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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 18/ मन्त्र 6
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - ब्राह्म्युष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    स हि धी॒भिर्हव्यो॒ अस्त्यु॒ग्र ई॑शान॒कृन्म॑ह॒ति वृ॑त्र॒तूर्ये॑। स तो॒कसा॑ता॒ तन॑ये॒ स व॒ज्री वि॑तन्त॒साय्यो॑ अभवत्स॒मत्सु॑ ॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । हि । धी॒भिः । हव्यः॑ । अस्ति॑ । उ॒ग्रः । ई॒शा॒न॒ऽकृत् । म॒ह॒ति । वृ॒त्र॒ऽतूर्ये॑ । सः । तो॒कऽसा॑ता । तन॑ये । सः । व॒ज्री । वि॒त॒न्त॒साय्यः॑ । अ॒भ॒व॒त् । स॒मत्ऽसु॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स हि धीभिर्हव्यो अस्त्युग्र ईशानकृन्महति वृत्रतूर्ये। स तोकसाता तनये स वज्री वितन्तसाय्यो अभवत्समत्सु ॥६॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। हि। धीभिः। हव्यः। अस्ति। उग्रः। ईशानऽकृत्। महति। वृत्रऽतूर्ये। सः। तोकऽसाता। तनये। सः। वज्री। वितन्तसाय्यः। अभवत्। समत्ऽसु ॥६॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 18; मन्त्र » 6
    अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुना राज्ञा किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे राजन् ! यथा स धीभिर्हव्यो महति वृत्रतूर्य्ये ईशानकृदस्ति स तोकसाता तनय उग्रः स हि वितन्तसाय्यो वज्री समत्स्वभवत् तथा त्वं विधेहि ॥६॥

    पदार्थः

    (सः) (हि) (धीभिः) प्रज्ञाभिर्बुद्धिभिर्वा (हव्यः) आदातुमर्हः (अस्ति) (उग्रः) तेजस्वी (ईशानकृत्) य ईशानानीशनशीलान् पुरुषार्थिनः करोति (महति) (वृत्रतूर्य्ये) सङ्ग्रामे (सः) (तोकसाता) तोकानामपत्यानां विभाजने (तनये) पुत्राय (सः) (वज्री) शस्त्रबाहुः (वितन्तसाय्यः) भृशं विस्तारणीयः (अभवत्) भवति (समत्सु) संग्रामेषु ॥६॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। राज्ञा सर्वे राजकर्म्मचारिणो योग्याः सम्पादनीया यतः सर्वदा विजयः स्यात् ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर राजा को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे राजन् ! जैसे (सः) वह (धीभिः) ज्ञान व बुद्धियों से (हव्यः) ग्रहण करने योग्य (महति) बड़े (वृत्रतूर्य्ये) संग्राम में (ईशानकृत्) ईश्वरता करनेवालों को पुरुषार्थी करनेवाला (अस्ति) है और (सः) वह (तोकसाता) सन्तानों के विभाग होने में (तनये) पुत्र के लिये (उग्रः) तेजस्वी और (सः) वह (हि) ही (वितन्तसाय्यः) अत्यन्त विस्तार करने योग्य (वज्री) शस्त्र हैं बाहुओं में जिसके ऐसा (समत्सु) संग्रामों में (अभवत्) होता है, वैसे आप करिये ॥६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। राजा को चाहिये कि सब कर्म्मचारियों को योग्य सिद्ध करे, जिससे सर्वदा विजय होवे ॥६॥

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    विषय

    राजा के अनेक उत्तम कर्तव्य।

    भावार्थ

    ( सः हि ) वह निश्चय से ( धीभिः ) उत्तम बुद्धियों और कर्मों के द्वारा वा उत्तम स्तुतियों से ( हव्यः अस्ति ) प्रशंसनीय, आदर करने योग्य हो, वह (महति वृत्रतूर्ये ) बड़े भारी दुष्ट नाशकारी संग्राम में ( उग्रः ) बलवान्, और ( ईशानकृत् अस्ति ) सामर्थ्यवान् पुरुषों को अधिकारी बनाने हारा हो । ( सः ) वह ( तनये ) पुत्रों में ( तोकसाता) धनादि का न्यायपूर्वक विभाजक और ( सः ) वह ( वज्री ) दण्डधारी ( समत्सु ) संग्रामों और एक साथ हर्ष के अवसर उत्सवादि काल में ( वितन्तसाय्यः अभवत् ) विविध प्रकार के शत्रुओं का नाशकारी और राष्ट्र सम्पत्तिका विस्तार करने वाला हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१, ४, ९, १४ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ८, ११, १३ त्रिष्टुप् । ७, १० विराट् त्रिष्टुप् । १२ भुरिक त्रिष्टुप् । ३, १५ भुरिक् पंक्तिः । ५ स्वराट् पंक्तिः । ६ ब्राह्म्युष्णिक्॥

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    विषय

    'वितन्तसाय्य' प्रभु

    पदार्थ

    [१] (सः) = वे प्रभु ही (धीभिः) = ज्ञानपूर्वक की गई स्तुतियों से (हव्यः) = पुकारने योग्य (अस्ति) = हैं । (उग्रः) = तेजस्वी हैं और इस (महति वृत्रतूर्ये) = महान् संग्राम में (ईशानकृत्) = स्तोताओं को समर्थ करनेवाले हैं। प्रभु कृपा से ही उपासक संग्राम में विजयी होता है । 'वृत्रतूर्य' यह संग्राम का नाम ही हो गया है, इस महान् अध्यात्म संग्राम में वृत्र का, वासना का विनाश करना होता है । [२] (सः) = वे प्रभु ही (तोकसाता) = उत्तम पुत्रों की प्राप्ति के निमित्त [हव्यः] आह्वातव्य होते हैं। (तनये) = उत्तम पौत्रों की प्राप्ति के निमित्त भी वे प्रभु ही प्रार्थनीय हैं। (सः वज्री) = वे वज्रहस्त प्रभु (समत्सु) = संग्रामों में (वितन्तसाय्यः) = शत्रुओं के विहिंसक (अभवत्) = होते हैं ।

    भावार्थ

    प्रभु-स्मरण ही हमें संग्राम विजयी बनाता है। यह स्मरण ही उत्तम पुत्र-पौत्रों को प्राप्त कराता है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. राजाने सर्व कर्मचाऱ्यांची योग्यता सिद्ध करावी, ज्यामुळे सदैव विजय प्राप्त व्हावा. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    That is the lord worthy of homage with all our intelligence and holy actions, refulgent maker of leaders and achievers in the great human struggle against evil and deprivation. That wielder of adamantine power is to be exalted and glorified in the battles of humanity for the advancement and progress of our children and grand children for future generations.

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