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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 2/ मन्त्र 4
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒र्य॒मणं॒ वरु॑णं मि॒त्रमे॑षा॒मिन्द्रा॒विष्णू॑ म॒रुतो॑ अ॒श्विनो॒त। स्वश्वो॑ अग्ने सु॒रथः॑ सु॒राधा॒ एदु॑ वह सुह॒विषे॒ जना॑य ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒र्य॒मण॑म् । वरु॑णम् । मि॒त्रम् । ए॒षा॒म् । इन्द्रा॒विष्णू॒ इति॑ । म॒रुतः॑ । अ॒श्विना॑ । उ॒त । सु॒ऽअश्वः॑ । अ॒ग्ने॒ । सु॒ऽरथः॑ । सु॒ऽराधाः॑ । आ । इत् । ऊँ॒ इति॑ । व॒ह॒ । सु॒ऽह॒विषे॑ । जना॑य ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अर्यमणं वरुणं मित्रमेषामिन्द्राविष्णू मरुतो अश्विनोत। स्वश्वो अग्ने सुरथः सुराधा एदु वह सुहविषे जनाय ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अर्यमणम्। वरुणम्। मित्रम्। एषाम्। इन्द्राविष्णू इति। मरुतः। अश्विना। उत। सुऽअश्वः। अग्ने। सुऽरथः। सुऽराधाः। आ। इत्। ऊम् इति। वह। सुऽहविषे। जनाय॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 4
    अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने ! सुराधाः स्वश्वः सुरथस्संस्त्वं सुहविषे जनायाऽर्यमणं वरुणमेषां मित्रमिन्द्राविष्णू मरुत उताऽश्विना आ वह उ सर्वानिदेव सुखय ॥४॥

    पदार्थः

    (अर्यमणम्) न्यायाधीशम् (वरुणम्) श्रेष्ठगुणम् (मित्रम्) सखायम् (एषाम्) (इन्द्राविष्णू) विद्युत्सूत्रात्मानौ (मरुतः) वायून् (अश्विना) सूर्य्याचन्द्रमसौ (उत) (स्वश्वः) सुष्ठु अश्वा यस्य सः (अग्ने) विद्वन् (सुरथः) प्रशस्तयानः (सुराधाः) शोभनं राधो धनं यस्य सः (आ) (इत्) (उ) (वह) (सुहविषे) सुसामग्रीकाय (जनाय) मनुष्याय ॥४॥

    भावार्थः

    हे विद्वन् ! भवानग्निजलादिपदार्थान् यथावद्विदित्वा कार्येषु सम्प्रयुज्य प्रत्यक्षीकृत्याऽन्यानुपदिश। येन सर्वे धनधान्यसुखयुक्ताः स्युः ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) विद्वन् पुरुष (सुराधाः) उत्तम धन से (स्वश्वः) उत्तम घोड़ों और (सुरथः) उत्तम वाहनों से युक्त आप (सुहविषे) उत्तम सामग्रीवाले (जनाय) मनुष्य के लिये (अर्यमणम्) न्याय के अधीश (वरुणम्) श्रेष्ठ गुणवाले (एषाम्) इनके (मित्रम्) मित्र (इन्द्राविष्णू) तथा बिजुली और सूत्रात्मा (मरुतः) पवन (उत) और (अश्विना) सूर्य्य और चन्द्रमा की (आ, वह) प्राप्ति कराइये (उ, इत्) और सभी सुख दीजिये ॥४॥

    भावार्थ

    हे विद्वन् ! आप अग्नि और जलादि पदार्थों को उत्तम प्रकार जान के और कार्य्यों में संयुक्त कर प्रत्यक्ष करके अन्य जनों के लिये उपदेश दीजिये, जिससे कि सब लोग धन धान्य और सुखों से युक्त होवें ॥४॥

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    विषय

    सर्वदेवमयता

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = परमात्मन्! आप (स्वश्वः) = उत्तम इन्द्रियाश्वों को प्राप्त करानेवाले हैं, (सुरथ:) = उत्तम शरीर-रथ को देनेवाले हैं, (सुराधा:) = उत्तम कार्य-साधक [राध् सिद्धौ] धनों के प्रदाता हैं। आप (सु हविषै जनाय) उत्तम हविवाले मनुष्य के लिये, त्यागपूर्वक अदन करनेवाले मनुष्य के लिये इन देवों को (इत्) = निश्चय से (आवह) = प्राप्त कराइये । [२] (अर्यमणम्) = अर्यमा को प्राप्त कराइये । 'अर्यमेति तमाहुर्यो दयाति' देने के वृत्ति को प्राप्त कराइये। इस दानवृत्ति द्वारा 'वरुण'='पापान्निवारयति' पापवृत्ति को दूर करिये। दानवृत्ति लोभ को समाप्त करके निष्पापता को पैदा करती है। (मित्रम्) = [प्रमीते: त्रायते] निष्पाप बनाकर इन रोगों से बचाइये। [३] दान, निष्पापता व नीरोगता को प्राप्त करके (एषाम्) = इनके जीवन में (इन्द्राविष्णू) = जितेन्द्रियता व व्यापकता [विष् व्याप्तौ] को स्थापित करिये। इन बातों की सिद्धि के लिये ये (मरुतः) = प्राणसाधना करनेवाले हों, (उत) = और (अश्विना) = 'इममेह वै द्यावापृथिवी प्रत्यक्षमश्विनौ इमे हीदं सर्वमश्नुवाताम्' श० ४।१।५ | १६ इनको द्यावापृथिवी की प्राप्ति हो, इसका मस्तिष्क ज्ञानसूर्य से चमके और इनका शरीर पृथिवी की तरह दृढ़ हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु कृपा से हमारा जीवन सर्वदेवमय हो ।

