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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 5/ मन्त्र 11
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - वैश्वानरः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ऋ॒तं वो॑चे॒ नम॑सा पृ॒च्छ्यमा॑न॒स्तवा॒शसा॑ जातवेदो॒ यदी॒दम्। त्वम॒स्य क्ष॑यसि॒ यद्ध॒ विश्वं॑ दि॒वि यदु॒ द्रवि॑णं॒ यत्पृ॑थि॒व्याम् ॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒तम् । वो॒चे॒ । नम॑सा । पृ॒च्छ्यमा॑नः । तव॑ । आ॒ऽशसा॑ । जा॒त॒ऽवे॒दः॒ । यदि॑ । इ॒दम् । त्वम् । अ॒स्य । क्ष॒य॒सि॒ । यत् । ह॒ । विश्व॑म् । दि॒वि । यत् ऊँ॒ इति॑ । द्रवि॑णम् । यत् । पृ॒थि॒व्याम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋतं वोचे नमसा पृच्छ्यमानस्तवाशसा जातवेदो यदीदम्। त्वमस्य क्षयसि यद्ध विश्वं दिवि यदु द्रविणं यत्पृथिव्याम् ॥११॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋतम्। वोचे। नमसा। पृच्छ्यमानः। तव। आऽशसा। जातऽवेदः। यदि। इदम्। त्वम्। अस्य। क्षयसि। यत्। ह। विश्वम्। दिवि। यत् । ऊम् इति। द्रविणम्। यत्। पृथिव्याम्॥११॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 5; मन्त्र » 11
    अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे जातवेदो ! यदि त्वं यद्ध दिवि विश्वं द्रविणं यत्पृथिव्यां यदु वाय्वादिषु वर्त्तते यत्र त्वं क्षयसि तस्यास्य तवाऽऽशसा नमसा पृच्छ्यमानोऽहं तर्हीदमृतं त्वां प्रतिवोचे ॥११॥

    पदार्थः

    (ऋतम्) सत्यम् (वोचे) वदेयमुपदिशेयं वा (नमसा) सत्कारेण (पृच्छ्यमानः) (तव) (आशसा) समन्तात् प्रशंसितेन (जातवेदः) जातप्रज्ञान (यदि) चेत् (इदम्) (त्वम्) (अस्य) (क्षयसि) निवससि (यत्) (ह) किल (विश्वम्) सर्वम् (दिवि) प्रकाशमाने परमात्मनि सूर्य्ये वा (यत्) (उ) (द्रविणम्) द्रव्यम् (यत्) (पृथिव्याम्) ॥११॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! यद् ब्रह्म सर्वत्र व्याप्तमस्ति यत्र सर्वं वसति तत्सत्यस्वरूपं युष्मान् प्रत्यहमुपदिशामि तदेवोपाध्वम् ॥११॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (जातवेदः) ज्ञान से विशिष्ट (यदि) यदि आप (यत्) जो (ह) निश्चयकर (दिवि) प्रकाशमान परमात्मा वा सूर्य्य में (विश्वम्) सम्पूर्ण (द्रविणम्) द्रव्य और (यत्) जो (पृथिव्याम्) पृथिवी में (यत्) जो (उ) और वायु आदि में वर्त्तमान है और जिसमें (त्वम्) आप (क्षयसि) रहते हो उस (अस्य) इन (तव) आपके (आशसा) सब प्रकार प्रशंसित (नमसा) सत्कार से (पृच्छ्यमानः) पूँछा गया मैं तो (इदम्) इस (ऋतम्) सत्य को आपके प्रति (वोचे) कहूँ वा उपदेश करूँ ॥११॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो ब्रह्म सब स्थान में व्याप्त है और जिसमें सम्पूर्ण पदार्थ वसते हैं, उस सत्यस्वरूप का आप लोगों के प्रति मैं उपदेश करता हूँ, उसी की उपासना करो ॥११॥

