ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 77/ मन्त्र 3
हिर॑ण्यत्व॒ङ्मधु॑वर्णो घृ॒तस्नुः॒ पृक्षो॒ वह॒न्ना रथो॑ वर्तते वाम्। मनो॑जवा अश्विना॒ वात॑रंहा॒ येना॑तिया॒थो दु॑रि॒तानि॒ विश्वा॑ ॥३॥
स्वर सहित पद पाठहिर॑ण्यऽत्वक् । मधु॑ऽवर्णः । घृ॒तऽस्नुः । पृक्षः॑ । वह॑न् । आ । रथः॑ । व॒र्त॒ते॒ । वा॒म् । मनः॑ऽजवाः । अ॒श्वि॒ना॒ । वात॑ऽरंहाः । येन॑ । अ॒ति॒ऽया॒थः । दुः॒ऽरि॒तानि॑ । विश्वा॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
हिरण्यत्वङ्मधुवर्णो घृतस्नुः पृक्षो वहन्ना रथो वर्तते वाम्। मनोजवा अश्विना वातरंहा येनातियाथो दुरितानि विश्वा ॥३॥
स्वर रहित पद पाठहिरण्यऽत्वक्। मधुऽवर्णः। घृतऽस्नुः। पृक्षः। वहन्। आ। रथः। वर्तते। वाम्। मनःऽजवाः। अश्विना। वातऽरंहाः। येन। अतिऽयाथः। दुःऽइतानि। विश्वा ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 77; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे अश्विना ! वां हिरण्यत्वङ् मधुवर्णो घृतस्नुः पृक्षो वहन् रथ आ वर्त्तते यं मनोजवा वातरंहा वहन्ति येन विश्वा दुरितान्यतियाथस्तं युवां रचयेतम् ॥३॥
पदार्थः
(हिरण्यत्वक्) हिरण्यं तेजः सुवर्णं चेव त्वगुपरिवर्णं यस्य सः। (मधुवर्णः) मधुर्द्रष्टव्यो वर्णो यस्य सः (घृतस्नुः) यो घृतमुदकं स्नाति (पृक्षः) अन्नादिकम् (वहन्) प्राप्नुवन् प्रापयन् वा (आ) (रथः) विमानादियानम् (वर्त्तते) (वाम्) युवयोः (मनोजवाः) मन इव वेगवन्तः (अश्विना) शिल्पविद्याविदौ (वातरंहाः) वायुवद्वेगवन्तोऽग्न्यादयः (येन) रथेन (अतियाथः) अत्यन्तं गच्छन्तः (दुरितानि) दुःखैनैतुं प्राप्तुं योग्यानि स्थानान्तराणि (विश्वा) सर्वाणि ॥३॥
भावार्थः
यदि मनुष्या विमानादियानान्यग्न्युदकादिभिश्चालयेयुस्तर्ह्येतानि मनोवद्वायुवच्छीघ्रं गत्वाऽऽगच्छेयुः ॥३॥
हिन्दी (2)
विषय
फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अश्विना) शिल्पविद्या के जाननेवालो ! (वाम्) आप दोनों का (हिरण्यत्वक्) तेज और सुवर्ण के सदृश त्वचा पर का वर्ण और (मधुवर्णः) देखने योग्य वर्ण जिसका वह (घृतस्नुः) जल को शुद्ध करनेवाला (पृक्षः) अन्न आदि को (वहन्) प्राप्त होता वा प्राप्त कराता हुआ (रथः) विमान आदि वाहन को (आ, वर्त्तते) सब प्रकार वर्त्तमान है और जिसको (मनोजवाः) मन के सदृश वेगवाले (वातरंहाः) वायु के सदृश वेगयुक्त अग्नि आदि पदार्थ प्राप्त होते हैं और (येन) जिस रथ से (विश्वा) सम्पूर्ण (दुरितानि) दुःख से प्राप्त होने योग्य स्थानान्तरों को (अतियाथः) अत्यन्त प्राप्त होते हैं, उसको आप दोनों रचिये ॥३॥
भावार्थ
जो मनुष्य विमानादिकों को अग्नि और जलादिकों से चलावें तो वे विमान आदि मन और वायु के सदृश शीघ्र जा कर लौट आवें ॥३॥
विषय
प्रधान पुरुषों के कर्तव्य ।
भावार्थ
भा०-हे (अश्विना ) विद्वान् स्त्री पुरुषो ! (हिरण्य-त्वङ्) सुवर्ण या लोह के आवरण से युक्त, दृढ़ (मधुवर्णः) मधु के समान चिकने, सुन्दर रंग वाले ( घृतस्नुः ) तेल आदि स्निग्ध पदार्थ से शुद्ध, नित्य स्वच्छ, (पृक्षः बृहत् ) अन्न आदि पदार्थों को लेजाने वाला, बड़ा (रथः) रथ (वाम् वर्त्तते ) आप दोनों के प्रयोग में आवे । उसमें ( मनोजवाः ) मन के संकल्पमात्र से वेग से जाने वाले, स्वल्प प्रयास से ही अति शीघ्र चलने वाले ( वातरंहाः) वायु के वेग से युक्त अश्व, यन्त्रादि हों। ( येन ) जिस रथ से आप दोनों (विश्वा ) समस्त ( दुरितानि ) दुर्गम स्थानों और कष्टों को ( अति याथः ) पार करने में समर्थ होवो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अत्रिर्ऋषिः ।। अश्विनौ देवते । त्रिष्टुप् छन्दः ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ।।
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी अग्नी व जल इत्यादींनी विमान चालविले तर मन व वायुप्रमाणे तात्काळ जाणे-येणे करता येते. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Ashvins, leading lights of divinity, scholars, scientists and engineers, your chariot comes hither laden with gold, honey sweet and charming, bringing showers of water and ghrta, carrying wealth of food and energy. It is fast as mind and powerful as wind and storm by which you cross over all hurdles and evils of the world.
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