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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 6/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वसुश्रुत आत्रेयः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिग्बृहती स्वरः - मध्यमः

    प्रो त्ये अ॒ग्नयो॒ऽग्निषु॒ विश्वं॑ पुष्यन्ति॒ वार्य॑म्। ते हि॑न्विरे॒ त इ॑न्विरे॒ त इ॑षण्यन्त्यानु॒षगिषं॑ स्तो॒तृभ्य॒ आ भ॑र ॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रो इति॑ । त्ये । अ॒ग्नयः॑ । अ॒ग्निषु॑ । विश्व॑म् । पु॒ष्य॒न्ति॒ । वार्य॑म् । ते । हि॒न्वि॒रे॒ । ते । इ॒न्वि॒रे॒ । ते । इ॒ष॒ण्य॒न्ति॒ । आ॒नु॒षक् । इष॑म् । स्तो॒तृऽभ्यः॑ । आ । भ॒र॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रो त्ये अग्नयोऽग्निषु विश्वं पुष्यन्ति वार्यम्। ते हिन्विरे त इन्विरे त इषण्यन्त्यानुषगिषं स्तोतृभ्य आ भर ॥६॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रो इति। त्ये। अग्नयः। अग्निषु। विश्वम्। पुष्यन्ति। वार्यम्। ते। हिन्विरे। ते। इन्विरे। ते। इषण्यन्ति। आनुषक्। इषम्। स्तोतृऽभ्यः। आ। भर ॥६॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 6; मन्त्र » 6
    अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! येऽग्नयोऽग्निषु वर्त्तन्ते त्ये वार्यं विश्वं प्रो पुष्यन्ति ते वार्यं हिन्विरे त इन्विरे ते साधकाः सन्ति तान् विदित्वा य आनुषगिषण्यन्ति तद्विद्यया स्तोतृभ्यस्त्वमिषमा भर ॥६॥

    पदार्थः

    (प्रो) (त्ये) ते (अग्नयः) पावकाः (अग्निषु) अग्न्यादिपदार्थेषु (विश्वम्) सर्वं जगत् (पुष्यन्ति) (वार्यम्) वरणीयम् (ते) (हिन्विरे) वर्द्धयन्ति (ते) (इन्विरे) व्याप्नुवन्ति (ते) (इषण्यन्ति) अन्नादिकमिच्छन्ति (आनुषक्) आनुकूल्ये (इषम्) विज्ञानम् (स्तोतृभ्यः) (आ) (भर) ॥६॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! ये पृथिव्यादिष्वग्न्यादयः पदार्थाः सन्ति तान् विदित्वा पुनरीश्वरं विजानीत ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (अग्नयः) अग्नि (अग्निषु) अग्नि आदि पदार्थों में वर्त्तमान हैं (त्ये) वे (वार्यम्) स्वीकार करने योग्य (विश्वम्) सब जगत् को (प्रो, पुष्यन्ति) पुष्ट करते हैं (ते) वे स्वीकार करने योग्य पदार्थ की (हिन्विरे) वृद्धि कराते हैं (ते) वे (इन्विरे) व्याप्त होते हैं और (ते) वे कार्य्यों के सिद्ध करनेवाले हैं, उनको जान के जो (आनुषक्) अनुकूलता से (इषण्यन्ति) अन्न आदि की इच्छा करते हैं, उनकी विद्या से (स्तोतृभ्यः) स्तुति करनेवालों के लिये आप (इषम्) विज्ञान को (आ, भर) धारण कीजिये ॥६॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो पृथिवी आदि में अग्नि आदि पदार्थ हैं, उनको जान के फिर ईश्वर को जानो ॥६॥

