ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 32/ मन्त्र 5
ऋषिः - गातुरात्रेयः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
त्यं चि॑दस्य॒ क्रतु॑भि॒र्निष॑त्तमम॒र्मणो॑ वि॒ददिद॑स्य॒ मर्म॑। यदीं॑ सुक्षत्र॒ प्रभृ॑ता॒ मद॑स्य॒ युयु॑त्सन्तं॒ तम॑सि ह॒र्म्ये धाः ॥५॥
स्वर सहित पद पाठत्यम् । चि॒त् । अस्य॑ । क्रतु॑ऽभिः । निऽस॑त्तम् । अ॒म॒र्मणः॑ । वि॒दत् । इत् । अ॒स्य॒ । मर्म॑ । यत् । ई॒म् । सु॒ऽक्ष॒त्र॒ । प्रऽभृ॑ता । मद॑स्य । युयु॑त्सन्तम् । तम॑सि । ह॒र्म्ये । धाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्यं चिदस्य क्रतुभिर्निषत्तममर्मणो विददिदस्य मर्म। यदीं सुक्षत्र प्रभृता मदस्य युयुत्सन्तं तमसि हर्म्ये धाः ॥५॥
स्वर रहित पद पाठत्यम्। चित्। अस्य। क्रतुऽभिः। निऽसत्तम्। अमर्मणः। विदत्। इत्। अस्य। मर्म। यत्। ईम्। सुऽक्षत्र। प्रऽभृता। मदस्य। युयुत्सन्तम्। तमसि। हर्म्ये। धाः ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 32; मन्त्र » 5
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 32; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 32; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ शिल्पविद्याविद्गुणानाह ॥
अन्वयः
हे सुक्षत्र राजन् ! भवानस्यामर्मणः क्रतुभिर्निषत्तं त्यं चिदस्य मदस्य प्रभृता यन्मर्मेद्विदत्तमीं युयुत्सन्तं तमसि हर्म्ये त्वं धाः ॥५॥
पदार्थः
(त्यम्) तम् (चित्) अपि (अस्य) शत्रोः (क्रतुभिः) प्रज्ञाभिः कर्मभिर्वा (निषत्तम्) निषष्णम् (अमर्मणः) अविद्यमानानि मर्माणि यस्य तस्य (विदत्) विन्देत (इत्) एव (अस्य) मेघस्य (मर्म) गुह्यावयवम् (यत्) यम् (ईम्) (सुक्षत्र) शोभनं क्षत्रं क्षत्रियकुलं धनं वा यस्य तत्सबुद्धौ। क्षत्रमिति धननामसु पठितम्। (निघं०२।१) (प्रभृता) प्रकर्षेण धारणे पोषणे वा (मदस्य) हर्षस्य (युयुत्सन्तम्) योद्धुमिच्छन्तम् (तमसि) रात्रौ (हर्म्ये) प्रासादे (धाः) धेहि ॥५॥
भावार्थः
ये पदार्थानां गुप्तानि स्वरूपाणि विज्ञाय प्रज्ञया शिल्पविद्यां वर्धयन्ति ते सुराज्यैश्वर्या भवन्ति ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
अब शिल्पविद्या के जाननेवाले विद्वान् के गुणों को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (सुक्षत्र) श्रेष्ठ क्षत्रियकुल वा धन से युक्त राजन् ! आप (अस्य) इस (अमर्मणः) मर्म की बातों से रहित शत्रु की (क्रतुभिः) बुद्वि वा कर्म्मों से (निषत्तम्) स्थित (त्यम्) उसको (चित्) तथा (अस्य) इस मेघ के और (मदस्य) आनन्द के (प्रभृता) अत्यन्त धारण करने वा पोषण करने में (यत्) जिस (मर्म) गुप्त अवयव को (इत्) ही (विदत्) प्राप्त होवे, उसको (ईम्) सब प्रकार प्राप्त हुए (युयुत्सन्तम्) युद्ध करने की इच्छा करते हुए को (तमसि) रात्रि में (हर्म्ये) प्रासाद के ऊपर आप (धाः) धारण कीजिये ॥५॥
भावार्थ
जो पदार्थों के गुप्त स्वरूपों को जान के बुद्धि से शिल्पविद्या की वृद्धि करते हैं, वे उत्तम राज्य और ऐश्वर्ययुक्त होते हैं ॥५॥
विषय
शत्रु को बन्दी कर लेने का उपदेश ।
भावार्थ
