ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 26/ मन्त्र 7
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒हं च॒न तत्सू॒रिभि॑रानश्यां॒ तव॒ ज्याय॑ इन्द्र सु॒म्नमोजः॑। त्वया॒ यत्स्तव॑न्ते सधवीर वी॒रास्त्रि॒वरू॑थेन॒ नहु॑षा शविष्ठ ॥७॥
स्वर सहित पद पाठअ॒हम् । च॒न । तत् । सू॒रिऽभिः॑ । आ॒न॒श्या॒न् । तव॑ । ज्यायः॑ । इ॒न्द्र॒ । सु॒म्नम् । ओजः॑ । त्वया॑ । यत् । स्तव॑न्ते । स॒ध॒ऽवी॒र॒ । वी॒राः । त्रि॒ऽवरू॑थेन । नहु॑षा । श॒वि॒ष्ठ॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अहं चन तत्सूरिभिरानश्यां तव ज्याय इन्द्र सुम्नमोजः। त्वया यत्स्तवन्ते सधवीर वीरास्त्रिवरूथेन नहुषा शविष्ठ ॥७॥
स्वर रहित पद पाठअहम्। चन। तत्। सूरिऽभिः। आनश्याम्। तव। ज्यायः। इन्द्र। सुम्नम्। ओजः। त्वया। यत्। स्तवन्ते। सधऽवीर। वीराः। त्रिऽवरूथेन। नहुषा। शविष्ठ ॥७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 26; मन्त्र » 7
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे शविष्ठ सधवीरेन्द्र ! वीरा नहुषा विद्वांसो यत्स्तवन्ते तत्त्रिवरूथेन त्वया सूरिभिश्च सहाऽहमानश्यां चनाऽपि तव यज्ज्यायः सुम्नमोजोऽस्ति तदानश्याम् ॥७॥
पदार्थः
(अहन्) (चन) अपि (तत्) (सूरिभिः) विद्वद्भिः सह (आनश्याम्) प्राप्नुयाम् (तव) (ज्यायः) प्रशस्यम् (इन्द्र) सुखप्रद (सुम्नम्) सुखम् (ओजः) पराक्रमः (त्वया) (यत्) (स्तवन्ते) प्रशंसन्ति (सधवीर) समानस्थाने वर्त्तमान वीरपुरुष (वीराः) (त्रिवरूथेन) त्रीणि त्रिविधानि शीतोष्णवर्षासुखकराणि वरूथानि गृहाणि यस्य तेन (नहुषा) मनुष्याः (शविष्ठ) बलिष्ठ ॥७॥
भावार्थः
ये विदुषां सङ्गेन पुरुषार्थिनो भूत्वा प्रशंसनीयं धर्म्यं कर्म कुर्वन्ति ते बलिनो भूत्वोत्तमं सुखं लभन्ते ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (शविष्ठ) बलिष्ठ और (सधवीर) तुल्य स्थान में वर्त्तमान वीर जन (इन्द्र) सुख के देनेवाले ! (वीराः) वीर (नहुषा) मनुष्य विद्वान् (यत्) जिसकी (स्तवन्ते) प्रशंसा करते हैं (तत्) उसको (त्रिवरूथेन) तीन प्रकार के शीत, उष्ण और वर्षा में सुखकारक गृह जिनके उन (त्वया) आपके और (सूरिभिः) विद्वानों के साथ (अहम्) मैं (आनश्याम्) प्राप्त होऊँ और (चन) भी (तव) आपका जो (ज्यायः) प्रशंसा करने योग्य (सुम्नम्) सुख और (ओजः) पराक्रम है, उसको प्राप्त होऊँ ॥७॥
भावार्थ
जो विद्वानों के सङ्ग से पुरुषार्थी होकर प्रशंसा करने योग्य, धर्मयुक्त कर्म को करते हैं, वे बली होकर उत्तम सुख को प्राप्त होते हैं ॥७॥
विषय
प्रजा सेवकादिभक्त इन्द्र । उसका दुष्टदमन का कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( अहंचन ) मैं भी ( तब ) तेरे ( तत् ) उस ( ज्यायः ) महान् ( सुम्नम् ) सुखप्रद ( ओजः ) पराक्रम का उन ( सूरिभिः ) विद्वानों के सहित (आनश्याम् ) उपभोग करूं । हे ( शविष्ठ ) अत्यन्त शक्तिशालिन् ! हे (सधवीर ) वीरों सहित ( यत् नहुषा ) जो लोग, ( त्रिवरूथेन ) शोत, उष्ण, वर्षा तीनों से बचाने वाले, गृह के स्वामी रूप अथवा त्रिविध दुःखों के वारक ( त्वया ) तुझ से ( वीरा ) वीर्यवान् होकर ( स्तवन्ते ) तेरा गुण गान करते हैं !
