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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 55 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 55/ मन्त्र 9
    ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः देवता - मरुतः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    मृ॒ळत॑ नो मरुतो॒ मा व॑धिष्टना॒स्मभ्यं॒ शर्म॑ बहु॒लं वि य॑न्तन। अधि॑ स्तो॒त्रस्य॑ स॒ख्यस्य॑ गातन॒ शुभं॑ या॒तामनु॒ रथा॑ अवृत्सत ॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मृ॒ळत॑ । नः॒ । म॒रु॒तः॒ । मा । व॒धि॒ष्ट॒न॒ । अ॒स्मभ्य॑म् । शर्म॑ । ब॒हु॒लम् । वि । य॒न्त॒न॒ । अधि॑ । स्तो॒त्रस्य॑ । स॒ख्यस्य॑ । गा॒त॒न॒ । शुभ॑म् । या॒ताम् । अनु॑ । रथाः॑ । अ॒वृ॒त्स॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मृळत नो मरुतो मा वधिष्टनास्मभ्यं शर्म बहुलं वि यन्तन। अधि स्तोत्रस्य सख्यस्य गातन शुभं यातामनु रथा अवृत्सत ॥९॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मृळत। नः। मरुतः। मा। वधिष्टन। अस्मभ्यम्। शर्म। बहुलम्। वि। यन्तन। अधि। स्तोत्रस्य। सख्यस्य। गातन। शुभम्। याताम्। अनु। रथाः। अवृत्सत ॥९॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 55; मन्त्र » 9
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मरुतो ! यूयं नो मूळत मा वधिष्टनास्मभ्यं बहुलं शर्म वि यन्तनाधि स्तोत्रस्य सख्यस्य शुभं गातन ये यातां रथा अवृत्सत ताननु गच्छथ ॥९॥

    पदार्थः

    (मृळत) सुखयत (नः) अस्मान् (मरुतः) विद्वांसः (मा) (वधिष्टन) (अस्मभ्यम्) (शर्म) सुखं गृहं वा (बहुलम्) (वि) (यन्तन) वियच्छत (अधि) (स्तोत्रस्य) प्रशंसितस्य (सख्यस्य) सख्युर्भावस्य (गातन) प्रशंसत (शुभम्) (याताम्) (अनु) (रथाः) (अवृत्सत) ॥९॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्विद्वद्भ्यः प्रार्थयित्वा शुभा गुणा ग्राह्याः सर्वत्र मैत्रीं भावयित्वा सर्वार्थं सुखमनुगम्येत ॥९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (मरुतः) विद्वानो ! आप लोग (न) हम लोगों को (मृळत) सुखी करिये किन्तु (मा) मत (वधिष्टन) नष्ट करिये और (अस्मभ्यम्) हम लोगों के लिये (बहुलम्) बहुत (शर्म) सुख वा गृह (वि, यन्तन) विशेष करके दीजिये और (अधि, स्तोत्रस्य) अधिक प्रशंसित (सख्यस्य) मित्रपने के (शुभम्) सुख की (गातन) प्रशंसा करिये और जो (याताम्) प्राप्त होते हुओं के (रथाः) वाहन (अवृत्सत) वर्त्तमान हैं, उनके (अनु) अनुगामी हूजिये ॥९॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि विद्वानों से प्रार्थना करके श्रेष्ठ गुणों को ग्रहण करें और सब जगह मित्रता करके सब के लिये सुख प्राप्त कराया जावे ॥९॥