भा०-हे ( सु-क्षत्र ) उत्तम वीर्य वा बल से सम्पन्न राजन् ! ( त्वं ) तू ( क्रतुभिः ) अपनी प्रज्ञा या बुद्धियों से, ( अमर्पणः ) निर्बल मर्म स्थानों से रहित (अस्य) इस सन्मुख उपस्थित शत्रुजन के (नि-सतम् ) निश्चित रूप से विदित ( त्यं मर्म ) उस मर्म को ( विदत् ) जान ले ( यत् ) जिससे (मदस्य प्रभृता) मद के अधिक बढ़ जाने से (युयुत्सन्तं ) युद्ध की इच्छा करते हुए उसको तू ( तमसि हर्म्ये ) अन्धकारवत् कष्टदायी और उसके बल, पद के हरने वाले कारागार या बड़े प्रासाद में भी उसे (धाः ) बन्दी कर रख । अथवा युद्ध करना चाहते हुए को भी तू ( मदस्य प्रभृता ) तृप्तिकारक अन्न के बल पर ( तमसि हर्म्ये धाः ) रात्रिवत् सुखदायी प्रासाद में ही पड़े रहने दे । वह विलास में फंसा रहे तू उसके मर्म अपने हाथ में लिये रह ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गातुरत्रिय ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द: – १, ७, ९, ११ त्रिष्टुप् । २, ३, ४, १०, १२ निचृत्त्रिष्टुप् । ५, ८ स्वराट् पंक्तिः । भुरिक् पंक्तिः ॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
'अन्धकार-निवासी' वृत्र
पदार्थ
१. 'मर्म' शब्द के दो अर्थ हैं [क] [Truth] सत्य, तथा [Weak point] निर्बलता । वासना में सत्य नहीं, सो यह अमर्म है। चिन्तन करते ही यह नष्ट होती है, सो वही इसकी निर्बलता है, मर्म है। हे (सुक्षत्र) = उत्तम बलवाले इन्द्र (अमर्मणः) = सत्य से रहित अस्य = इस वृत्र [वासना] के (त्यम्) = उस (चित्) = निश्चय से (निःषत्तम्) = अन्दर गुप्त रूप से छिपे हुए (मर्म) = मर्मस्थल को (अस्य क्रतुभिः) = इस प्रभु के प्रज्ञानों से- हृदयस्थ प्रभु से दिये हुए प्रज्ञान के द्वारा - (विदद्) = जान लेता है। प्रभु का चिन्तन करते ही यह वासना विनष्ट हो जाती है। २. (यत्) = जब (ईम्) = निश्चय से ऐसा होता है अर्थात् प्रभु का चिन्तन चलता है तो (यदस्य) = आनन्द को प्राप्त करानेवाले सोम के (प्रभृता) = प्रकर्षेण धारण करने पर (युयुत्सन्तम्) = युद्ध की इच्छावाले इस वृत्र को (तमसि) = अन्धकारमय (हर्म्ये) = घर में (धाः) = तू स्थापित करता है । वृत्र तेरी शक्ति से भयभीत होकर अन्धकारमय स्थान में जा छिपता है। इस वाक्य प्रयोग से यह भी स्पष्ट है कि वासना का निवास वहीं होता है, जहाँ अन्धकार हो । प्रकाश में वासना विनष्ट हो जाती है।
भावार्थ
भावार्थ- सत्य से रहित वासना का मर्म [भेद] यही है कि प्रभु का चिन्तन हुआ और यह नष्ट हुई। प्रभु चिन्तन से सोम का रक्षण करनेवाले पुरुष को छोड़कर यह उन पुरुषों में निवास करती है जिनके हृदयों में प्रभु का प्रकाश नहीं - जहाँ अन्धकार है।
मराठी (1)
भावार्थ
जे पदार्थांच्या गुप्त स्वरूपाला जाणून बुद्धीने शिल्पविद्येची वृद्धी करतात ते उत्तम राज्य व ऐश्वर्य प्राप्त करतात. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O noble lord of the mighty social order, Indra, with your actions and intelligence you know and expose the hidden weakness of this otherwise incomprehensible demon thirsting for fight, and, happy and elated in the hope and thrill of victory, you shut him up in the depths of darkness.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal