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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 59 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 59/ मन्त्र 5
    ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः देवता - मरुतः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    अश्वा॑इ॒वेद॑रु॒षासः॒ सब॑न्धवः॒ शूरा॑इव प्र॒युधः॒ प्रोत यु॑युधुः। मर्या॑इव सु॒वृधो॑ वावृधु॒र्नरः॒ सूर्य॑स्य॒ चक्षुः॒ प्र मि॑नन्ति वृ॒ष्टिभिः॑ ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अश्वाः॑ऽइव । इत् । अ॒रु॒षासः॑ । सऽब॑न्धवः । शूराः॑ऽइव । प्र॒ऽयुधः॑ । प्र । उ॒त । यु॒यु॒धुः॒ । मर्याः॑ऽइव । सु॒ऽवृधः॑ । व॒वृ॒धुः॒ । नरः॑ । सूर्य॑स्य । चक्षुः॑ । प्र । मि॒न॒न्ति॒ । वृ॒ष्टिऽभिः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्वाइवेदरुषासः सबन्धवः शूराइव प्रयुधः प्रोत युयुधुः। मर्याइव सुवृधो वावृधुर्नरः सूर्यस्य चक्षुः प्र मिनन्ति वृष्टिभिः ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अश्वाःऽइव। इत्। अरुषासः। सऽबन्धवः। शूराऽइव। प्रऽयुधः। प्र। उत। युयुधुः। मर्याःऽइव। सुऽवृधः। ववृधुः। नरः। सूर्यस्य। चक्षुः। प्र। मिनन्ति। वृष्टिऽभिः ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 59; मन्त्र » 5
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वांसो ! सबन्धवो नरो भवन्तोऽरुषासोऽश्वाइवेत् सद्यो गच्छन्तूत प्रयुधः शूराइव प्र युयुधुः सुवृधो मर्याइव वावृधुर्वायवः सूर्य्यस्य चक्षुर्वृष्टिभिरिव शत्रुसेनाः प्र मिनन्ति ते सत्कर्त्तव्याः सन्ति ॥५॥

    पदार्थः

    (अश्वाइव) तुरङ्गा इव (इत्) (अरुषासः) रक्तादिगुणविशिष्टाः (सबन्धवः) समाना बन्धवो येषान्ते (शूराइव) शूरवत् (प्रयुधः) ये प्रकर्षेण युध्यन्ते (प्र) (उत) (युयुधुः) सङ्ग्रामं कुर्युः (मर्याइव) मनुष्यवत् (सुवृधः) ये सुष्ठु वर्धन्ते ते (वावृधुः) वर्धन्ताम् (नरः) नायकाः (सूर्यस्य) सवितृदेवस्य (चक्षुः) चष्टे येन तत् (प्र) (मिनन्ति) हिंसन्ति (वृष्टिभिः) वर्षाभिः ॥५॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । येऽश्वद्बलिष्ठाः शूरवन्निर्भया मनुष्यवद्विचारशीलाः सूर्यवदविद्याऽन्धकारनिवारकाः सन्ति ते सर्वस्य कल्याणाय भवन्ति ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वान् जनो ! (सबन्धवः) तुल्य बन्धु जिनके ऐसे (नरः) नायक आप लोग (अरुषासः) रक्त आदि गुणों से विशिष्ट (अश्वाइव, इत्) घोड़ों के सदृश ही शीघ्र चलिये (उत) और (प्रयुधः) अत्यन्त युद्ध करनेवाले (शूराइव) शूरवीरों के सदृश (प्र, युयुधुः) अत्यन्त युद्ध करिये तथा (सुवृधः) उत्तम प्रकार बढ़नेवाले (मर्याइव) मनुष्यों के सदृश (वावृधुः) बढ़िये और पवन (सूर्यस्य) सूर्य्य देव के (चक्षुः) देखता जिससे उसको (वृष्टिभिः) वर्षाओं से जैसे वैसे शत्रुओं की सेनाओं को (प्र, मिनन्ति) अत्यन्त नाश करते हैं, वे सत्कार करने योग्य हैं ॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जो घोड़ों के सदृश बलिष्ठ, शूरवीरों के सदृश भयरहित, मनुष्यों के सदृश विचारशील और सूर्य के सदृश अविद्यारूपी अन्धकार के निवारक हैं, वे सब के कल्याण के लिये होते हैं ॥५॥

