ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 63/ मन्त्र 2
ऋषिः - श्रुतिविदात्रेयः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स॒म्राजा॑व॒स्य भुव॑नस्य राजथो॒ मित्रा॑वरुणा वि॒दथे॑ स्व॒र्दृशा॑। वृ॒ष्टिं वां॒ राधो॑ अमृत॒त्वमी॑महे॒ द्यावा॑पृथि॒वी वि च॑रन्ति त॒न्यवः॑ ॥२॥
स्वर सहित पद पाठस॒म्ऽराजौ॑ । अ॒स्य । भुव॑नस्य । रा॒ज॒थः॒ । मित्रा॑वरुणा । वि॒दथे॑ । स्वः॒ऽदृशा॑ । वृ॒ष्टिम् । वा॒म् । राधः॑ । अ॒मृ॒त॒ऽत्वम् । ई॒म॒हे॒ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । वि । च॒र॒न्ति॒ । त॒न्यवः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सम्राजावस्य भुवनस्य राजथो मित्रावरुणा विदथे स्वर्दृशा। वृष्टिं वां राधो अमृतत्वमीमहे द्यावापृथिवी वि चरन्ति तन्यवः ॥२॥
स्वर रहित पद पाठसम्ऽराजौ। अस्य। भुवनस्य। राजथः। मित्रावरुणा। विदथे। स्वःऽदृशा। वृष्टिम्। वाम्। राधः। अमृतऽत्वम्। ईमहे। द्यावापृथिवी इति। वि। चरन्ति। तन्यवः ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 63; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मित्रावरुणवाच्यराजामात्यविषयमाह ॥
अन्वयः
हे मित्रावरुणा स्वर्दृशा सम्राजौ राजामात्यौ ! युवां यथा तन्यवो द्यावापृथिवी वि चरन्ति वृष्टिं जनयन्ति तथाऽस्य भुवनस्य मध्ये विदथे राजथो वयं वा राधोऽमृतत्वं चेमहे ॥२॥
पदार्थः
(सम्राजौ) यौ सम्यग्राजेते तौ (अस्य) (भुवनस्य) जगतो मध्ये (राजथः) प्रकाशेथे (मित्रावरुणा) वायुसूर्याविव (विदथे) सङ्ग्रामे (स्वर्दृशा) यौ स्वः सुखं दर्शयतस्तौ (वृष्टिम्) (वाम्) युवाभ्याम् (राधः) धनम् (अमृतत्वम्) उदकस्य भावम् (ईमहे) याचामहे (द्यावापृथिवी) प्रकाशभूमी (वि) विविधे (चरन्ति) गच्छन्ति (तन्यवः) विद्युतः ॥२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । यथा वायुविद्युतौ वृष्टिं कृत्वा सर्वान् मनुष्यान् धनधान्याढ्यान् कुरुतस्तथा धार्मिकौ राजामात्यौ प्रजा ऐश्वर्य्ययुक्ताः कुर्याताम् ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मित्रावरुणवाच्य राजा अमात्य विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (मित्रावरुणा) वायु और सूर्य्य के सदृश वर्त्तमान (स्वर्दृशा) सुख को दिखाने और (सम्राजौ) उत्तम प्रकार शोभित होनेवाले राजा और मन्त्रीजनो ! आप जैसे (तन्यवः) बिजुलियाँ (द्यावापृथिवी) प्रकाश और भूमि को (वि, चरन्ति) विचरती और (वृष्टिम्) वृष्टि को उत्पन्न करती हैं, वैसे (अस्य) इस (भुवनस्य) संसार के मध्य (विदथे) सङ्ग्राम में (राजथः) प्रकाशित होते हैं, हम लोग (वाम्) आप दोनों से (रायः) धन और (अमृतत्वम्) जल होने की (ईमहे) याचना करते हैं ॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे वायु और बिजुली वर्षा करके सब मनुष्यों को धन और धान्य से युक्त करते हैं, वैसे धार्मिक राजा और मन्त्री प्रजाओं को ऐश्वर्य्ययुक्त करें ॥२॥
विषय
राजा अभात्य के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
भा०—हे (मित्रावरुणा ) वायु सूर्य के समान राजन् ! अमात्य ! परस्पर मिलकर प्रजा को मृत्यु से बचाने और दुष्टों का वारण करने वाले आप दोनों (अस्य भुवनस्य ) इस जगत् को ( सम्राजौ ) अच्छी प्रकार प्रकाशित करने वाले ( विदथे ) ज्ञान, व्यवहार और धनैश्वर्य लाभ में ( स्वर्दृशा) उत्तम सुख, उत्तम प्रकाश को देखने वाले होकर ( राजथः ) विराजते हो । हम लोग ( वां) आप दोनों से ( वृष्टिम् ) उत्तम वृष्टि और ( राधः ) धन ऐश्वर्य और ( अमृतत्वं च ) अमृतत्व, दीर्घ जीवन, रक्षा, की ( ईमहे ) याचना करते हैं, आप दोनों के ( तन्यवः ) विस्तृत शक्तिमान् लोग ( द्यावा वृथिवी वि चरन्ति ) किरणों के समान आकाश और पृथिवी में विचरते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अर्चनाना आत्रेय ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवता ।। छन्दः - १, २, ४, ७ निचृज्जगती। ३, ५, ६ जगती ।। सप्तर्चं सूक्तम् ।।
