Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 62 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 62/ मन्त्र 2
    ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः देवता - रथवीतिर्दाल्भ्यः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    तत्सु वां॑ मित्रावरुणा महि॒त्वमी॒र्मा त॒स्थुषी॒रह॑भिर्दुदुह्रे। विश्वाः॑ पिन्वथः॒ स्वस॑रस्य॒ धेना॒ अनु॑ वा॒मेकः॑ प॒विरा व॑वर्त ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । सु । वा॒म् । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । म॒हि॒ऽत्वम् । ई॒र्मा । त॒स्थुषीः॑ । अह॑ऽभिः । दु॒दु॒ह्रे॒ । विश्वाः॑ । पि॒न्व॒थः॒ । स्वस॑रस्य । धेनाः॑ । अनु॑ । वा॒म् । एकः॑ । प॒विः । आ । व॒व॒र्त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तत्सु वां मित्रावरुणा महित्वमीर्मा तस्थुषीरहभिर्दुदुह्रे। विश्वाः पिन्वथः स्वसरस्य धेना अनु वामेकः पविरा ववर्त ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत्। सु। वाम्। मित्रावरुणा। महिऽत्वम्। ईर्मा। तस्थुषीः। अहऽभिः। दुदुह्रे। विश्वाः। पिन्वथः। स्वसरस्य। धेनाः। अनु। वाम्। एकः। पविः। आ। ववर्त ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 62; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 30; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ मित्रावरुणगुणानाह ॥

    अन्वयः

    हे मित्रावरुणा ! वां यन्महित्वमीर्मा रक्षति तद्युवां पिन्वथो यथाऽहभिः किरणास्तस्थुषीः स दुदुह्रे स्वसरस्य मध्ये वां विश्वा धेनाः पिन्वथस्तथैकः पविरन्वाऽऽववर्त्त ॥२॥

    पदार्थः

    (तत्) (सु) ( (वाम्) युवयोः (मित्रावरुणा) प्राणोदानवदध्यापकोपदेशकौ (महित्वम्) महत्त्वम् (ईर्मा) (तस्थुषीः) स्थिराः (अहभिः) दिनैः (दुदुह्रे) प्रपूरयन्ति (विश्वाः) सर्वाः (पिन्वथः) प्रीणयतम् (स्वसरस्य) दिनस्य (धेनाः) वाचः (अनु) (वाम्) युवाम् (एकः) असहायः (पविः) पवित्रो व्यवहारः (आ) (ववर्त्त) ॥२॥

    भावार्थः

    हे अध्यापकोपदेशकौ ! युवां मनुष्यान् रात्र्यहर्प्राणोदानविद्युद्विद्या ग्राहयतं यतः सर्वाः प्रजा आनन्दिताः स्युः ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (2)

    विषय

    अब मित्रावरुण के गुणों को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (मित्रावरुणा) प्राण और उदान वायु के सदृश अध्यापक और उपदेशक जनो ! (वाम्) आप दोनों के जिस (महित्वम्) महत्त्व की (ईर्मा) निरन्तर चलनेवाला रक्षा करता है (तत्) उसकी आप दोनों (पिन्वथः) तृप्ति कीजिये और जैसे (अहभिः) दिनों से किरणें (तस्थुषीः) स्थिर वेलाओं को (सु) उत्तम प्रकार (दुदुह्रे) पूर्ण करते हैं और (स्वसरस्य) दिन के मध्य में (वाम्) आप दोनों (विश्वाः) सम्पूर्ण (धेनाः) वाणियों को तृप्त कीजिये वैसे (एकः) सहायरहित केवल एक (पविः) पवित्र व्यवहार (अनु) अनुकूल (आ) (ववर्त) वर्तमान हो ॥२॥

    भावार्थ

    हे अध्यापक और उपदेशक जनो ! आप दोनों मनुष्यों को रात्रि-दिन, प्राण, उदान और बिजुली की विद्याओं को ग्रहण कराइये, जिससे सम्पूर्ण प्रजायें आनन्दित होवें ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    राजा प्रजावर्ग, पुरुष शिष्यों को उपदेश ।

    भावार्थ

    भा०-जिस प्रकार दिन और रात्रि, मित्र और वरुण इन दोनों का ( तत् महित्वम् ) यही महान् सामर्थ्य है कि ( ईर्मा ) सूर्य ( अहभिः तस्थुषीः दुदुहे ) तेजों द्वारा समस्त स्थानों, शरीरों को रस प्रदान करता है दिन रात्रि दोनों (विश्वाः स्वसरस्य धेनाः पिन्वथ) सूर्य की सब रश्मियों को प्राप्त करते हैं उन दोनों का ( एकः पविः अनु आ ववर्त्त ) एक ही प्रकार का क्रम प्रतिदिन चक्र-धारा के समान पुनः २ आता है। उसी प्रकार (मित्रावरुणा ) मित्र एक दूसरे के स्नेही, रक्षक और हे 'वरुण' एक दूसरे को वरण करने हारे स्त्री पुरुषो! शिष्य अध्यापको ! राजा-प्रजा वर्गो ! ( वां ) आप दोनों का ( तत् ) वह ( सु-महित्वम् ) यही सर्वश्रेष्ठ महान् सामर्थ्य है कि (ईर्मा) बाहुवत् बलवान् पुरुष ही (तस्थुषीः ) स्थिर प्रजाओं को ( अहभिः ) अविनाशी बलों से ( दुदुहे ) ऐश्वर्य पूर्ण करने में समर्थ होता है । और आप दोनों (स्वसरस्य ) अपने ही सामर्थ्य से आगे बढ़ने वाले नायक को ( विश्वाः धेनाः पिन्वथः ) समस्त वाणियों को ( प्रेमपूर्वक प्राप्त करें, और (वाम् ) तुम दोनों का ( एकः पविः ) एकही पवित्र मार्ग, एक ही वाणी, एक ही बल ( अनु आववर्त ) प्रति दिन रहे, कभी भेदभाव न हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्रुतिविदात्रेय ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्द:- १, २ त्रिष्टुप् । ३, ४, ५, ६ निचृत्-त्रिष्टुप् । ७, ८, ९ विराट् त्रिष्टुप ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे अध्यापक व उपदेशकांनो! तुम्ही दोघे सर्व माणसांना दिवस, रात्र, प्राण, उदान व विद्युत विद्या शिकवा. ज्यामुळे संपूर्ण प्रजा आनंदित व्हावी. ॥ २ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Mitra and Varuna, sun and the surrounding waters of life, that living grandeur of yours, the One constant impeller of life, the unmoved mover, Spirit of existence at the centre, vests in the immovable forms of life, herbs and trees, by days and nights. Thus you nourish all the streams of life while one of you, the sun, goes round and round in orbit by the law of the One at the centre.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top