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    विषय

    वीरों को सुव्यवस्थित होकर युद्ध करने का उपदेश ।

    भावार्थ

    भा० - वे वीर और विद्वान् पुरुष ( अश्वाः इव ) वेगवान् घोड़ों वा घुड़सवारों के समान ( अरुषासः ) लाल वर्णों की पोषाकों वाले, वा तेजस्वी अथवा रोषरहित, ( स बन्धवः ) समान रूप से परस्पर बन्धुवत् वा एक ही नायक के अधीन एक साथ समान रूप से बंधे हुए, , वे (शूराः इव ) शूरवीर योद्धाओं के समान (प्र-युधः ) अच्छी प्रकार प्रहार करने में समर्थ होकर ( युयुधुः ) युद्ध करें। वे ( नरः ) नायक पुरुष ( मर्या: इव ) मनुष्यों के समान ( सु-वृधः ) प्रजाओं की वृद्धि करते हुए स्वयं भी ( ववृधुः ) बढ़ें। ( वृष्टिभिः ) वर्षाओं से जिस प्रकार वायुगण ( सूर्यस्य चक्षुः प्रमिनन्ति) सूर्यादि के प्रकाशक तेज को नष्ट करती हैं उसी प्रकार वे भी ( वृष्टिभिः ) शस्त्रास्त्र वर्षाओं द्वारा संग्राम में (सूर्यस्य ) सूर्य के समान तेजस्वी शत्रु जन के ( चक्षुः ) आंखों को ( प्र मिनन्ति ) अच्छी प्रकार नाश करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्द:- १, ४ विराड् जगती । २, ३, ६ निचृज्जगती । ५ जगती । ७ स्वराट् त्रिष्टुप् । ८ निचृत् त्रिष्टुप् ॥

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    विषय

    विज्ञानमय कोश से भी ऊपर

    पदार्थ

    [१] ये प्राण (अश्वाः इव) = सततगामी अश्वों के समान (अरुषासः) = आरोचमान हैं। प्राणों के कारण शरीर में गति व दीप्ति है । (उत) = और (प्रयुधः शूराः इव) = प्रकृष्ट युद्ध करनेवाले शूरों के समान ये प्राण प्र युयुधुः शरीर में रोगों व वासनाओं से खूब ही युद्ध करते हैं। [२] (सुवृधः) = उत्तमताओं का वर्धन करनेवाले (मर्याः इव) = मनुष्यों के समान ये (नरः) = उन्नति पथ पर ले चलनेवाले प्राण (वावृधुः) = खूब ही वृद्धिवाले होते हैं। शरीर में सब वृद्धि इन प्राणों के कारण है। ये प्राण (वृष्टिभिः) = आनन्द के वर्षणों के द्वारा (सूर्यस्य चक्षुः) सूर्य के प्रकाश को भी (प्रमिनन्ति) = छोटा कर देते हैं [मिनन्ति = diminish], अर्थात् विज्ञानमयकोश से भी हमें ऊपर उठाकर आनन्दमयकोश में प्राप्त कराते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राण सब गतियों का कारण हैं। ये ही शत्रुओं का विनाश करते हैं। वृद्धि का कारण बनते हुए ये प्राण हमें विज्ञानमयकोश से ऊपर उठाकर आनन्दमयकोश में प्राप्त कराते हैं ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे घोड्याप्रमाणे बलवान, शूराप्रमाणे निर्भय, मानवाप्रमाणे विचारशील व सूर्याप्रमाणे अविद्यारूपी अंधःकाराचे निवारक असतात ते सर्वांचे कल्याणकर्ते असतात. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Maruts, leading lights of the world, sanguine and bold, you are ever going forward like horses on the course, uninterrupted. Brotherly and friendly toward all equally, fighting like warriors for all, you are always struggling for a better world. Rising and growing like mortal life forms, you are evolving continuously. And with the torrents of rain you dim the blazing light of the sun in mist.

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