ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 4/ मन्त्र 2
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - रक्षोहाऽग्निः
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
तव॑ भ्र॒मास॑ आशु॒या प॑त॒न्त्यनु॑ स्पृश धृष॒ता शोशु॑चानः। तपूं॑ष्यग्ने जु॒ह्वा॑ पत॒ङ्गानसं॑दितो॒ वि सृ॑ज॒ विष्व॑गु॒ल्काः ॥२॥
स्वर सहित पद पाठतव॑ । भ्र॒मासः॑ । आ॒शु॒ऽया । प॒त॒न्ति॒ । अनु॑ । स्पृ॒श॒ । धृ॒ष॒ता । शोशु॑चानः । तपूं॑षि । अ॒ग्ने॒ । जु॒ह्वा॑ । प॒त॒ङ्गान् । अस॑म्ऽदितः । वि । सृ॒ज॒ । विष्व॑क् । उ॒ल्काः ॥
स्वर रहित मन्त्र
तव भ्रमास आशुया पतन्त्यनु स्पृश धृषता शोशुचानः। तपूंष्यग्ने जुह्वा पतङ्गानसंदितो वि सृज विष्वगुल्काः ॥२॥
स्वर रहित पद पाठतव। भ्रमासः। आशुऽया। पतन्ति। अनु। स्पृश। धृषता। शोशुचानः। तपूंषि। अग्ने। जुह्वा। पतङ्गान्। असम्ऽदितः। वि। सृज। विष्वक्। उल्काः॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ राजविषये सामान्यतो राजजनविषयमाह ॥
अन्वयः
हे अग्ने ! ये तवाऽऽशुया भ्रमासः पतन्ति तान् धृषता शोशुचानोऽनुस्पृश जुह्वाग्निस्तपूंषीव पतङ्गाननु स्पृश। असन्दितः सन्नुल्का विष्वग्विसृज ॥२॥
पदार्थः
(तव) (भ्रमासः) भ्रमणानि (आशुया) क्षिप्राणि (पतन्ति) (अनु) (स्पृश) (धृषता) प्रगल्भेन सैन्येन (शोशुचानः) भृशं पवित्रः सन् (तपूंषि) प्रतप्तानि (अग्ने) पावकवद्वर्त्तमान (जुह्वा) होमसाधनेन (पतङ्गान्) अग्निकणा इव वर्त्तमानानश्वान् (असन्दितः) अखण्डितः (वि) (सृज) (विष्वक्) सर्वशः (उल्काः) विद्युतः ॥२॥
भावार्थः
ये राजजना स्फूर्त्तिमन्तः सन्त आशुकारिणः स्युस्तेऽखण्डितवीर्यो भूत्वा विद्युत्प्रयोगान् ब्रह्मास्त्राद्याञ्छत्रूणामुपरि कृत्वा विजयं प्राप्नुवन्तु ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
अब राज विषय में सामान्य से राजजनों के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) अग्नि के सदृश वर्त्तमान ! जो (तव) आपके (आशुया) शीघ्र (भ्रमासः) भ्रमण (पतन्ति) गिरते हैं, उनको (धृषता) प्रगल्भ सेना के साथ (शोशुचानः) अत्यन्त पवित्र हुए (अनु, स्पृश) स्पर्श करो और (जुह्वा) होम के साधन से अग्नि (तपूंषि) तपाये गये पदार्थों को जैसे वैसे (पतङ्गान्) अग्निकणों के सदृश वर्त्तमान घोड़ों को अनुकूलता से स्पर्श करो (असन्दितः) खण्डरहित हुए (उल्काः) बिजुलियों को (विष्वक्) सर्व प्रकार (वि, सृज) छोड़िये ॥२॥
भावार्थ
जो राजजन फुरतीवाले होते हुए शीघ्र कार्य्यकारी हों, वे अखण्डितवीर्य्य अर्थात् पूर्णबलवाले होकर बिजुली के प्रयोगों और ब्रह्मास्त्र आदि अस्त्रों को शत्रुओं के ऊपर कर विजय को प्राप्त हों ॥२॥
विषय
अभ्रः निरीक्षण तथा शत्रु संहार
पदार्थ
[१] हे राजन् ! (तव भ्रमास:) = तेरी गतियाँ [movements] [स ताननुपरिक्रामेत् सर्वानेव सदा स्वयम्-राजा स्वयं भ्रमण करके अध्यक्षों के कार्यों को देखनेवाला हो] (आशुया) = शीघ्रता से (पतन्ति) = होती हैं, अर्थात् तू राष्ट्र में स्वयं चक्कर लगाता हुआ सब के कार्यों को देखनेवाला होता है। (शोशुचान:) = खूब दीप्त होता हुआ तू (धृषता) = धर्षण सामर्थ्य से (अनुस्पृश) = सब का स्पर्श करनेवाला हो, अर्थात् जहाँ भी तू कमी देखे, उसे तू तत्काल दूर करनेवाला बन। [२] अवसर आने पर हे (अग्ने) = राष्ट्र की प्रगति के कारणभूत राजन् ! (जुह्वा) = अपनी शक्ति की अग्नि की ज्वालाओं के कारण [हूयते शत्रवः अस्यां] (असन्दितः) = न खण्डित हुआ हुआ तू (तपूंषि) = शत्रु-संतापक अस्त्रों को [तलवार आदि] (पतंगान्) = [पतन् गच्छति] आकाश में फेंके जाने पर गति करनेवाले वाण आदि को तथा (उल्का:) = उल्काओं की तरह प्रतीत होनेवाले बम्ब आदि [bombs] को (विष्वग्) = चारों ओर (विसृज) = विसृष्ट करनेवाला हो। इन त्रिविध अस्त्र शस्त्रों से तू शत्रुओं को सन्तप्त कर ।
