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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 1/ मन्त्र 1
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    त्वं ह्य॑ग्ने प्रथ॒मो म॒नोता॒स्या धि॒यो अभ॑वो दस्म॒ होता॑। त्वं सीं॑ वृषन्नकृणोर्दु॒ष्टरी॑तु॒ सहो॒ विश्व॑स्मै॒ सह॑से॒ सह॑ध्यै ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । हि । अ॒ग्ने॒ । प्र॒थ॒मः । म॒नोता॑ । अ॒स्याः । धि॒यः । अभ॑वः । दस्म॑ । होता॑ । त्वम् । सी॒म् । वृ॒ष॒न् । अ॒कृत॒णोः॒ । दु॒स्तरी॑तु । सहः॑ । विश्व॑स्मै । सह॑से । सह॑ध्यै ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं ह्यग्ने प्रथमो मनोतास्या धियो अभवो दस्म होता। त्वं सीं वृषन्नकृणोर्दुष्टरीतु सहो विश्वस्मै सहसे सहध्यै ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। हि। अग्ने। प्रथमः। मनोता। अस्याः। धियः। अभवः। दस्म। होता। त्वम्। सीम्। वृषन्। अकृतणोः। दुस्तरीतु। सहः। विश्वस्मै। सहसे। सहध्यै ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 35; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्वानग्निरिव किं कुर्य्यादित्याह ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने दस्म विद्वन् ! यथा प्रथमो मनोता होता संस्त्वं ह्यस्या धियो वृद्धिं कुर्वन् सुख्यभवः। हे वृषँस्त्वं सीं विश्वस्मै सहः सहसे सहध्यै दुष्टरीत्वकृणोस्तथा विद्युदग्निः करोति ॥१॥

    पदार्थः

    (त्वम्) (हि) (अग्ने) अग्निरिव वर्त्तमान (प्रथमः) आदिमः (मनोता) मनोवद्गन्ता (अस्याः) (धियः) प्रज्ञायाः (अभवः) भवसि (दस्म) दुःखोपक्षयितः (होता) दाता (त्वम्) (सीम्) सर्वतः (वृषन्) वीर्यसेक्तः (अकृणोः) (दुष्टरीतु) दुःखेन तरीतुमुल्लङ्घयितुं योग्यम् (सहः) यस्सहते (विश्वस्मै) सर्वस्मै (सहसे) बलाय (सहध्यै) सोढुम् ॥१॥

    भावार्थः

    ये विद्वांसो मूर्खैः कृतानपराधान् सोढ्वा सर्वेषां सुखाय प्रयतन्ते त एव सर्वेषां हितकारिणः सन्ति ॥१॥

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    हिन्दी (1)

    विषय

    अब छठे मण्डल में तेरह ऋचावाले प्रथम सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् जन अग्नि के सदृश क्या-क्या करें? इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के सदृश तेजस्वी (दस्म) दुःख के नाश करनेवाले विद्वान् जन जैसे (प्रथमः) आदिम (मनोता) मन के समान जानेवाले और (होता) दान करनेवाले हुए (त्वम्) आप (हि) निश्चय से (अस्याः) इस (धियः) बुद्धि की वृद्धि करते हुए सुखयुक्त (अभवः) होते हो। और हे (वृषन्) वीर्य्य के सींचनेवाले (त्वम्) आप (सीम्) सब ओर से (विश्वस्मै) सम्पूर्ण प्राणियों के लिये (सहः) सहनशील (सहसे) बल के लिये (सहध्यै) सहने का (दुष्टरीतु) दुःख से उल्लङ्घन करने योग्य (अकृणोः) करते हो, वैसे बिजुलीरूप अग्नि करता है ॥१॥

    भावार्थ

    जो विद्वान् जन मूर्ख लोगों से किये हुए अपराधों को सहकर सम्पूर्ण जनों के सुख के लिये प्रयत्न करते हैं, वही सब के हितकारी होते हैं ॥१॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात अग्नी, विद्वान व ईश्वराच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वर् सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    जे विद्वान लोक मूर्खांचे अपराध सहन करून संपूर्ण लोकांच्या सुखासाठी प्रयत्नशील असतात तेच सर्वांचे हितकर्ते असतात ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, light of life faster than mind, you are the prime mover of this cosmic intelligence and evolution, marvellous creator and foremost performer of universal yajna. O generous father of life, you alone generate the inviolable life force and strength of will vested in existence for us to resist and overcome all negative forces of the world for survival and onward progress.

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