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    विषय

    मरुतों,वीरों का वर्णन उनके कर्तव्य ।

    भावार्थ

    भा०-हे ( मरुतः ) विद्वान् लोगो ! हे वीर पुरुषो ! आप लोग (नः) हमें (मृळत ) सुखी करो । ( मा वधिष्टन ) हमारा बध मत करो, हमें पीड़ित मत करो । ( अस्मभ्यं ) हमारे लिये ( बहुलं शर्म ) बहुत सुख, गृह शरण आदि ( वि यन्तन ) विविध प्रकारों से दिया करो । ( स्तोत्रस्य सख्यस्य ) उत्तम प्रशंसनीय मैत्रीभाव को ( अधि गातन ) सर्वोपरि उपदेश किया करो। (शुभं याताम् अनु ) शुभ मार्ग वा उद्देश्य पर जाने वालों के ( अनु ) पीछे २ ( रथाः) उत्तम रथों के समान सन्मार्ग पर ( अवृत्सत ) सदा चलते रहा करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः । मरुतो देवताः ॥ छन्द:-१, ५ जगती । २, ४, ७, ८ निचृज्जगती । ९ विराड् जगती । ३ स्वराट् त्रिष्टुप । ६, १० निचृत् त्रिष्टुप् ॥ दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    प्राण हमें प्रभु का स्तोता व मित्र बनाएँ

    पदार्थ

    [१] हे (मरुतः) = प्राणो ! (नः मृडत) = हमें सुखी करो। (मा वधिष्टन) = हमें रोगों से हिंसित मत होने दो। प्राणसाधना द्वारा हम नीरोग शरीरवाले बनें । हे प्राणो! इस प्रकार नीरोगता प्राप्त कराके (अस्मभ्यम्) = हमारे लिये (बहुलं शर्म) = खूब ही सुख को (वियन्तन) = प्राप्त कराओ। [२] हे प्राणो ! आप (स्तोत्रस्य) = प्रभु स्तवन का तथा (सख्यस्य) = प्रभु के साथ मैत्री का (अधिगातन) आधिक्येन प्राप्त करनेवाले होवो। आपकी साधना से हमारा झुकाव प्रभु स्तवन की ओर हो और हम प्रभु की मैत्री को प्राप्त करनेवाले हों। (शुभं याताम्) = इस प्रकार शुभ मार्ग की ओर चलते हुए आपके (रथाः) = ये शरीरस्थ (अनु अवृत्सत) = अनुकूल वर्तनवाले हों। वस्तुतः प्रभु स्तवन व प्रभु की मैत्री हमें भोग मार्ग से ऊपर उठाती है और हम क्षीण-शक्तिवाले न होकर सदा स्वस्थ शरीरवाले बने रहते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ – प्राणसाधना से हम रोगाक्रान्त न होकर सुखी बने रहते हैं। यह प्राणसाधना हमें स्तवन की वृत्तिवाला तथा प्रभु का मित्र बनाती है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी विद्वानांची प्रार्थना करून शुभ गुण स्वीकारावे. सर्वांशी मैत्री करून सर्वांच्या सुखासाठी झटावे. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Maruts, leading lights of life, rulers of the earth and travellers of the sky and spaces, give us peace and comfort. Hurt us not. Bring us abundant joy in a happy home. Come, listen and accept our song of friendship and adoration, and show us the right path. Let the chariots roll on with the leading light of knowledge, love and adventure for the good of all life on earth.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The characteristics of ideal persons are stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O highly learned persons ! make us happy. Do not strike at us. Give us your manifold happiness and dwelling places. Praise the admired friendship. Follow the vehicles that accompany those who tread upon the path of righteousness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should pray to the scholars and take their virtues. They should have friendship with all and should desire and try to bring about happiness to all.

    Foot Notes

    (शर्म ) सुखं गृहं वा । शर्मेति सुखनाम (NG 3, 6) शर्मेति गृहनाम (NG 3, 4)। = Happiness or dwelling place. (गातन) प्रशंसत । गा -स्तुतौ (जु० ) । = Praise. (मरुतः ) विद्वांसो मनुष्याः । मरुत इति ऋत्विङ्-नाम (NG 3, 15) मरुतः मितराविण: ( NKT 11, 2, 14 ) मित भाषिणो ऋत्विजों विद्वांसः । = Highly learned persons.

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