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    विषय

    ज्ञानम् अगर्वम्

    पदार्थ

    [१] ज्ञानी पुरुष कहता है कि (पृच्छ्यमानः) = औरों से प्रश्न किया जाता हुआ कि 'यह ज्ञान तुम्हें कहाँ से प्राप्त हुआ ?' (नमसा) = नम्रता से (ऋतं वोचे) = सत्य-सत्य यही कहता हूँ यदि (इदम्) = यदि यह ज्ञान मेरे में है तो (तव आशसा) = हे प्रभो! आपकी स्तुति के द्वारा ही है, अर्थात् प्रभु की उपासना से ही यह ज्ञान प्राप्त हुआ है 'ज्ञानं ज्ञानवतामहम्'। [२] वस्तुतः हे प्रभो ! (त्वम्) = आप ही (अस्य) = इसका (क्षयसि) = ऐश्वर्य करनेवाले हैं, इस ज्ञान धन के मालिक आप ही हैं । (यद्) = जो (ह) = निश्चय से (विश्वम्) = सम्पूर्ण (दिवि) = द्युलोक में, मस्तिष्क में ज्ञानरूप (द्रविणम्) = धन है और (यत्) = जो (पृथिव्याम्) = इस पृथिवी में, शरीर में शक्तिरूप धन है उस सब के आप ही ईश्वर हैं 'बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि' 'बलं बलवतां चाहम्' ।

    भावार्थ

    भावार्थ - ज्ञानी पुरुष ज्ञान का गर्व न करता हुआ उसे प्रभु का ही ऐश्वर्य मानता है। न ज्ञान का गर्व होता है न शक्ति का। यह दोनों को ईश्वर प्रभु का जानता है ।

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    विषय

    वाणी द्वारा शिष्य गुरु के ज्ञान को कैसे जाने ।

    भावार्थ

    मैं (नमसा) आदरपूर्वक (आशसा) अति प्रशंसित रूप से (पृच्छयमानः) पूछा जाऊं तो अवश्य हे (जातवेदः) विद्वन् ! (यदि इदम्) यह जो भी कुछ है सब (तव) तुझे (ऋतम् वोचे) सत्य ही बतलाऊं । अथवा हे (जातवेदः) परमात्मन् ! तेरे विषय में जब भी मैं आदर से प्रश्न किया जाऊं (तव आशसा) तेरे प्रशस्त ज्ञान से तो (ऋतं वोचे) सत्य वेद ज्ञान का ही उपदेश करूं । हे प्रभो ! (यत् विश्वम्) जो भी समस्त विश्व है, (यद् उ) जो कुछ (दिवि) आकाश में और (यत्) जो भी (पृथिव्याम्) पृथिवी में (द्रविणं) द्रविण, ऐश्वर्यादि और तेज गतिशील, सूर्यादि लोक और जल वायु आदि तत्व और ज्ञान है (अस्य) इसमें (त्वम् क्षयसि) तू ही सर्वत्र बस रहा है, तुझ से कुछ छिपा नहीं, इसलिये झूठ न बोलकर सदा सत्य ही कहूं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ वैश्वानरो देवता ॥ छन्दः– १ विराट् त्रिष्टुप। २, ५, ६, ७, ८, ११ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ४, ९, १२, १३, १५ त्रिष्टुप। १०, १४ भुरिक् पंक्तिः॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! जे ब्रह्म सर्व स्थानी व्याप्त आहे व ज्याच्यात संपूर्ण पदार्थ वसतात त्या सत्यस्वरूपाचा मी तुम्हाला उपदेश करतो, त्याचीच उपासना करा. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Jataveda, omniscient and omnipresent Agni, if I were asked, I would speak the truth in all humility by your grace: All this that is, all that exists in heaven, all that is in and on earth, all that is the wealth, power and excellence, all is yours, it abides in you, you pervade it all, you govern it all and, ultimately, you absorb it all by drawing in and reducing it to the point of zero.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    More about the inquisitor (desirous of knowledge).

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Omniscient God ! while cross- questioning with respect and in proper manner, I declare to the people the truth, that You are the Lord of all this wealth (power) etc., that is, in the resplendent sun, on the earth, in the air and other elements. You are Omnipresent and pervading all.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! I tell everyday about that God, Who is all-pervading and in which all dwell. He is absolutely true. You must always adore Him or have communion with Him.

    Foot Notes

    (जातवेदः) जातप्रज्ञान | = God the Omniscient Lord or a learned person. (क्षयसि ) निवससि । = Dwell. (दिवि) प्रकाशमाने परमात्मने सूखें वा । In the resplendent sun or in God. (आशसा ) समन्तात् प्रशंसितेन । = Proper manner admired on all sides. ( द्रविणम् ) धनम् । = Wealth, strength.

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