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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 3/ मन्त्र 6
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स ईं॑ रे॒भो न प्रति॑ वस्त उ॒स्राः शो॒चिषा॑ रारपीति मि॒त्रम॑हाः। नक्तं॒ य ई॑मरु॒षो यो दिवा॒ नॄनम॑र्त्यो अरु॒षो यो दिवा॒ नॄन् ॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । ई॒म् । रे॒भः । न । प्रति॑ । व॒स्ते॒ । उ॒स्राः । शो॒चिषा॑ । र॒र॒पी॒ति॒ । मि॒त्र्ऽअम॑हाः । नक्त॑म् । यः । ई॒म् । अ॒रु॒षः । यः । दिवा॑ । नॄन् । अम॑र्त्यः । अ॒रु॒षः । यः । दिवा॑ । नॄन् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स ईं रेभो न प्रति वस्त उस्राः शोचिषा रारपीति मित्रमहाः। नक्तं य ईमरुषो यो दिवा नॄनमर्त्यो अरुषो यो दिवा नॄन् ॥६॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। ईम्। रेभः। न। प्रति। वस्ते। उस्राः। शोचिषा। ररपीति। मित्रऽमहाः। नक्तम्। यः। ईम्। अरुषः। यः। दिवा। नॄन्। अमर्त्यः। अरुषः। यः। दिवा। नॄन् ॥६॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 6
    अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    योऽरुषो नक्तमीं योऽमर्त्यो दिवा नॄन् योऽरुषो दिवा नॄन् सङ्गच्छते स ईं रेभो न शोचिषोस्राः प्रति वस्ते मित्रमहा रारपीति ॥६॥

    पदार्थः

    (सः) (ईम्) उदकम् (रेभः) पूजनीयो विद्वान् विदुषां सत्कर्त्ता वा। रेभतीत्यर्चतिकर्म्मा। (निघं०३.१४) (न) इव (प्रति) (वस्ते) आच्छादयति (उस्राः) किरणान् (शोचिषा) दीप्त्या सह (रारपीति) भृशं शब्दयति (मित्रमहाः) यो मित्राणि पूजयति (नक्तम्) रात्रिम् (यः) (ईम्) सर्वतः (अरुषः) रक्तगुणविशिष्टः (यः) (दिवा) कामनया (नॄन्) नायकान् (अमर्त्यः) स्वरूपेण मृत्युरहितः (अरुषः) योऽरुष्षु मर्मसु सीदति सः (यः) (दिवा) कामनया प्रीत्या सह वा (नॄन्) नेतॄन् ॥६॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! यथा सूर्यो जलमाकृष्य वर्षयित्वा प्राणिभ्यः सुखं ददाति तथा विद्वान् गुणानाकृष्य प्रदाय सर्वान् जिज्ञासून् सुखयति ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    (यः) जो (अरुषः) रक्तगुण के सहित वर्त्तमान (नक्तम्) रात्रि को (ईम्) सब ओर से (यः) जो (अमर्त्यः) अपने रूप से मृत्युरहित (दिवा) कामना से (नॄन्) नायक मनुष्यों को (यः) जो (अरुषः) मर्मस्थलों में वर्त्तमान हुआ (दिवा) कामना वा प्रीति के साथ (नॄन्) नायक जनों के साथ मिलता है (सः) वह (ईम्) जल और (रेभः) आदर करने योग्य विद्वान् वा विद्वानों का सत्कार करनेवाला (न) जैसे वैसे (शोचिषा) दीप्ति के सहित वर्त्तमान (उस्राः) किरणों को (प्रति, वस्ते) आच्छादित करता है और (मित्रमहाः) मित्रों का आदर करनेवाला (रारपीति) अत्यन्त शब्द करता है ॥६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे सूर्य जल का आकर्षण कर और उस जल को वर्षाय के प्राणियों के लिये सुख देता है, वैसे विद्वान् पुरुष गुणों का आकर्षण कर और गुणों को दे करके सब जिज्ञासु जनों को सुख देता है ॥६॥