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    विषय

    राजा के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) अग्रिणी नायक ! हे ज्ञानवान् विद्वन् ! तू ( सु-अश्वः ) उत्तम अश्व सैन्य, ओर वेगवान् वाहन का स्वामी और ( सुरथः ) उत्तम रथों का स्वामी (सुराधाः) उत्तम, सुखजनक ऐश्वर्य का स्वामी होकर ( सुहविषे जनाय ) उत्तम अन्न से समृद्ध प्रजाजन के उपकार के लिये ( अर्यमणं ) शत्रुओं को वश करने वाले, न्यायाधीश, (वरुणं) सर्वश्रेष्ठ, ( मित्रम् ) प्रजा को मरण से बचाने वाले और ( इन्द्राविष्णू ) ऐश्वर्यवान् और व्यापक सामर्थ्य वाले और ( मरुतः ) शत्रुओं को मारने वाले वा वायु के तुल्य बलवान्, वेगवान् (उत अश्विना) और अश्वों के स्वामी वा सूर्य चन्द्रवत् वा दिन रात्रिवत् एक दूसरे के साथ जीवन मार्ग को बिताने वाले स्त्री पुरुषों या उत्तम वैद्य इन सबको ( आवह इत् ) प्राप्त करा । ( २ ) अध्यात्म में—अर्यमा समान, वरुण मित्र प्राण, अपान, इन्द्र विष्णु आत्मा मन, मरुत् प्राणगण, अश्विना दोनों चक्षु या नासिकास्थ प्राण, इन सबको जितेन्द्रिय और उत्तम देह रथी धारण करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ अग्निदेवता ॥ छन्दः- १, १९ पंक्तिः । १२ निचृत्पंक्तिः । १४ स्वराट् पंक्तिः । २, ४–७, ९, १३, १५, १७, १८, २० निचृत् त्रिष्टुप् । ३, १६ त्रिष्टुप् । ८, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे विद्वाना! तू अग्नी व जल इत्यादी पदार्थांना उत्तम प्रकारे जाणून व कार्यात संयुक्त करून, प्रत्यक्ष कार्य करून इतर लोकांना उपदेश दे, ज्यामुळे सर्व लोक धनधान्य व सुख यांनी युक्त व्हावेत. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, lord of light and power, commanding instant waves of communication, fastest modes of transport, immense wealth and infrastructure for development and prosperity, come and, for these people dedicated to the yajna of corporate programmes of common development and progress, bring Aryaman, power of justice, Varuna, spirit of freedom, choice and excellence, Mitra, love and friendship for all these people, Indra, energy of the clouds and electricity, Vishnu, universal spirit of cosmic unity, Maruts, energy of the winds, and the Ashvins, light of the sun and soothing beauty of the moon.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of the people are underlined.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person ! you possess good steeds, an excellent car and abundant good wealth. Bring all this to the man who has good stock for putting oblations in the fire (or by giving energy to needy), is dispenser of justice and a virtuous friend. And the men who know well the properties and analysis of electricity and SŪTRĀTMĀ (subtle form of air), sun, moon and the winds, they gladden all.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    o learned person ! you should know well the properties of the Agni (fire, energy etc.) water and other elements, apply them for the accomplishment of various purposes and after having thorough and sure knowledge through experiments, impart lessons about them to others. Thus all are endowed with wealth, food grains and happiness.

    Foot Notes

    (अश्विना ) सूर्य्याचन्द्रमसौ । यत् कावश्विनौ सूर्याचन्द्रमसा वित्येके (NKT. 12, 1, 1,)। = The sun and the moon. (अर्यमणम्) न्यायाधीशम् = Dispenser of justice, magistrate or judge. (इन्द्रा विष्णु) विद्युत्सूत्रात्मानौ । Electricity and Sutratma (मरुतः ) वायून् । = मरुतः इति पदनाम (NG. 5, 5,) । = Winds.

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