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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 34/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - ऋभवः छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    आ वा॑जा या॒तोप॑ न ऋभुक्षा म॒हो न॑रो॒ द्रवि॑णसो गृणा॒नाः। आ वः॑ पी॒तयो॑ऽभिपि॒त्वे अह्ना॑मि॒मा अस्तं॑ नव॒स्व॑इव ग्मन् ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । वा॒जाः॒ । या॒त॒ । उप॑ । नः॒ । ऋ॒भु॒क्षाः॒ । म॒हः । न॒रः॒ । द्रवि॑णसः । गृ॒णा॒नाः । आ । वः॒ । पी॒तयः॑ । अ॒भि॒ऽपि॒त्वे । अह्ना॑म् । इ॒माः । अस्त॑म् । न॒व॒स्वः॑ऽइव । ग्म॒न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ वाजा यातोप न ऋभुक्षा महो नरो द्रविणसो गृणानाः। आ वः पीतयोऽभिपित्वे अह्नामिमा अस्तं नवस्वइव ग्मन् ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। वाजाः। यात। उप। नः। ऋभुक्षाः। महः। नरः। द्रविणसः। गृणानाः। आ। वः। पीतयः। अभिऽपित्वे। अह्नाम्। इमाः। अस्तम्। नवस्वःऽइव। ग्मन् ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 34; मन्त्र » 5
    अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे ऋभुक्षा वाजा महो नरो ! द्रविणसो गृणाना यूयं न उपायाताह्नामभिपित्व इमाः पीतयोऽस्तं नवस्वइव व आग्मन् ॥५॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (वाजाः) प्राप्तब्रह्मचर्य्याः (यात) प्राप्नुत (उप) (नः) अस्मान् (ऋभुक्षाः) सद्गुणैर्महान्तः (महः) पूजनीयाः (नरः) नेतारः (द्रविणसः) यशोधनस्य (गृणानाः) स्तुवन्तः (आ) (वः) युष्मान् (पीतयः) पानानि (अभिपित्वे) प्राप्तौ (अह्नाम्) दिनानाम् (इमाः) प्रत्यक्षाः (अस्तम्) गृहम् (नवस्वइव) यथा नवीनसुखः (ग्मन्) प्राप्नुवन्तु ॥५॥

    भावार्थः

    सर्वैमनुष्यैरियमाशीर्नित्या कर्त्तव्यास्मानाप्ता विद्वांसः प्राप्नुताऽहर्निशमैश्वर्य्यप्राप्तिर्भवेद् यथा नूतना विवाहाश्रमं सेवन्ते तथैव स्त्रीपुरुषा गृहकृत्यानि सेवेरन् ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (ऋभुक्षाः) उत्तम गुणों से बड़े (वाजाः) ब्रह्मचर्य्य को प्राप्त (महः) आदर करने योग्य (नरः) नायक ! (द्रविणसः) यशरूप धन की (गृणानाः) स्तुति प्रशंसा करते हुए आप लोग (नः) हम लोगों के (उप, आ, यात) समीप प्राप्त हूजिये और (अह्नाम्) दिनों की (अभिपित्वे) प्राप्ति होने में (इमाः) यह प्रत्यक्ष (पीतयः) जो पान हैं वह (अस्तम्, नवस्वइव) जैसे नवीन सुखवाला घर को प्राप्त होता है, वैसे (वः) आपको (आ, ग्मन्) प्राप्त हों ॥५॥

    भावार्थ

    सब मनुष्यों को चाहिये कि ऐसी इच्छा नित्य करें कि हम लोगों को यथार्थवक्ता विद्वान् लोग प्राप्त होवें और दिन-रात्रि ऐश्वर्य्य की प्राप्ति होवे। जैसे नवीन विवाहाश्रम का सेवन करते हैं, वैसे ही स्त्री और पुरुष गृह के कृत्यों का सेवन करें ॥५॥

