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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 4/ मन्त्र 13
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - रक्षोहाऽग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ये पा॒यवो॑ मामते॒यं ते॑ अग्ने॒ पश्य॑न्तो अ॒न्धं दु॑रि॒तादर॑क्षन्। र॒रक्ष॒ तान्त्सु॒कृतो॑ वि॒श्ववे॑दा॒ दिप्स॑न्त॒ इद्रि॒पवो॒ नाह॑ देभुः ॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । पा॒यवः॑ । मा॒म॒ते॒यम् । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । पश्य॑न्तः । अ॒न्धम् । दुः॒ऽइ॒तात् । अर॑क्षन् । र॒रक्ष॑ । तान् । सु॒ऽकृतः॑ । वि॒श्वऽवे॑दाः । दिप्स॑न्तः । इत् । रि॒पवः॑ । न । अह॑ । दे॒भुः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये पायवो मामतेयं ते अग्ने पश्यन्तो अन्धं दुरितादरक्षन्। ररक्ष तान्त्सुकृतो विश्ववेदा दिप्सन्त इद्रिपवो नाह देभुः ॥१३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये। पायवः। मामतेयम्। ते। अग्ने। पश्यन्तः। अन्धम्। दुःऽइतात्। अरक्षन्। ररक्ष। तान्। सुऽकृतः। विश्वऽवेदाः। दिप्सन्तः। इत्। रिपवः। न। अह। देभुः॥१३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 4; मन्त्र » 13
    अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुना राजविषयमाह

    अन्वयः

    हे अग्ने ! ये पायवस्ते मामतेयं पश्यन्तो दुरितादन्धमिवाऽस्मानरक्षंस्तान् सुकृतो विश्ववेदाः संस्त्वं ररक्ष येनेदेव दिप्सन्तो रिपवोऽस्मान्नाऽह देभुः ॥१३॥

    पदार्थः

    (ये) (पायवः) रक्षकाः (मामतेयम्) मम भावो ममता तस्या इदम् (ते) तव (अग्ने) पावकवद्राजन् (पश्यन्तः) प्रेक्षमाणाः (अन्धम्) नेत्ररहितमिव (दुरितात्) दुष्टाचाराद् दुःखाद्वा (अरक्षन्) रक्षन्ति (ररक्ष) पालय (तान्) (सुकृतः) उत्तमकर्मकारिणः (विश्ववेदाः) समग्रवित् (दिप्सन्तः) दम्भमिच्छन्तः (इत्) एव (रिपवः) शत्रवः (न) (अह) विनिग्रहे (देभुः) दभ्नुयुः ॥१३॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे राजन् ! ये स्वकीयमिवाऽन्येषाम्भवतश्च पदार्थं जानन्ति। आत्मानमिवान्यान् रक्षन्ति त एवाऽऽप्ता तव भृत्याः सन्तु येन शत्रूणां बलं विनश्येत् ॥१३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर राजविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के सदृश राजन् ! (ये) जो (पायवः) रक्षा करनेवाले (ते) आपके (मामतेयम्) ममता सम्बन्धी कार्य को (पश्यन्तः) देखते हुए (दुरितात्) दुष्ट आचरण वा दुःख से (अन्धम्) नेत्ररहित को जैसे वैसे हम लोगों की (अरक्षन्) रक्षा करते हैं (तान्) उन (सुकृतः) उत्तम कर्म करनेवालों का (विश्ववेदाः) सम्पूर्ण विषय जाननेवाले होते हुए आप (ररक्ष) पालन करो, जिससे (इत्) ही (दिप्सन्तः) पाखण्ड की इच्छा करते हुए (रिपवः) शत्रु लोग हम लोगों के (न, अह) निग्रह करने में न (देभुः) दम्भ करें ॥१३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे राजन् ! जो लोग अपने के सदृश अन्य जनों और आपके पदार्थ को जानते हैं और अपने आत्मा के सदृश अन्यों की रक्षा करते हैं, वे ही यथार्थवक्ता आपके सेवक हों, जिससे कि शत्रुओं का बल नष्ट होवे ॥१३॥

