ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 21/ मन्त्र 1
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
आ या॒त्विन्द्रोऽव॑स॒ उप॑ न इ॒ह स्तु॒तः स॑ध॒माद॑स्तु॒ शूरः॑। वा॒वृ॒धा॒नस्तवि॑षी॒र्यस्य॑ पू॒र्वीर्द्यौर्न क्ष॒त्रम॒भिभू॑ति॒ पुष्या॑त् ॥१॥
स्वर सहित पद पाठआ । या॒तु॒ । इन्द्रः॑ । अव॑से । उप॑ । नः॒ । इ॒ह । स्तु॒तः । स॒ध॒ऽमात् । अ॒स्तु॒ । शूरः॑ । व॒वृ॒धा॒नः । तवि॑षीः । यस्य॑ । पू॒र्वीः । द्यौः । न । क्ष॒त्रम् । अ॒भिऽभू॑ति । पुष्या॑त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ यात्विन्द्रोऽवस उप न इह स्तुतः सधमादस्तु शूरः। वावृधानस्तविषीर्यस्य पूर्वीर्द्यौर्न क्षत्रमभिभूति पुष्यात् ॥१॥
स्वर रहित पद पाठआ। यातु। इन्द्रः। अवसे। उप। नः। इह। स्तुतः। सधऽमात्। अस्तु। शूरः। ववृधानः। तविषीः। यस्य। पूर्वीः। द्यौः। न। क्षत्रम्। अभिऽभूति। पुष्यात् ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 21; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथेन्द्रपदवाच्यराजगुणानाह ॥
अन्वयः
हे विद्वांसो ! यस्य राज्ञो द्यौर्न पूर्वीस्तविषीः स्युर्द्यौर्नाऽभिभूति क्षत्रं पुष्यात् स वावृधानः शूरः स्तुत इन्द्रो नोऽस्माकमवस इहोपायात्वस्माभिः सधमादस्तु ॥१॥
पदार्थः
(आ) (यातु) आगच्छतु (इन्द्रः) प्रजारक्षकः (अवसे) रक्षणाद्याय (उप) (नः) अस्माकम् (इह) अस्मिन् राजप्रजाव्यवहारे (स्तुतः) प्राप्तप्रशंसः (सधमात्) समानस्थानात् यस्सह माद्यति (अस्तु) (शूरः) शत्रूणां हिंसकः (वावृधानः) वर्धमानः (तविषीः) बलयुक्ताः सेनाः (यस्य) (पूर्वीः) प्राचीनाः (द्यौः) सूर्य्यः (न) इव (क्षत्रम्) राज्यम् (अभिभूति) शत्रूणां तिरस्कारनिमित्तम् (पुष्यात्) पुष्टं भवेत् ॥१॥
भावार्थः
यो राजा विद्युद्वद्बलिष्ठः सूर्य्यवत् सुप्रकाशाः सेनाः कृत्वा निष्कण्टकं राज्यं पुष्यात्स एवेह सर्वां प्रतिष्ठामखिलमानन्दं प्राप्य देहान्ते मोक्षं गच्छेत् ॥१॥
हिन्दी (1)
विषय
अब ग्यारह ऋचावाले इक्कीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में इन्द्रपदवाच्य राजगुणों को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वान् जनो ! (यस्य) जिस राजा की (द्यौः) सूर्य्य के (न) सदृश (पूर्वीः) प्राचीन (तविषीः) बलयुक्त सेना हों और सूर्य्य के सदृश (अभिभूति) शत्रुओं के तिरस्कार में निमित्त (क्षत्रम्) राज्य (पुष्यात्) पुष्ट होवे वह (वावृधानः) बढ़ने और (शूरः) शत्रुओं का नाश करनेवाला (स्तुतः) प्रशंसा को प्राप्त (इन्द्रः) प्रजारक्षक (नः) हम लोगों के (अवसे) रक्षण आदि के लिये (इह) यहाँ राजा और प्रजा के व्यवहार में (उप, आ, यातु) समीप प्राप्त हो और हम लोगों के (सधमात्) समीप स्थान से आनन्द करनेवाला (अस्तु) हो ॥१॥
भावार्थ
जो राजा बिजुली के सदृश बलिष्ठ, सूर्य्य के सदृश उत्तम प्रकार प्रकाशित, सेना कर निष्कंटक अर्थात् दुष्टजनादिरहित राज्य को पुष्ट करे, वही इस संसार में सम्पूर्ण प्रतिष्ठा और सम्पूर्ण आनन्द को प्राप्त होके शरीर के त्याग के समय मोक्ष को प्राप्त होवे ॥१॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात इंद्र, राजा व प्रजा यांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
जो राजा विद्युल्लतेप्रमाणे बलवान, सूर्याप्रमाणे उत्तम प्रकाशित होणारी सेना तयार करून निष्कंटक राज्य पुष्ट करतो तोच या जगात संपूर्ण प्रतिष्ठा व संपूर्ण आनंद प्राप्त करून शरीराचा त्याग करताना मोक्ष प्राप्त करतो. ॥ १ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
May Indra, ruler and protector of the people, come here to us for our protection and advancement and, praised and sung, may the brave hero share our joy of celebration. Exalted and ascending he is, time tested his forces, bright and blazing as light of the sun. May he, we pray, strengthen our social order and raise it to the heights of prosperity.
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