर्षक (पृथु) विस्तीर्णपुरुषार्थः (चन्द्रम्) आह्लादकरं सुवर्णम् (अवसे) रक्षणाद्याय (चर्षणिप्राः) यश्चर्षणीन् मनुष्यान् प्राति व्याप्नोति सः ॥१३॥

    भावार्थः

    हे राजन् ! ये धार्मिकाः शूरा विद्वांसः शत्रुबलस्योल्लङ्घकाः परस्परं पदार्थघर्षणेन विद्युदादिविद्याप्रकाशका मनुष्यरक्षका अमात्यादयो भृत्याः स्युस्तदर्थमैश्वर्य्यं सततं धर ॥१३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब अगले मन्त्र में राजा के विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (घृष्वे) पदार्थों के घिसनेवाले (यविष्ठ) अत्यन्त युवन् (अग्ने) अग्नि के सदृश पूर्णविद्या से प्रकाशमान ! (सुप्रणीतिः) उत्तम प्रकार चली हुई नीति जिनके विद्यमान (पृथु) जिनका पुरुषार्थ विस्तृत हो रहा है (चर्षणिप्राः) जो मनुष्यों को व्याप्त होनेवाले (त्वम्) आप (सुतसोमाय) उत्पन्न किया गया ऐश्वर्य वा ओषधियों का रस जिससे उस (शशमानाय) सब के दुःखों के उल्लङ्घन करनेवाले (विधते) अनेक प्रकार के व्यवहार को यथावत् करते हुए (वाघते) बुद्धिमान् के लिये (अवसे) रक्षण आदि के अर्थ (चन्द्रम्) प्रसन्न करनेवाले सुवर्ण और (रत्नम्) रमणीय मनोहर धन का (भर) धारण करो ॥१३॥

    भावार्थ

    हे राजन् ! जो धार्मिक शूरवीर विद्वान् लोग शत्रु के बल के उल्लङ्घन करने, परस्पर पदार्थों के घिसने से बिजुली आदि की विद्या के प्रकाश करने और मनुष्यों की रक्षा करनेवाले मन्त्री आदि नौकर होवें, उनके लिये ऐश्वर्य निरन्तर धारण करो ॥१३॥

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    विषय

    वाघते सुप्रणीतिः

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (त्वम्) = आप (वाघते) = अपने कर्त्तव्यभार का वहन करनेवाले के लिये (सुप्रणीतिः) = उत्तम प्रणयन करनेवाले हैं। इन कर्त्तव्यपरायण लोगों को आप सदा मार्गदर्शन करते हैं । [२] हे (यविष्ठ) = बुराइयों से हमें पृथक् करनेवाले, अच्छाईयों से हमें मिलानेवाले प्रभो ! आप (सुत सोमाय) = जो अपने अन्दर सोम का सम्पादन करता है, उस (विधते) = उपासक के लिये (रत्नं भर) = रमणीय वसुओं को प्राप्त कराइये। जीवन के लिये आवश्यक रमणीय तत्त्वों को प्राप्त कराइये । [३] हे (घृष्वे) = शत्रुओं का घर्षण व विनाश करनेवाले प्रभो ! आप (शशमानाय) = प्लुत गति से कार्य करनेवाले के लिये (पृथु) = विशाल, खूब अधिक (चन्द्रम्) = आह्लाद आदि धन को (अवसे) = रक्षण के लिये [भर] प्राप्त कराइये। आप ही तो (चर्षणिप्राः) = सब मनुष्यों का पूरण करनेवाले हैं। सब अपेक्षित धनों को प्राप्त कराके आप उनका पूरण करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- कर्त्तव्यपालन करनेवाले के लिये प्रभु मार्गदर्शन करते हैं। सोम के सम्पादक उपासक के लिये रमणीय वसुओं को देते हैं। शीघ्र गतिवाले पुरुष के लिये आप विशाल आह्लादकारी धन को देते हैं।

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    विषय

    दाता राजा, स्वामी के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) ज्ञानवन् ! विद्वन् ! हे ( यविष्ठ ) सबसे अधिक बलयुक्त ! हे ( घृष्वे ) दीप्तियुक्त पदार्थों को घर्षण करके विद्युतादि उत्पन्न करने हारे ! वा शत्रुजनों के साथ स्वयं संघर्ष या स्पर्द्धा करने और प्रजाओं में संघर्ष स्पर्द्धा कराने हारे ! ( त्वम् ) तू (सुप्रणीतिः) उत्तम रीति से सब से बढ़कर नीतिमान्, ( पृथुः ) विस्तृत बल और राज्य का स्वामी, ( चर्षणिप्राः ) मनुष्यों को ऐश्वर्य से पूर्ण करने वाला होकर ( सुतसोमाय ) ज्ञान और ऐश्वर्य एवं ओषधि रसादि को उत्पन्न करने वाले, विद्वान्, बलवान् ( विधते ) सेवा करने वाले और ( शशमानाय ) सबके दुःखों को या सबकी सीमाओं को लांघने वाले, सबसे अग्रगण्य पुरुष तू ( रत्नम् ) रमणीय द्रव्य ( भर ) प्रदान कर । ( अवसे ) उसकी रक्षा और तृप्ति के लिये ( चन्द्रम् ) आह्लादकारक सुवर्णादि धन प्रदान कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ अग्निदेवता ॥ छन्दः- १, १९ पंक्तिः । १२ निचृत्पंक्तिः । १४ स्वराट् पंक्तिः । २, ४–७, ९, १३, १५, १७, १८, २० निचृत् त्रिष्टुप् । ३, १६ त्रिष्टुप् । ८, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे राजा ! जे धार्मिक, शूरवीर, विद्वान लोक, शत्रूबल न्यून करणारे, पदार्थांच्या परस्पर घर्षणाने विद्युत विद्या प्रकट करणारे असतात. माणसांचे रक्षण करणारे मंत्री इत्यादी नोकर असतात. त्यांच्यासाठी सतत ऐश्वर्य धारण करा. ॥ १३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, giver of light, knowledge and power, ever fresh and youthful, noble guide in proper ways of living, ruler of the wide world, friend of the people, bear and bring the beauty, peace and jewel wealth of life for the protection and advancement of the intelligent admirer who has distilled the soma of life’s joy, confidently conducts the business of life to success, conquers suffering unto overflowing happiness and refines the manners and graces of life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    the duties of a ruler are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king ! shining with stark knowledge like the fire, illuminator of the science of energy, most youthful (energetic), the pursuer of good policy, industrious and fulfiller of the noble desires of men bestow charming wealth, gold and other substances. A man who extractes the juice of invigorating herbs like Soma, who deals honestly, who goes beyond all misery by tactful means and who is wise, he earns that wealth. Let you do so for his (king's) protection.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O king ! you should uphold wealth for the sake of miniates and other workers, because they are righteous, brave, learned, humble and crusher of the enemies. In fact, they are the illuminators of the science of energy by the fusion of various articles (negatives and positives) and protectors of men.

    Foot Notes

    (विधते) विविधव्यवहारं यथावत्कुर्वते = Doer of all dealings honestly and properly. (शशमानाय ) सर्वेषां दुःखानामुल्लङ्घकाय । = For a man who leaps beyond all miseries. (वाघते ) मेधाविने । वाघत इति मेधाविनाम् ( NG 3, 15 ) । = For a wise man.

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