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    विषय

    वाज व ऋभुक्षा को प्रभु की प्राप्ति

    पदार्थ

    [१] प्रभु कहते हैं कि हे (वाजाः) = शक्तिशाली मनुष्यो ! (ऋभुक्षा:) = सद्गुणों से महान् बननेवाले (नरः) = उन्नतिपथ पर चलनेवाले मनुष्यो ! [ऋभुक्षा: महन्नाम नि० ३३, सद्गुणैर्महान्त: द० ] (न: उप आयात) = तुम हमारे समीप आओ, अर्थात् प्रभु की प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि हम [क] अपने अन्दर शक्ति का सम्पादन करें, [ख] सद्गुणों से महान् बनें, [ग] सदा उन्नतिपथ पर आगे बढ़नेवाले हों। [२] प्रभु कहते हैं कि तुम (महः द्रविणसः) = इस अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सोमरूप धन का (गृणाना:) = स्तवन करनेवाले बनो। इसके महत्त्व को समझकर ही तो हम इसका पान करनेवाले होंगे। (व:) = तुम्हें (अभिपित्वे) = जीवन के इस सायन्तन-सवन में (अह्नाम्) = इन न नष्ट करने योग्य सोमकणों की (पीतयः) = शरीर में व्याप्तियाँ (आवग्मन्) = सर्वथा इस प्रकार प्राप्त हों, (इव) = जैसे कि (नवस्वः) = नव प्रसूत धेनुएँ (अस्तम्) = गृह को प्राप्त होती हैं। बछड़े का स्मरण करती हुई वे शीघ्रता से घर की ओर आती हैं, इसी प्रकार ये सोमकण शरीररूप गृह की ओर आनेवाले हों। प्रभु कहते हैं कि ये ही तुम्हें 'वाज व ऋभुक्षा' बनाएँगे ।

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    विषय

    विद्वानों और शिल्पज्ञों के कर्त्तव्य

    भावार्थ

    हे (वाजाः) विज्ञान ऐश्वर्य और बल से युक्त (ऋभुक्षाः) और गुणों से महान् पुरुषो! आप लोग (महः) अति उत्तम (द्रविणसः) धन विद्या का (गुणानाः) उपदेश करते हुए (नः उप यात) हमें प्राप्त होवें। (अह्नाम् अभि-पित्वे) दिनों के समाप्ति के अवसर में (इमा) ये (पीतयः) उत्तम दुग्ध आदि पान करने योग्य पदार्थ (अस्तं नवस्वः- इव) नये २ सुख प्राप्त करने वाले लोग जैसे घर को आते हैं वा नवप्रसूता गौएं जैसे आप से आप गृह को आजाती हैं वैसे तुम्हें (आ ग्मन्) नित्य प्राप्त हों । इति तृतीयो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ ऋभवो देवता ॥ छन्दः– १ विराट् त्रिष्टुप् । २ भुरिक् त्रिष्टुप । ४, ६, ७, ८, ९ निचृत् त्रिष्टुप् । १० त्रिष्टुप् । ३,११ स्वराट् पंक्तिः । ५ भुरिक् पंक्तिः ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सर्व माणसांनी नित्य अशी इच्छा करावी की, आम्हाला आप्त विद्वान लोक प्राप्त व्हावेत व रात्रंदिवस ऐश्वर्याची प्राप्ती व्हावी, जसे नावीन्याने गृहस्थाश्रमाचा स्वीकार केला जातो तसेच स्त्री-पुरुषांनी गृहकृत्याचा स्वीकार करावा. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Come, O potent, brilliant and great Rbhus, best of the leaders of men, commanding the wealth and knowledge of the world, praised and celebrated, come as a rising glowing youth comes home at the end of the day, and may these exhilarating drinks offered to you delight you.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of genius persons is described.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O genius person blessed with noble virtues ! you have observed full Brahmacharya (celibacy) are respectable, leading in and always seeking the wealth of fame. You come us well-nigh. As a man dwelling in newly constructed house, enjoys happiness, same way we should pass our days delighting with herbal (soma) drinks.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    All should endure to seek company of frank straightforward and learned persons, in order to attain prosperity day and night. As a newly married couple enjoy married life, we all the women and men should perform the duties of home life.

    Foot Notes

    (वाजाः ) प्राप्तब्रह्मचर्य्याः । = Observing Brahmacharya. (ऋभुक्षाः ) सद्गुणैर्महान्तः । = Great because of being virtuous . (महः )पूजनीयाः । = Respectable. ( द्रविणसः ) यशोधनस्य । = Wealth in the form of fame. (अस्तम्) गृहम् | = Home. (नवस्व इव ) यथा नवीनसुखः । = Like a newly married couple.

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