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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 30/ मन्त्र 4
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    यत्रो॒त बा॑धि॒तेभ्य॑श्च॒क्रं कुत्सा॑य॒ युध्य॑ते। मु॒षा॒य इ॑न्द्र॒ सूर्य॑म् ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्र॑ । उ॒त । बा॒धि॒तेभ्यः॑ । च॒क्रम् । कुत्सा॑य । युध्य॑ते । मु॒षा॒यः । इ॒न्द्र॒ । सूर्य॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्रोत बाधितेभ्यश्चक्रं कुत्साय युध्यते। मुषाय इन्द्र सूर्यम् ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्र। उत। बाधितेभ्यः। चक्रम्। कुत्साय। युध्यते। मुषायः। इन्द्र। सूर्यम् ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 30; मन्त्र » 4
    अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! यत्र मुषायो बाधितेभ्यः कुत्साय युध्यते जनाय सूर्य्यमिव चक्रं वर्त्तयति तत्रोतापि सुखं न वर्द्धते ॥४॥

    पदार्थः

    (यत्र) यस्मिन् राज्ये (उत) अपि (बाधितेभ्यः) पीडितेभ्यः (चक्रम्) चक्रवद्वर्त्तमानं राज्यम् (कुत्साय) शस्त्रास्त्रयुक्ताय (युध्यते) युद्धङ्कुर्वते (मुषायः) यो मुष इवाऽऽचरति (इन्द्र) (सूर्य्यम्) सूर्य्यमिव वर्त्तमानं न्यायम् ॥४॥

    भावार्थः

    यो राजा प्रजापीडां न निवारयेत् सूर्यवद् सद्गुणैः प्रकाशमानो न स्यात् प्रजाभ्यः करञ्च गृह्णीयात् स च न स्यात् ॥४॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) सूर्य्य के सदृश वर्त्तमान न्यायकारिन् ! (यत्र) जिस राज्य में (मुषायः) चोरी करनेवाले के सदृश आचरण करनेवाले (बाधितेभ्यः) पीड़ायुक्त जनों से (कुत्साय) शस्त्र और अस्त्र से युक्तजन और (युध्यते) युद्ध करते हुए जन के लिये (सूर्यम्) सूर्य के सदृश वर्त्तमान न्यायरूपी (चक्रम्) चक्र को वर्त्ताता है, वहाँ (उत) भी सुख नहीं बढ़ता है ॥४॥

    भावार्थ

    जो राजा प्रजा की पीड़ा को नहीं निवारण करे और सूर्य के सदृश श्रेष्ठ गुणों से प्रकाशमान न हो और प्रजाओं से कर ग्रहण करे, वह राजा नहीं होवे ॥४॥

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    विषय

    सहस्त्रार-चक्र का उद्बोधन

    पदार्थ

    [१] गतमन्त्र के अनुसार (यत्र) = जिस, आसुरभावों के साथ होनेवाले युद्ध में (उत) = और (बाधितेभ्यः) = [बाधा संजाता अस्य] काम-क्रोध आदि पीड़ित करनेवाले आसुरभावों के लिए, अर्थात् इन आसुरभावों के विनाश के लिए (युध्यते कुत्साय) = आसुरभावों से युद्ध करनेवाले वासनाओं के हिंसिक कुत्स के लिए हे (इन्द्र) = शत्रु-विद्रावक प्रभो! आप (सूर्यं चक्रम्) = सूर्य सम्बन्धी चक्र को (मुषायः) = पराभूत करते हैं, अर्थात् कुत्स को आप सूर्य-चक्र से भी अधिक तेजस्वी चक्र प्राप्त कराते हैं । [२] शरीर में मेरुदण्ड के मूल में मूलाधार चक्र है और शिखर पर 'सहस्रारचक्र' है। यह सहस्रार चक्र सूर्य से भी अधिक तेजस्वी है । इस चक्र के विकसित होने पर सब अन्धकार समाप्त हो जाता है। अन्धकार के विलय के साथ सब वासनाओं का विलय हो जाता है। वासनाविलय करनेवाला यह सचमुच 'कुत्स' बनता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना से सहस्रार चक्र विकसित होने पर सब पीड़ाकर आसुरभाव विनष्ट हो जाते हैं ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो राजा प्रजेच्या कष्टाचे निवारण करीत नाही व सूर्याप्रमाणे सद्गुणांनी प्रकाशित होत नाही व प्रजेकडून कर घेतो त्याने राजा होता कामा नये. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Where the battle rages in support of the warriors fighting in defence of the oppressed and the wise, there Indra, O lord of honour, power and justice, take up the solar disc of thunder and crush the wicked.

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