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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 37 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 37/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अत्रिः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    व॒धूरि॒यं पति॑मि॒च्छन्त्ये॑ति॒ य ईं॒ वहा॑ते॒ महि॑षीमिषि॒राम्। आस्य॑ श्रवस्या॒द्रथ॒ आ च॑ घोषात्पु॒रू स॒हस्रा॒ परि॑ वर्तयाते ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व॒धूः । इ॒यम् । पति॑म् । इ॒च्छन्ती॑ । ए॒ति॒ । यः । ई॒म् । वहा॑ते । महि॑षीम् । इ॒षि॒राम् । आ । अ॒स्य॒ । श्र॒व॒स्या॒त् । रथः॑ । आ । च॒ । घो॒षा॒त् । पु॒रु । स॒हस्रा॑ । परि॑ । व॒र्त॒या॒ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वधूरियं पतिमिच्छन्त्येति य ईं वहाते महिषीमिषिराम्। आस्य श्रवस्याद्रथ आ च घोषात्पुरू सहस्रा परि वर्तयाते ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वधूः। इयम्। पतिम्। इच्छन्ती। एति। यः। ईम्। वहाते। महिषीम्। इषिराम्। आ। अस्य। श्रवस्यात्। रथः। आ। च। घोषात्। पुरु। सहस्रा। परि। वर्तयाते ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 37; मन्त्र » 3
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ युवावस्थाविवाहविषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वांसो ! यथेयं पतिमिच्छन्ती वधूर्हृद्यं स्वामिनमेति यो हि वधूयुः प्रियामिषिरां महिषीमेति यथा तौ सर्वं गृहकृत्यं वहाते तथेमग्निं संप्रयुक्तो रथो वाहयति सोऽस्याश्रवस्याद् घोषाच्च पुरू सहस्रा पर्या वर्त्तयाते ॥३॥

    पदार्थः

    (वधूः) भार्य्या (इयम्) (पतिम्) (इच्छन्ती) (एति) प्राप्नोति (यः) (ईम्) उदकं सर्वान् पदार्थान् वा (वहाते) वहेताम् (महिषीम्) महाशुभगुणाम् (इषिराम्) प्राप्नुवन्तीम् (आ) (अस्य) (श्रवस्यात्) य आत्मनः श्रव इच्छति तस्मात् (रथः) (आ) (च) (घोषात्) शब्दद्वारया (पुरू) बहूनि (सहस्रा) सहस्राणि (परि) सर्वतः (वर्त्तयाते) वर्त्तयेत। लेट् प्रथमैकवचन आडागमे णिजन्तस्य वर्त्तेः प्रयोगः ॥३॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा कृतब्रह्मचर्य्यो स्त्रीपुरुषौ परस्परं पतिभार्ये इच्छतः परस्परं संप्रीतौ हृद्यौ संयुक्तौ सन्तौ गृहाश्रमव्यवहारमलंकुरुतस्तथैव जलाग्नी संप्रयुक्तौ सर्वं व्यवहारं साधयतो बहुभ्यः क्रोशेभ्य आमुहूर्त्तादपि रथादिकं सद्यो गमयत इति सर्वैर्वेद्यम् ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब युवावस्थाविवाहविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वानो ! जैसे (इयम्) यह (पतिम्) पति की (इच्छन्ती) इच्छा करती हुई (वधूः) स्त्री प्रिय स्वामी को (एति) प्राप्त होती है और (यः) जो स्त्री को प्राप्त होनेवाला प्रिय (इषिराम्) प्राप्त होती हुई (महिषीम्) बहुत श्रेष्ठ गुणवाली स्त्री को प्राप्त होता है और जैसे वे दोनों सम्पूर्ण गृहकृत्य को (वहाते) चलावें वैसे (ईम्) जल वा सम्पूर्ण पदार्थों को अग्नि से चलाया गया (रथः) वाहन चलाता है वह (अस्य) इसके (आ, श्रवस्यात्) आत्मा के श्रवण की इच्छा करनेवाले से (घोषात् च) और शब्दद्वारा से (पुरू) बहुतों और (सहस्रा) हजारों के (परि) सब ओर (आ, वर्त्तयाते) अच्छे प्रकार वर्त्तमान है ॥३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जैसे किया ब्रह्मचर्य्य जिन्होंने ऐसे स्त्री और पुरुष परस्पर पति और स्त्रीभाव की इच्छा करते हैं तथा परस्पर प्रसन्न प्रिय होकर संयुक्त हुए गृहाश्रम के व्यवहार को उत्तम रीति से पूर्ण करते हैं, वैसे ही जल और अग्नि संप्रयुक्त किये गये सम्पूर्ण व्यवहार को सिद्ध करते हैं और बहुत कोशों से भी मुहूर्त्तमात्र से वाहन आदि को शीघ्र पहुँचाते हैं, यह सब को जानना चाहिये ॥३॥