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    विषय

    यज्ञाग्निवत् अग्नि, राजाग्नि का वर्णन

    भावार्थ

    भा०-जिस प्रकार ( अग्नयः अग्निषु वार्यं पुष्यन्ति ) ये सामान्य अग्नियें उन सूर्य आदि अग्नियों के आश्रय ही इस जगत् को पुष्ट करते हैं और जिस प्रकार ज्ञानी पुरुष अग्नि, विद्युत् आदि पदार्थों के आधार पर ही उत्तम ऐश्वर्य की वृद्धि करते हैं उसी प्रकार ( त्ये ) वे ( अग्नयः ) अग्रणी नेता लोग (अग्निषु ) अपने अग्रनायक पूर्वगामी विद्वान् पुरुषों के आश्रय और उनके अधीन रहकर (विश्वं वार्यम् ) समस्त वरणीय उत्तम ज्ञान, धन की वृद्धि करते हैं । (ते) वे ही ( हिन्विरे ) औरों को प्रसन्न तृप्त और पुष्ट करते, और ( ते इन्विरे ) विद्याओं में आगे बढ़ते और (ते ) वे ही ( आनुषक् ) सदा प्रकृति के अनुकूल, एवं एक दूसरे का विरोध न करके एक दूसरे के प्रति प्रेमपूर्वक रहकर ( इषण्यन्ति ) अन्नादि इच्छानुकूल पदार्थों की कामना करते हैं । हे विद्वन् ! तू ( स्तोतृभ्यः ) ऐसे विद्वानों को ( इषम् आ भर ) अन्न वा ज्ञान प्राप्त करा ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसुश्रुत आत्रेय ऋषिः ॥ अग्निदेवता ॥ छन्द:- १, ८, ९ निचृत्पंक्ति: । २, ५ पंक्ति: । ७ विराट् पंक्ति: । ३, ४ स्वराड्बृहती । ६, १० भुरिग्बृहती ॥

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    विषय

    हिन्विरे-इन्विरे-इषण्यन्ति

    पदार्थ

    [१] (उ) = निश्चय से (त्ये) = वे ही (अग्नयः) = प्रगतिशील जीव हैं, जो (अग्निषु) = माता-पिता व आचार्यरूप अग्नियों में रहते हुए, इन अग्नियों की उपासना करते हुए, (विश्वम्) = सब (वार्यम्) = वरणीय धनों को (प्रपुष्यन्ति) = अपने में प्रकर्षेण पुष्ट करते हैं। माता के सम्पर्क में 'चरित्र' को, पिता से 'सदाचार' को तथा आचार्य से ये 'ज्ञान' को प्राप्त करते हैं । [२] (ते) = वे 'चरित्र सदाचार व ज्ञान' को प्राप्त करनेवाले व्यक्ति (हिन्विरे) = [cast, throw] सब बुराइयों को अपने से दूर फेंकते हैं, (ते इन्विरे) = [pervade] अच्छाइयों का वे व्यापन करते हैं। बुराइयों के स्थान में अच्छाइयों को अपने में भरते हैं। इस प्रकार ते वे (आनुषक्) = निरन्तर (इषण्यन्ति) = [strengthen] अपने को शक्तिशाली बनाते हैं। (स्तोतृभ्यः) = इन स्तोताओं के लिये (इषं आभर) = प्रेरणा को प्राप्त कराइये ।

    भावार्थ

    भावार्थ- माता, पिता व आचार्य से 'चरित्र, सदाचार व ज्ञान' रूप वरणीय वस्तुओं को प्राप्त करें। बुराइयों को दूर करके अच्छाइयों को अपने अन्दर भरें और इस प्रकार अपने को शक्तिशाली बनायें। इस प्रकार प्रभु का स्तवन करनेवाले हमारे लिये प्रभु प्रेरणा को प्राप्त करायें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! पृथ्वी इत्यादी पदार्थातील अग्नी इत्यादी पदार्थांना जाणून नंतर ईश्वराला जाणा ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Those radiations of your energy into other forms of energies feed, invigorate and develop the wealth and growth of life in existence. They inspire, impel and collect, they expel, expand and organise, and thus they animate the circuitous dynamics of centripetal and centrifugal forces in systemic unison of the universe. O living power, create and bring food and energy for the celebrants.

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