ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 29/ मन्त्र 6
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - ब्राह्म्युष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
ए॒वेदिन्द्रः॑ सु॒हव॑ ऋ॒ष्वो अ॑स्तू॒ती अनू॑ती हिरिशि॒प्रः सत्वा॑। ए॒वा हि जा॒तो अस॑मात्योजाः पु॒रू च॑ वृ॒त्रा ह॑नति॒ नि दस्यू॑न् ॥६॥
स्वर सहित पद पाठए॒व । इत् । इन्द्रः॑ । सु॒ऽहवः॑ । ऋ॒ष्वः । अ॒स्तु॒ । ऊ॒ती । अनू॑ती । हि॒रि॒ऽशि॒प्रः । सत्वा॑ । ए॒व । हि । जा॒तः । अस॑मातिऽओजाः । पु॒रु । च॒ । वृ॒त्रा । ह॒न॒ति॒ । नि । दस्यू॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
एवेदिन्द्रः सुहव ऋष्वो अस्तूती अनूती हिरिशिप्रः सत्वा। एवा हि जातो असमात्योजाः पुरू च वृत्रा हनति नि दस्यून् ॥६॥
स्वर रहित पद पाठएव। इत्। इन्द्रः। सुऽहवः। ऋष्वः। अस्तु। ऊती। अनूती। हिरिऽशिप्रः। सत्वा। एव। हि। जातः। असमातिऽओजाः। पुरु। च। वृत्रा। हनति। नि। दस्यून् ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 29; मन्त्र » 6
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 6
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथेश्वरत्वे राजविषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यः सुहव ऋष्वो हिरिशिप्रस्सत्वेन्द्र ऊत्यनूती सुखकर्त्ता जातश्चाऽस्तु स एवेदानन्दप्रदो भवतु। यो ह्यसमात्योजाः पुरू वृत्रोन्नयति दस्यूँश्च नि हनति स एवा सम्राड् भवितुमर्हति ॥६॥
पदार्थः
(एव) (इत्) अपि (इन्द्रः) ईश्वरोपासको राजा (सुहवः) शोभन इव आह्वानं यस्य (ऋष्वः) महान् (अस्तु) (ऊती) रक्षया (अनूती) अरक्षया (हिरिशिप्रः) हिरी हरिते शिप्रे हनुनासिके यस्य सः (सत्वा) यः सीदति स पुरुषार्थी (एवा) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (हि) खलु (जातः) प्रसिद्ध (असमात्योजाः) असमाति अतुल्यमोजो यस्य सः (पुरू) बहु। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (च) (वृत्रा) धनानि (हनति) हन्ति (नि) नित्यम् (दस्यून्) दुष्टाँस्तेनान् ॥६॥
भावार्थः
स एव महान् राजा यो नीतिज्ञान् रक्षित्वा धार्मिकीः प्रजाः सम्पाल्य स्तेनादीन् पापान्न गृह्णाति स एव सज्जनैः सेवनीयोऽस्ति ॥६॥ अत्रेन्द्रसखित्वदातृयोध्रीश्वरगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्येकोनत्रिंशत्तमं सूक्तं प्रथमो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (1)
विषय
अब ईश्वरत्व में राजविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (सुहवः) सुन्दर पुकारना जिसका ऐसा (ऋष्वः) बड़ा (हिरिशिप्रः) हरे रंग की ठुड्ढी और नासिका युक्त (सत्वा) परिश्रम से पुरुषार्थ करने और (इन्द्रः) ईश्वर की उपासना करनेवाला राजा (ऊती) रक्षा वा (अनूती) अरक्षा से सुख करनेवाला (जातः, च) और प्रसिद्ध (अस्तु) हो वह (एव) ही (इत्) निश्चय से आनन्द देनेवाला होवे और जो (हि) निश्चय से (असमात्योजाः) नहीं तुल्य पराक्रम जिसका वह (पुरू) बहुत (वृत्रा) धनों की वृद्धि करता है और (दस्यून्) दुष्ट चोरों का (नि, हनति) नित्य नाश करता है वह (एवा) ही चक्रवर्ती राजा होने के योग्य है ॥६॥
भावार्थ
वही बड़ा राजा है, जो नीति के जाननेवालों की रक्षा करके धर्मिष्ठ प्रजाओं का पालन करके चोर आदि पापियों को नहीं ग्रहण करता है, वही सज्जनों से सेवन करने योग्य है ॥६॥ इस सूक्त में इन्द्र, मित्रपन, देनेवाले और युद्ध करनेवाले तथा ईश्वर के गुणों का वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह उनतीसवाँ सूक्त और पहिला वर्ग समाप्त हुआ ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जो नीतिज्ञांचे रक्षण करून धार्मिक प्रजेचे रक्षण करतो, चोर इत्यादी पापी लोकांचा स्वीकार करीत नाही त्यालाच सज्जन लोक स्वीकारतात व तोच महान राजा असतो. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Thus may the lord sublime, omnipotent Indra, ever active in golden glory, listen to the prayers of universal humanity in all direct and indirect modes of divine protection and grace. Thus does the lord, self manifest in boundless power and glory, create and preserve the abundant wealth of good and destroy darkness, enmity and negation of evil.
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