ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 5/ मन्त्र 4
प्र ताँ अ॒ग्निर्ब॑भसत्ति॒ग्मज॑म्भ॒स्तपि॑ष्ठेन शो॒चिषा॒ यः सु॒राधाः॑। प्र ये मि॒नन्ति॒ वरु॑णस्य॒ धाम॑ प्रि॒या मि॒त्रस्य॒ चेत॑तो ध्रु॒वाणि॑ ॥४॥
स्वर सहित पद पाठप्र । तान् । अ॒ग्निः । ब॒भ॒स॒त् । ति॒ग्मऽज॑म्भः । तपि॑ष्ठेन । शो॒चिषा॑ । यः । सु॒ऽराधाः॑ । प्र । ये । मि॒नन्ति॑ । वरु॑णस्य । धाम॑ । प्रि॒या । मि॒त्रस्य॑ । चेत॑तः । ध्रु॒वाणि॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र ताँ अग्निर्बभसत्तिग्मजम्भस्तपिष्ठेन शोचिषा यः सुराधाः। प्र ये मिनन्ति वरुणस्य धाम प्रिया मित्रस्य चेततो ध्रुवाणि ॥४॥
स्वर रहित पद पाठप्र। तान्। अग्निः। बभसत्। तिग्मऽजम्भः। तपिष्ठेन। शोचिषा। यः। सुऽराधाः। प्र। ये। मिनन्ति। वरुणस्य। धाम। प्रिया। मित्रस्य। चेततः। ध्रुवाणि॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 5; मन्त्र » 4
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
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अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सर्वसुखकरराजविषयमाह ॥
अन्वयः
योऽग्निरिव तिग्मजम्भस्तपिष्ठेन शोचिषा सुराधाः सन् ये चेततो वरुणस्य मित्रस्य प्रिया ध्रुवाणि धाम प्रमिणन्ति तान् प्र बभसत् स एव सर्वस्य सुखकरो जायते ॥४॥
पदार्थः
(प्र) (तान्) (अग्निः) पावक इव (बभसत्) दीप्येद्भर्त्सेत् (तिग्मजम्भः) तिग्मानि गात्रविनमनानि यस्य सः (तपिष्ठेन) अतिशयेन तापयुक्तेन (शोचिषा) तेजसा (यः) (सुराधाः) शोभनधनः (प्र) (ये) (मिनन्ति) हिंसन्ति (वरुणस्य) श्रेष्ठस्य (धाम) जन्मस्थाननामानि (प्रिया) कमनीयानि (मित्रस्य) सख्युः (चेततः) संज्ञापकस्य (ध्रुवाणि) निश्चलानि दृढानि ॥४॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा प्रदीप्तोऽग्निः प्राप्तशुष्कमार्द्रं च दहति तथैव यः स्वार्थिनः परस्य सुखविनाशकान् हन्ति स प्रशंसितो भवति ॥४॥
हिन्दी (1)
विषय
अब सुख को सुख करनेवाले राजविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
(यः) जो (अग्निः) अग्नि के सदृश (तिग्मजम्भः) तीक्ष्ण शरीर शिथिल करनेवाली जम्भवाईवाला (तपिष्ठेन) अत्यन्त ताप अर्थात् दीप्तियुक्त (शोचिषा) तेज से (सुराधाः) उत्तम धनवाले होते हुए (ये) जो लोग (चेततः) चैतन्य करानेवाले (वरुणस्य) श्रेष्ठ (मित्रस्य) मित्र के (प्रिया) सुन्दर और (ध्रुवाणि) निश्चल अर्थात् दृढ़ (धाम) जन्म, स्थान नामों का (प्र, मिनन्ति) नाश करते हैं, (तान्) उनको (प्र, बभसत्) तिरस्कार करे, वही सब को सुख करनेवाला होता है ॥४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे प्रदीप्त अग्नि प्राप्त हुए शुष्क और गीले पदार्थ को जलाता है, वैसे ही जो पुरुष अपने प्रयोजनसाधक स्वार्थी और अन्य पुरुष के सुखनाश करनेवालों को नाश करता है, वह प्रशंसित होता है ॥४॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा प्रदीप्त अग्नी शुष्क व ओल्या पदार्थांना जाळतो, तसेच जो पुरुष स्वार्थी व इतरांच्या सुखाचा नाश करणाऱ्यांचे हनन करतो त्याची प्रशंसा होते. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
May Agni, blazing lord of power and stern rule of law, commanding the wealth, power and prosperity of the world with his splendour and magnificence, crush with the heat of his power and force of his justice the dear favourites and strongholds of those who sabotage and destroy the stability of the systems and institutions of the noble and friendly powers of enlightenment, justice, peace, unity and cooperation.
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