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    विषय

    उत्तम उपदेष्टा, सन्मार्गदर्शक के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( यः ) जो ( अरुषः ) रोष रहित होकर भी ( दिवानक्तं ) रात दिन (ईम्) इस जगत् को सूर्यवत् सन्मार्ग पर चलाता, जो ( अमर्त्यः ) असाधारण मनुष्य होकर ( नॄन् ) मनुष्यों का शासन करता है, और जो ( अरुष: ) मर्म स्थानों पर वश करके, ( दिवा ) तेज, ज्ञान प्रकाश से ( नॄन् ) मनुष्यों को सन्मार्ग दिखाता है ( सः ) वह पुरुष ही ( रेभः न ) सूर्यवत् उत्तम ज्ञानों का उपदेष्टा, स्वयं पूज्य होकर भी अन्यों का सत्कार करने वाला होकर ( उस्राः प्रति वस्ते ) किरणों के तुल्य स्वयं ऊपर को निकलने वाली वाणियों को धारण करता है, और वह ( मित्रमहाः ) मित्रों, स्नेही जनों का आदर करने हारा ( शोचिषा ) अग्नि के समान दीप्ति युक्त वाणी से ही ( रारपीति) उत्तम उपदेश किया करता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ३, ४ त्रिष्टुप् । २, ५, ६, ७ निचृत्त्रिष्टुप् । ८ भुरिक् पंक्तिः ।। अष्टर्चं सूक्तम्

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    विषय

    मार्ग-दर्शक प्रभु

    पदार्थ

    [१] (सः) = वे प्रभु (ईम्) = निश्चय से (रेभः न) = स्तुति के योग्य इस सूर्य की तरह (उस्त्राः) = ज्ञान की रश्मियों को (प्रति वस्ते) = आच्छादित करते हैं। जैसे सूर्य प्रकाश से सारे संसार को आच्छादित कर देता है, इसी प्रकार प्रभु हमारे हृदयों को ज्ञान से प्रकाशित करते हैं। वे (मित्रमहः) = मृत्यु से बचानेवाली तेजस्वितावाले प्रभु [प्रमीते: त्रायते, महः - तेज] (शोचिषा) = ज्ञानदीप्ति के हेतु से (रारपीति) = हमारे हृदयों में 'ऋग् यजु साम' रूप वाणियों का उच्चारण करते हैं। इन वाणियों से प्रभु हमारी ज्ञानदीप्ति का वर्धन करते हैं । [२] (यः अरुषः) = आरोचमान प्रभु (नक्तम्) = रात्रि में और (ईम्) = निश्चय से (यः) = जो प्रभु (दिवा) = दिन में भी (नॄन्) = इस मार्ग पर ले चलनेवाली रश्मियों को [नेतृन्] प्राप्त कराते हैं। वे प्रभु (अमर्त्यः) = अमरण-धर्मा हैं, (अरुष:) = आरोचमान हैं, (यः) = जो प्रभु (दिवा) = ज्ञान के प्रकाश से (नॄन्) = उन्नतिपथ पर चलनेवाले व्यक्तियों को मार्ग दिखाते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हृदयस्थ प्रभु दिन-रात उत्तम प्रेरणा के द्वारा मार्ग दर्शन कर रहे हैं। जो भक्त उस प्रेरणा को सुनकर मार्ग पर चलता है, वह भी 'अमर्त्य व अरुष' बनता है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसा सूर्य जलाला आकर्षित करून वृष्टीद्वारे प्राण्यांना सुख देतो. तसा विद्वान पुरुष गुण ग्रहण करून ते इतरांना देतो व सर्व जिज्ञासू लोकांना सुखी करतो. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    He, leading light of the world, wears the light of the morning sun and, in return, like crackling fire, proclaims himself with the light and blaze of the new day, being the greatest friend of humanity. Red as flames, bright as sunlight, he lights up the night of darkness and arouses humanity into the day of light, awareness and activity, being the harbinger of the immortal light of Divinity. Yes, bright and blazing, he rouses people into the light of day.

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