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    विषय

    प्रजारक्षार्थ शासन ।

    भावार्थ

    भा०—( यः ) जो पुरुष ( ईम् ) इस ( इषिराम ) इच्छा से युक्त स्त्री को (महिषीम्) अपनी रानी वा अति सौभाग्यवती जानकर ( वहाते ) उससे विवाह करता है उसी पुरुष को जिस प्रकार ( इयं वधूः ) वह नववधू भी (पतिम् इच्छन्ती) अपना पति चाहती हुई (एति) उसे प्राप्त होती है । इसी प्रकार ( यः) जो वीर पुरुष ( इषिराम् ) इष्ट ऐश्वर्य देनेवाली वा इच्छावती (महिषीम् ) बड़े भारी ऐश्वर्य को देने और सेवने वाली इस भूमि का भार (वहाते) अपने कन्धों पर उठाता है वह वधूवत् उसको (पतिम् इच्छन्ती ) अपना पति, पालक, स्वामी बनाना चाहती हुई उसे ही प्राप्त होती है । वह राष्ट्र प्रजा (अस्य) इस राजा का ( आ श्रवस्यात्) यश चाहे । ( आघोषात् च ) प्रजा उसकी घोषणा भी सर्वत्र करे । और ( सहस्रा पुरू ) सहस्रों प्रजाजन (परि) उसके अधीन (वर्त्तयाते ) रहें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अत्रिर्ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:- १ निचृत्पंक्तिः । २ विराट्त्रिष्टुप् । ३, ४, ५ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    वधू का आगमन

    पदार्थ

    [१] वेदवाणी के साथ परिणय का उल्लेख 'परीमे गामनेषत' इस मन्त्रभाग में स्पष्ट है । (इयं वधूः) = यह वहन करने योग्य वेदवाणी रूप युवति (पतिं इच्छन्ती) = अपने रक्षक को चाहती हुई (एति) = आती है। वह पुरुष पति होता है, यह वेदवाणी उसकी पत्नी । पुरुष 'वर' है, वेदवाणी 'वधू' । [२] (यः) = जो (महिषीम्) = अत्यन्त महनीय, आदरणीय (इषिराम्) = निरन्तर कर्मों की प्रेरणा देनेवाली इस वेदवाणी रूप वधू का (ईम्) = निश्चय से (वहाते) = वहन करता है (अस्य) = इसका (रथ:) = यह शरीररूप रथ (श्रवस्यात्) = ज्ञान प्राप्ति की प्रबल कामनावाला होता है, (च) = और (आघोषात्) = प्रभु के नामों का खूब ही उच्चारण करता है। अर्थात् इसका मन प्रभु में लगा होता है, इसका मस्तिष्क स्वाध्याय द्वारा ज्ञानोज्ज्वल बनता है। इसका यह रथ इसे पुरू पालक व पूरक सहस्रा हजारों धनों को (परिवर्तयाते) = [प्रापयति] प्राप्त कराता है।

    भावार्थ

    भावार्थ– वेदवाणीरूप वधू का हम वरण करें। जिससे कि हमारा यह शरीररूप रथ ज्ञान के प्रकाशवाला हो, प्रभु के नामों के उच्चारणवाला हो । पालक व पूरक धनों को यह हमें प्राप्त कराये।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ब्रह्मचारी स्त्री-पुरुष परस्पर पती-पत्नी बनण्याची इच्छा प्रकट करून एकमेकांचे प्रिय बनून संयुक्तपणे गृहस्थाश्रम स्वीकारतात. तसेच जल व अग्नी संयुक्तपणे सर्व व्यवहार चालवितात व दूरदूरपर्यंत तातडीने वाहने नेतात हे सर्वांनी जाणावे. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Just as a loving bride goes to her groom and the bridegroom receives the consecrated bride, and both together run the home and take the family forward, so do fire and water mixed and working together drive the chariot and from the power and its revolution and thunderous roar many thousands of projects are moved forward.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The advantages of marriage in young age are enunciated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons ! as this bride desiring a bridegroom comes to beloved husband and the man desiring a bride, gets a dear and very virtuous wife. She approaches him, and then together both discharge the duties of the household life. In the same manner, the vehicle or transport (railways or train auto- mobile) built by a glorious scientist with the proper combination of fire and water takes men and goods thousands of miles with sound.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The young men and young women having completed their Brahmacharya period are desirous to be husbands and wives, discharge their domestic duties hand-in-hand and lovingly. In the same manner, fire and water when properly combined and used accomplish many purposes. They quickly take passengers to a distance of thousands of miles.

    Translator's Notes

    ईम इति उदकनाम (NG 1, 12) ईम इति पदनाम (NG 4, 2) पद गतौ । गते स्त्रिष्वर्थेषु प्राप्त्यर्थग्रहणं विशेषतः सुखप्रापकाः पदार्थाः (मह-पूजायाम्) (भ्वा० ) इष गतौ । गते स्त्रिष्वर्थेष्वत्र प्राप्त्यर्थग्रहणं कृत्वा इषिराम्- प्राप्नुवन्तीम् इति व्याख्या। = There is clear reference to steam engines and trains.

    Foot Notes

    (ईम् ) इति उदकं सर्वान् पदार्थान् वा । = To water or all articles. (महिषीम् ) महाशुभगुणाम् । = Endowed with many noble virtues. (इषिरम्) प्राप्नुवन्तीम्| = Approaching.

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