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः - १ पंक्तिः । २, ४ भुरिक पंक्तिः। ३ निचृत् पंक्ति: । ५ स्वराट् पंक्तिः । ६ विराट् त्रिष्टुप् । ७ त्रिष्टुप् । ८ निचृत्त्रिष्टुप् ।। अष्टर्चं सूक्तम् ।।
विषय
सुम्नम् ओजः
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = परमात्मन् ! (अहं चन) = मैं भी (सूरिभिः) = ज्ञानी स्तोताओं के साथ (तव) - आपके (तत्) = उस (ज्यायः) = उत्कृष्ट (सुम्नम्) = स्तोत्र व (ओजः) = बल को (आनश्याम्) = प्राप्त करूँ । ज्ञानी स्तोताओं के सम्पर्क में रहता हुआ मैं भी आपका स्तवन करनेवाला बनूँ और यह स्तवन मुझे ओजस्विता प्रदान करे। [२] हे (सधवीर) = सदा वीरों के साथ निवास करनेवाले [नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः] (शविष्ठ) = बलवत्तम प्रभो ! (यत्) = क्योंकि (वीराः) = वीर पुरुष (त्रिवरूथेन) = शरीर, मन व मस्तिष्क इन तीनों की सम्पत्ति को देनेवाले (नहुषा) = [णह बन्धने] उपासकों को परस्पर स्नेह बन्धन में बाँधनेवाले (त्वया) = आपके द्वारा ही दिये हुए ओज का (स्तवन्ते) = स्तवन-प्रशंसन करते हैं। आप से दिये गये ओज से ही वस्तुतः ओजस्विता व वीरता प्राप्त होती है ।
भावार्थ
भावार्थ-स्तोता पुरुषों के सम्पर्क में हम भी स्तवन की वृत्तिवाले बनते हुए प्रभु से 'सुम्न व ओज' को प्राप्त करें ।
मराठी (1)
भावार्थ
जे विद्वानांच्या संगतीने पुरुषार्थी बनून प्रशंसा करण्यायोग्य धर्मयुक्त कर्म करतात ते बलवान बनून उत्तम सुख प्राप्त करतात. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, bravest lord of the house of the brave, I pray, may I too, along with the learned and the wise and great, attain that high order of vigour and splendour, peace and well being, with the grace of your presence bestowed by you, lord of three worlds, which the brave and learned people value, admire and pray for.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O mightiest king (bestower of happiness) ! living with us let me enjoy that state which is glorified with brave thoughtful enlightened persons, with you who have houses comfortable in winter, summer, and rainy seasons and along with other scholars. Let me also enjoy that admirable delight and strength.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons enjoy very good happiness who with the association of the enlightened persons, perform righteous and admirable actions being industrious.
Foot Notes
(नहुषा) मनुष्याः । नहुषः इति मनुष्यनाम (NG 2,3)। = Thoughtful men. (त्रिवरूथेन) त्रीणि त्रिविधानि शीतोष्ण वर्षां सुख कराणि वरूथानि गृहाणि यस्य तेन । नरूथम् इति गृहनाम (NG 3,4)। = Houses comfortable in the winter, summer and rainy-in all the three main seasons.
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