ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 54/ मन्त्र 5
तद्वी॒र्यं॑ वो मरुतो महित्व॒नं दी॒र्घं त॑तान॒ सूर्यो॒ न योज॑नम्। एता॒ न यामे॒ अगृ॑भीतशोचि॒षोऽन॑श्वदां॒ यन्न्यया॑तना गि॒रिम् ॥५॥
स्वर सहित पद पाठतत् । वी॒र्य॑म् । वः॒ । म॒रु॒तः॒ । म॒हि॒ऽत्व॒नम् । दी॒र्घम् । त॒ता॒न॒ । सूर्यः॑ । न । योज॑नम् । एताः॑ । न । यामे॑ । अगृ॑भीतऽशोचिषः । अन॑श्वऽदाम् । यत् । नि । अया॑तन । गि॒रिम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तद्वीर्यं वो मरुतो महित्वनं दीर्घं ततान सूर्यो न योजनम्। एता न यामे अगृभीतशोचिषोऽनश्वदां यन्न्ययातना गिरिम् ॥५॥
स्वर रहित पद पाठतत्। वीर्यम्। वः। मरुतः। महिऽत्वनम्। दीर्घम्। ततान। सूर्यः। न। योजनम्। एताः। न। यामे। अगृभीतऽशोचिषः। अनश्वऽदाम्। यत्। नि। अयातन। गिरिम् ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 54; मन्त्र » 5
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
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अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं वेदितव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे मरुतः ! सूर्यो योजनं न महित्वनं दीर्घं वस्तद्वीर्यं ततानागृभीतशोचिषो याम एता गतयो नानश्वदां गिरिं ददति। यद्यूयं न्ययातना तत्सर्वं वयं गृह्णीमः ॥५॥
पदार्थः
(तत्) (वीर्यम्) (वः) युष्माकम् (मरुतः) वायुवद्वर्त्तमानाः (महित्वनम्) महत्त्वम् (दीर्घम्) विशालम् (ततान) तनयति (सूर्यः) (नः) इव (योजनम्) युजन्ति येन तदाकर्षणाख्यम् (एताः) गतयः (न) इव (यामे) प्रहरे (अगृभीतशोचिषः) न गृहीतं शोचिस्तेजो यैस्ते (अनश्वदाम्) अविद्यमाना अश्वा तस्यां तां गतिम् (यत्) (नि) (अयातना) प्राप्नुत। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (गिरिम्) मेघम् ॥५॥
भावार्थः
ये सूर्यमेघगुणान्विदित्वा सामर्थ्यं धनं च वयन्ति ते परोपकारिणो भवन्ति ॥५॥
हिन्दी (2)
विषय
फिर मनुष्यों को क्या जानना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (मरुतः) वायु के सदृश वर्त्तमान मनुष्यो ! (सूर्यः) सूर्य्य (योजनम्) युक्त करते हैं जिससे उस आकर्षण नामक के (न) सदृश और (महित्वनम्) बड़प्पन को जैसे वैसे (दीर्घम्) विशाल (वः) आपके (तत्) उस (वीर्यम्) पराक्रम को (ततान) विस्तृत करता है और (अगृभीतशोचिषः) नहीं ग्रहण किया तेज जिन्होंने वे (यामे) प्रहर में (एताः) ये गमन (न) जैसे (अनश्वदाम्) नहीं घोड़े जिसमें उस गमन और (गिरिम्) मेघ को देते हैं और (यत्) जिसको आप लोग (नि, अयातना) प्राप्त हूजिये, उस सब को हम लोग ग्रहण करें ॥५॥
भावार्थ
जो लोग सूर्य और मेघों के गुणों को जान कर सामर्थ्य और धन को इकट्ठा करते हैं, वे परोपकारी होते हैं ॥५॥
विषय
विद्वानों के कर्त्तव्य । पक्षान्तर में वृष्टि लाने वाले वायुओं, मेघों और बिजुलियों की भौतिकविद्या का वर्णन । उनके दृष्टान्तों से नाना प्रकार के उपदेश ।
भावार्थ
भा०-हे ( मरुतः ) वीर, विद्वान् प्रजा जनो ! हे मनुष्यो ! (वः) आप लोगों का ( तत् ) वह अलौकिक ( वीर्य ) बल पराक्रम ( महित्वनम् ) बड़ा भारी है। जिस प्रकार ( सूर्यः न ) सूर्य भी अपने (योजनम् ) सब तक पहुंचने वाले ( दीर्घं ततान) प्रकाश को दूर २ तक विस्तृत करता है और जिस प्रकार ( एताः ) वेग से जाने वाले अश्व (यामे) मार्ग में (योजनं) योजन भर दूरी निकल जाते हैं उसी प्रकार आप लोग भी (योजनम् ) अपने २ प्रयोजन तथा उद्योग धन्धों के साथ अपना लगाव बनाते रहें, और ( अगृभीत-शोचिषः ) अग्नि की ज्वाला के समान असह्य तेज वाले होकर ( यामे) राज्यादि के नियन्त्रण में अपना ( योजनं ) लगाव बनाये रक्खो । और ( अनश्वदां गिरिम् ) किरणों को बाहर न जाने देने वाले मेघ को जिस प्रकार सूर्य छिन्न भिन्न करता है उसी प्रकार ( अनश्वदाम् गिरिम् ) अश्व सैन्य को मार्ग न देने वाले पर्वत के समान अचलवत् दृढ़ शत्रु को आक्रमण करते हुए ( नि अयातन ) सर्वथा पीड़ित करो ।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्दः- १, ३, ७, १२ जगती । २ विराड् जगती । ६ भुरिग्जगती । ११, १५. निचृज्जगती । ४, ८, १० भुरिक् त्रिष्टुप । ५, ९, १३, १४ त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे लोक सूर्य व मेघांचे गुण जाणून सामर्थ्य व धन प्राप्त करतात ते परोपकारी असतात. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
That lustre and splendour of yours, that extensive grandeur of yours radiates like the light and gravitation of the sun. Incomprehensible is the course of your radiations of energy which penetrates even the dark and densest clouds and mountains which are otherwise impenetrable.
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