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    विषय

    मामतेय का रक्षण

    पदार्थ

    [१] सामान्यतः मनुष्य ममता से ऊपर नहीं उठ पाता। ममता में फँसा हुआ वह तत्त्व को नहीं देख पाता तत्त्वदर्शन के अभाव में, पाप में प्रवृत्त हो जाता है। यह ममता में फँसा व्यक्ति यहाँ ममता का पुत्र 'मामतेय' कहलाया है । तत्त्वदर्शन न करने के कारण यह अन्धा है। गतमन्त्र के ज्ञानी पुरुष इन पुरुषों के लिये ज्ञान को देकर उसे पाप से बचाते हैं। ये (पायवः) = जो रक्षक हैं (ते) = वे (पश्यन्तः) = ज्ञानी पुरुष, हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (मामतेयम्) = ममता में फँसे हुए मुझ ममता के पुत्र 'पुतले' को, (अन्धम्) = तत्त्वदर्शन करने में असमर्थ हुए-हुए को ज्ञान देकर (दुरितात्) = पाप से (अरक्षन्) = बचाते हैं। [२] (विश्ववेदाः) = सर्वज्ञ प्रभु (तान्) = उन (सुकृत:) = उत्तम कर्म में व्यापृत लोगों को ररक्ष रक्षित करता है। प्रभु से रक्षित हुए हुए इनको (दिप्सन्तः) = हिंसित करने की कामनावाले (रिपव:) = शत्रु (इत्) = भी अह निश्चय से (न देभुः) - हिंसित नहीं कर पाते। ये प्रभु का कार्य करते हैं, प्रभु इनका रक्षण करते हैं। इन प्रभु स्मरण करनेवालों को वासनाएँ पीड़ित नहीं कर पातीं।

    भावार्थ

    भावार्थ- ज्ञानी पुरुष ममता ग्रस्त कर्त्तव्यच्युत लोगों को ज्ञानोपदेश देकर पापों से बचाते हैं। इन ज्ञानियों का रक्षण प्रभु करते हैं।

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    विषय

    भृत्य वा अधीन शासक कैसे हों।

    भावार्थ

    ( ये ) जो (ते) तेरे ( पायवः ) नियुक्त रक्षक गण स्वयं ( मामतेयं ) ममता के भाव से अपनाये हुए ( अन्धं ) लोचनहीन अज्ञानी प्रजाजन को स्वयं ( पश्यन्तः ) यथार्थ ज्ञान से देखते हुए ( दुरितात् ) दुष्टाचरण और दुःखमार्ग में जाने से ( अरक्षन् ) बचा लेते हैं ( विश्ववेदाः ) सर्वज्ञ सर्वैश्वर्य का स्वामी तू ( तान् ) उन ( सुकृतः ) शुभ कर्मकारी लोगों को ( रक्ष ) सुरक्षित रख, उनको नियुक्त कर । जिससे ( दिप्सन्तः ) हिंसा करने के इच्छुक घात लगाने वाले ( रिपवः ) शत्रुगण ( इत् ) भी ( न अह ) कभी (देभुः) प्रजा का नाश कर सकें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ अग्नी रक्षोहा देवता ॥ छन्द:- १, २, ४, ५, ८ भुरिक् पंक्तिः। ६ स्वराट् पंक्तिः। १२ निचृत्पंक्तिः । ३, १०, ११, १५ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ विराट् त्रिष्टुप् । ७, १३ त्रिष्टुप् । १४ स्वराड् बृहती । पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजा ! जे लोक आपल्या प्रमाणेच इतरांच्या पदार्थांना जाणतात व आपल्या आत्म्याप्रमाणेच इतरांचे रक्षण करतात तेच विद्वान तुझे सेवक व्हावेत. ज्यामुळे शत्रूंचे बल नष्ट होईल. ॥ १३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, lord of universal knowledge and power, all those defensive powers of yours which, ever watchful and protective, save people from sin and protect them from evil and crime as their own kith and kin who cannot by themselves see, all those holy yajnic powers of noble action, O lord, protect and promote, so that the repressive enemies may not be able to terrorise the poor and the ignorant.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of the rulers is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king! the purifiers like the fire, know all the subjects. They protect the benevolent persons who lovingly preserve us from all troubles. They also protect a blind man from all calamities, so that hypocritic enemies may not be able to harm us in any way.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O king! your attendants should be only honest and truthful person who know each other and treat your articles (state property) as their own and protect others like their own lives, and their own kith and kin. Thus that strength of the adversaries may be destroyed soon.

    Translator's Notes

    Sri Sayanacharya, Prof. Wilson, Griffith and others have interpreted मामतेयम् as a Proper Noun of a blind sage named Deerghatamă, the son of Mamata, which is mere a fiction. In fact, the word मामतेयम् means love, as the word दीर्घतमा or anything of that kind has not even been mentioned in the mantra.

    Foot Notes

    (मामतेयम् ) मम भावो ममता तस्या इदम् । = Love. (दिप्सन्तः) दम्भभिच्छन्तः । Hypocrites.

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