ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 65/ मन्त्र 4
ऋषिः - रातहव्य आत्रेयः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
मि॒त्रो अं॒होश्चि॒दादु॒रु क्षया॑य गा॒तुं व॑नते। मि॒त्रस्य॒ हि प्र॒तूर्व॑तः सुम॒तिरस्ति॑ विध॒तः ॥४॥
स्वर सहित पद पाठमि॒त्रः । अं॒होः । चि॒त् । आत् । उ॒रु । क्षया॑य । गा॒तुम् । व॒न॒ते॒ । मि॒त्रस्य॑ । हि । प्र॒ऽतूर्व॑तः । सु॒ऽम॒तिः । अस्ति॑ । वि॒ध॒तः ॥
स्वर रहित मन्त्र
मित्रो अंहोश्चिदादुरु क्षयाय गातुं वनते। मित्रस्य हि प्रतूर्वतः सुमतिरस्ति विधतः ॥४॥
स्वर रहित पद पाठमित्रः। अंहोः। चित्। आत्। उरु। क्षयाय। गातुम्। वनते। मित्रस्य। हि। प्रऽतूर्वतः। सुऽमतिः। अस्ति। विधतः ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 65; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यो मित्रोंऽहोश्चिद्वियोज्याऽऽदुरु क्षयाय गातुं वनते स हि प्रतूर्वतो विधतो मित्रस्य या सुमतिरस्ति तां गृह्णीयात् ॥४॥
पदार्थः
(मित्रः) सखा (अंहोः) दुष्टाचारात् (चित्) (आत्) (उरु) बहु (क्षयाय) निवासाय (गातुम्) पृथिवीम् (वनते) सम्भजति (मित्रस्य) (हि) खलु (प्रतूर्वतः) शीघ्रं कर्त्तुः (सुमतिः) उत्तमप्रज्ञा (अस्ति) (विधतः) परिचरतः ॥४॥
भावार्थः
त एव सखायः सन्ति ये निष्कापट्येन शुद्धभावेन परस्परैः सह वर्त्तन्ते ॥४॥
हिन्दी (2)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (मित्रः) मित्र (अंहोः) दुष्ट आचरण से (चित्) भी वियुक्त करके (आत्) अनन्तर (उरु) बहुत (क्षयाय) निवास के लिये (गातुम्) पृथिवी को (वनते) सेवन करता है वह (हि) निश्चय से (प्रतूर्वतः) शीघ्र करनेवाले (विधतः) परिचरण करते हुए (मित्रस्य) मित्र की जो (सुमतिः) श्रेष्ठ बुद्धि (अस्ति) है, उसको ग्रहण करे ॥४॥
भावार्थ
वे ही मित्र हैं, जो निष्कपटता से और शुद्ध भाव से परस्पर के जनों के साथ वर्तमान हैं ॥४॥
विषय
मित्र का लक्ष्य ।
भावार्थ
भा०- ( मित्रः ) स्नेहवान् मित्र वही है जो ( अंहोः चित् क्षयाय ) पाप से पृथक् रहने के लिये अथवा ( अहोः चित् क्षयाय ) पाप और पापाचारी के नाश करने के लिये ( गातुं ) वाणी का (उरु) खूब (वनते) प्रदान करता है । राष्ट्र में वही मित्र है जो परस्पर हत्या कलह आदि पाप से रहित होकर निवास करने के लिये ( गातुं वनते ) पृथिवी का न्याय पूर्वक विभाग कर देता है। (मित्रस्य ) सबसे स्नेह करने वाले (प्रतूर्वतः ) अति शीघ्र कार्य करने में कुशल और ( विधतः ) विशेष विधान अर्थात् धर्मं मर्यादा स्थिर करने वाले पुरुष की (हि) निश्चय से (सु-मतिः अस्ति ) सदा शुभ मति हो । अथवा शीघ्रकारी ( विधतः ) परिचर्या करने वाले स्नेही शिष्य की उत्तम बुद्धि होती है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
रातहव्य आत्रेय ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्द:- १, ४ अनुष्टुप् । २ निचृदनुष्टुप् । ३ स्वराडुष्णिक् । ५ भुरिगुष्णिक् । ६ विराट् पंक्तिः ॥ षडृर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे निष्कपटीपणाने व शुद्ध भावनेने परस्परांबरोबर वागतात तेच मित्र असतात. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Mitra, friend and lover, for sure, provides a wide path away from sin for us to have a safe and spacious haven of peace on earth. The love and friendship of the Lord of instant action who protects and upholds us against sin and evil is for humanity, abundant for anyone who cares to benefit from it by prayer and effort.
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