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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 54 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 54/ मन्त्र 7
    ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः देवता - मरुतः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    न स जी॑यते मरुतो॒ न ह॑न्यते॒ न स्रे॑धति॒ न व्य॑थते॒ न रि॑ष्यति। नास्य॒ राय॒ उप॑ दस्यन्ति॒ नोतय॒ ऋषिं॑ वा॒ यं राजा॑नं वा॒ सुषू॑दथ ॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । सः । जी॒य॒ते॒ । म॒रु॒तः॒ । न । ह॒न्य॒ते॒ । न । स्रे॒ध॒ति॒ । न । व्य॒थ॒ते॒ । न । रि॒ष्य्त् । न । अ॒स्य॒ । रायः॑ । उप॑ । द॒स्य॒न्ति॒ । न । ऊ॒तयः॑ । र्षि॑म् । वा॒ । यम् । राजा॑नम् । वा॒ । सुसू॑दथ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न स जीयते मरुतो न हन्यते न स्रेधति न व्यथते न रिष्यति। नास्य राय उप दस्यन्ति नोतय ऋषिं वा यं राजानं वा सुषूदथ ॥७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न। सः। जीयते। मरुतः। न। हन्यते। न। स्रेधति। व्यथते। न। रिष्यति। न। अस्य। रायः। उप। दस्यन्ति। न। ऊतयः। ऋषिम्। वा। यम्। राजानम्। वा। सुसूदथ ॥७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 54; मन्त्र » 7
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेश्वरः कीदृशोऽस्तीत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे मरुतो ! स न जीयते न हन्यते न स्रेधति न व्यथते न रिष्यति अस्य न रायो नोतय उप दस्यन्ति यमृषिं वा राजानं वा यूयं सुषूदथ ॥७॥

    पदार्थः

    (न) (सः) जगदीश्वरः (जीयते) जितो भवति (मरुतः) मनुष्याः (न) (हन्यते) (न) (स्रेधति) न क्षीयते (न) (व्यथते) पीड्यते (न) (रिष्यति) हिनस्ति (न) (अस्य) (रायः) धनम् (उप) (दस्यन्ति) क्षयन्ति (न) (ऊतयः) रक्षणाद्याः (ऋषिम्) वेदार्थविदम् (वा) (यम्) (राजानम्) (वा) (सुषूदथ) रक्षथ ॥७॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! योऽजरोऽमरः सच्चिदानन्दस्वरूपो नित्यगुणकर्मस्वभावो जगदीश्वरोऽस्ति तं सर्वे यूयमुपाध्वम् ॥७॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    अब ईश्वर कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (मरुतः) मनुष्यो ! (सः) वह (न)(जीयते) जीता जाता (न)(हन्यते) नाश किया जाता (न)(स्रधेति) नाश होता (न)(व्यथते) पीड़ित होता और (न)(रिष्यति) हिंसा करता है (अस्य) इस का (न)(रायः) धन और (न)(ऊतयः) रक्षण आदि व्यवहार (उप, दस्यन्ति) नाश होते हैं (यम्) जिस (ऋषिम्) वेदार्थ के जाननेवाले (वा) अथवा (राजानम्) राजा को (वा) भी आप लोग (सुषूदथ) रखिये ॥७॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो वृद्धावस्था वा मरणावस्था रहित, सत्, चित् और आनन्दस्वरूप, नित्य गुण, कर्म्म और स्वभाववाला जगदीश्वर है, उसकी सब आप लोग उपासना करो ॥७॥

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    विषय

    कृषि व्यपारादि की आज्ञा ।

    भावार्थ

    भा०-हे ( मरुतः ) वीर पुरुषो ! एवं विद्वान् जनो ! (यं वा ) जिस (ऋषि) सर्वद्रष्टा, वेदार्थज्ञानी विद्वान् पुरुष वा ( राजानम् ) तेजस्वी, पुरुष को ( सु-सूदथ ) तुम लोग सुख वा आदरपूर्वक प्राप्त होते हो, जिसकी उपासना वा सत्संग करते हो, (सः) वह ( न जीयते ) कभी पराजित नहीं होता, ( न हन्यते ) कभी मारा नहीं जाता, ( न स्त्रेधति ) न नाश को प्राप्त होता है, ( न व्यथते ) न कभी पीड़ित होता है, ( न रिष्यति ) न हिंसा करता है । ( अस्य रायः) उसके धनादि ऐश्वर्य ( न उप दस्यन्ति ) कभी नाश को प्राप्त नहीं होते ! और (न ऊतयः उप दस्यन्ति) न उसके रक्षा साधन ही कभी नष्ट होते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्दः- १, ३, ७, १२ जगती । २ विराड् जगती । ६ भुरिग्जगती । ११, १५. निचृज्जगती । ४, ८, १० भुरिक् त्रिष्टुप । ५, ९, १३, १४ त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! जो वृद्धावस्था किंवा मरणावस्थारहित सत चित आनंदस्वरूप नित्य गुण कर्म स्वभावयुक्त जगदीश्वर आहे त्याची सर्वांनी उपासना करावी. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Maruts, divine powers of nature and brilliant leading lights of humanity, the person you protect and guide, mature, refine and temper is never overcome, nor killed, nor decays, fears or falls, nor hurts anyone. Nor do his powers, honours and excellence, defences and protections ever deplete and exhaust. Indeed, the person grows in knowledge as a sage and shines bright in splendour as a leader and ruler.

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