भावार्थ
भावार्थ- राजा राष्ट्र में भ्रमण करके निरीक्षण करता हुआ बुराइयों को दूर करे। शत्रुओं को त्रिविध शस्त्रास्त्र से विनष्ट करने के लिये यत्नशील हो ।
विषय
राजा को बल सम्पादन का उपदेश, दुष्ट सन्तापक राजा वा सेना नायक के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे नायक ! ( अग्ने ) अग्नि के तुल्य तेजस्विन् ! ( भ्रमासः आशुया ) जिस प्रकार अग्नि के भ्रमणशील या वेग से जाने वाले किरण बड़ी तीव्र गति से दूर तक जाते हैं उसी प्रकार ( तव ) तेरे ( भ्रमासः ) भ्रमणशील शस्त्रास्त्र और सैनिकगण ( आशुया ) अति वेग से ( पतन्ति ) जावें । तू ( धृषता ) शत्रु को पराजय करने वाले बल से ( शोशुचानः ) खूब देदीप्यमान होता हुआ ( अनु स्पृश ) शत्रुओं के पीछे २ जा । और ( जुह्वा ) अपनी वाणी से ही ( असंदितः ) स्वयं अखण्डित और बन्धन रहित रहता हुआ तू ( विश्वक् ) सब ओर को (तपूंषि) तापजनक अस्त्र शस्त्र ( विसृज ) चला और ( पतङ्गान् ) अग्नि की ज्वाला से निकले तापों और स्फुलिङ्गों के समान ( पतङ्गान् विसृज ) वेग से जाने वाले अश्वारोहियों और वाणों को छोड़ और ( उल्काः ) आकाश से गिरने वाले चमकते तारों के समान तू सब ओर अपने चमकते अग्नि अस्त्र (विसृज) छोड़ ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ अग्नी रक्षोहा देवता ॥ छन्द:- १, २, ४, ५, ८ भुरिक् पंक्तिः। ६ स्वराट् पंक्तिः। १२ निचृत्पंक्तिः । ३, १०, ११, १५ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ विराट् त्रिष्टुप् । ७, १३ त्रिष्टुप् । १४ स्वराड् बृहती । पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे राजे स्फूर्तिवान, शीघ्र कार्य करणारे असतील त्यांनी पूर्णबलयुक्त बनून विद्युत प्रयोगाने ब्रह्मास्त्र इत्यादीच्या साह्याने शत्रूंवर विजय प्राप्त करावा. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Your roving rockets whirl round impetuously. Shining and blazing with power and force, strike off the enemies wherever they be. Unhurt, whole and unopposed, shoot out all round burning rockets of defence like sparks of fire fed on ladlefuls of ghrta offered into the fire of the vedi.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The normal duties of the government officers are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king ! your wanderings are swift and undertake them with vigilant army, being your self pure. Like with the ladle. the flames of the fire are touched, use (harness), your horses, which are like the sparks of the fire. Being inviable, scatter electric arms over the foes from all sides.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The officers of the State who are full of zest, zeal and prompt, should preserve their energy, and make use of electric and other powerful weapons over their enemies and achieve victory.
Foot Notes
(धृषता) प्रगल्भेन सैन्येन । = With the clever army. (पतङ्गान् ) अग्निकणा इव वर्त्तमानानश्वान् | = The horses which are like the sparks of the fire. (उल्काः ) विद्युतः । = Electric sparks.
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