ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 12/ मन्त्र 2
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
आ यस्मि॒न्त्वे स्वपा॑के यजत्र॒ यक्ष॑द्राजन्त्स॒र्वता॑तेव॒ नु द्यौः। त्रि॒ष॒धस्थ॑स्तत॒रुषो॒ न जंहो॑ ह॒व्या म॒घानि॒ मानु॑षा॒ यज॑ध्यै ॥२॥
स्वर सहित पद पाठआ । यस्मि॑न् । त्वे इति॑ । सु । अपा॑के । य॒ज॒त्र॒ । यक्ष॑त् । रा॒ज॒न् । स॒र्वता॑ताऽइव । नु । द्यौः । त्रि॒ऽस॒धस्थः॑ । त॒त॒रुषः॑ । न । जंहः॑ । ह॒व्या । म॒घानि॑ । मानु॑षा । यज॑ध्यै ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ यस्मिन्त्वे स्वपाके यजत्र यक्षद्राजन्त्सर्वतातेव नु द्यौः। त्रिषधस्थस्ततरुषो न जंहो हव्या मघानि मानुषा यजध्यै ॥२॥
स्वर रहित पद पाठआ। यस्मिन्। त्वे इति। सु। अपाके। यजत्र। यक्षत्। राजन्। सर्वताताऽइव। नु। द्यौः। त्रिऽसधस्थः। ततरुषः। न। जंहः। हव्या। मघानि। मानुषा। यजध्यै ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 12; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे यजत्र राजन् ! यस्मिन्नपाके त्वे सर्वतातेव द्यौः स्वाऽऽयक्षत् स भवान्नु त्रिषधस्थस्ततरुषो जंहो न हव्या मानुषा मघानि यजध्यै यक्षत् ॥२॥
पदार्थः
(आ) समन्तात् (यस्मिन्) (त्वे) त्वयि (सु) (अपाके) अपरिपक्वे (यजत्र) सङ्गन्तुमर्ह (यक्षत्) यजेत् (राजन्) (सर्वतातेव) सर्वेषां वर्धको यज्ञ इव (नु) सद्यः (द्यौः) विद्युदादिप्रकाशः (त्रिषधस्थः) त्रिषु भूम्यन्तरिक्षसूर्य्यलोकेषु त्रिविधेषु समानस्थानेषु वर्त्तमानः (ततरुषः) तारकः (न) इव (जंहः) सद्यो गन्ता (हव्या) आदातुं दातुमर्हाणि (मघानि) धनानि (मानुषा) मनुष्याणामिमानि (यजध्यै) सङ्गन्तुम् ॥२॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यत्र सूर्य्यवद्राजा प्रतापी भवति तत्र सर्वाणि सुखानि जायन्ते ॥२॥
हिन्दी (1)
विषय
फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (यजत्र) मेल करने योग्य (राजन्) राजा ! (यस्मिन्) जिन (अपाके) बुद्धि के परिपाक अर्थात् पूर्णता से रहित (त्वे) आप में (सर्वतातेव) सब की वृद्धि करनेवाला यज्ञ जैसे वैसे (द्यौः) बिजुली आदि का प्रकाश (सु) उत्तम प्रकार (आ, यक्षत्) सब ओर से मेल करे वह आप (नु) शीघ्र (त्रिषधस्थः) तीन पृथिवी, अन्तरिक्ष और सूर्य्यलोक में तुल्य स्थान में वर्त्तमान (ततरुषः) तारने और (जंहः) शीघ्र चलनेवाला (न) जैसे वैसे (हव्या) देने और ग्रहण करने योग्य (मानुषा) मनुष्य सम्बन्धी (मघानि) धनों को (यजध्यै) प्राप्त होने को यजन कीजिये ॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जहाँ सूर्य्य के सदृश प्रतापी राजा होता है, वहाँ सम्पूर्ण सुख होते हैं ॥२॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जेथे सूर्याप्रमाणे पराक्रमी राजा असतो तेथे संपूर्ण सुख मिळते. ॥ २ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, adorable self-refulgent ruling power of life and yajna, let the light of the sun join your radiance as in yajna for universal good so that the light pervasive in heaven, firmament and earth like a dynamic saving power of vitality may create and develop means and materials for wealth and prosperity, honour and excellence for humanity.
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