विषय
राधः-अमृतत्वम्
पदार्थ
[१] हे मित्रावरुणा स्नेह व निर्देषता की देवताओ! आप (अस्य भुवनस्य) = इस लोक के (सम्राजौ) = सम्राट् हो। आपके कारण ही यह भुवन दीप्त बनता है । हे मित्र और वरुण ! (विदथे) = इस जीवनयज्ञ में आप (स्वर्दृशा) = स्वर्ग को देखनेवाले हो । स्नेह व निर्देषता के होने पर जीवन स्वर्ग बन जाता है। [२] (वाम्) = आपसे हम (वृष्टिम्) = आनन्द के वर्षण को (ईमहे) = माँगते हैं। (राधः) = कार्यसाधक धनों व सफलता की याचना करते हैं। (अमृतत्वम्) = शरीर में नीरोगता की आपसे याचना करते हैं। आपकी (तन्यवः) = विस्तृत रश्मियाँ व शक्तियाँ द्यावापृथिवी (विचरन्ति) = द्युलोक व पृथिवीलोक में, मस्तिष्क व शरीर में विचरन्ति प्रसृत होती हैं। स्नेह व निर्देषता से ही मस्तिष्क व शरीर दीप्त बनते हैं। 1
भावार्थ
भावार्थ - स्नेह व निर्देषता जीवन में 'दीप्ति, सुख [स्व:] आनन्दवृष्टि, सफलता व नीरोगता' को प्राप्त कराते हैं ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे वायू व विद्युत वृष्टी करून सर्व माणसांना धनधान्यांनी समृद्ध करतात. तसे धार्मिक राजा व अमात्य यांनी प्रजेला ऐश्वर्ययुक्त करावे. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Mitra, lord of love and friendship, Varuna, lord of judgement and discrimination, rulers and leading lights of this world, you shine in splendour and reveal the light of Divinity in the yajnic business of life on the earth. Just as thunder and lightning light and shake the earth and sky, so do you rule the earth. We pray to you for the shower of joy, success and the nectar sweets of immortal values in this mortal state of life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of the kings and their ministers are told by the use of the word Miträvarunau.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king and minister ! you are like the sun and the air, are showers of the path of happiness, shining well on account of your virtues. You shine in this world and in the battle fields as electricity pervades the heaven and the earth and generates rain. We pray to you for wealth and peace like water.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the wind and electricity make all people endowed with wealth and food-grains through rains, so it is the duty of the kinds and their ministers to make their subjects prosperous.
Foot Notes
(मित्रावरुणा ) वायुसूयों राजामात्यो इव । अयं वे वायुमित्रो योऽयं पवते (Stph 6, 5, 4, 14 ) वरुण एव सविता ( Jaiminiyopanishad 4, 12, 1, 3) इव)- The king and minister who are like the air and the sun. (तन्दव:) विद्युत:। = Various kinds of electricity. (अमृतत्वम् ) उदकस्य भावम् । अमृतम् इति उदकनाम (NG 1, 12 ) अत: अमृतत्वम् उदकस्य भव:-शान्तिः = Peace like water.
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