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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 41 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 41/ मन्त्र 1
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अहे॑ळमान॒ उप॑ याहि य॒ज्ञं तुभ्यं॑ पवन्त॒ इन्द॑वः सु॒तासः॑। गावो॒ न व॑ज्रि॒न्त्स्वमोको॒ अच्छेन्द्रा ग॑हि प्रथ॒मो य॒ज्ञिया॑नाम् ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अहे॑ळमानः । उप॑ । या॒हि॒ । य॒ज्ञम् । तुभ्य॑म् । प॒व॒न्ते॒ । इन्द॑वः । सु॒तासः॑ । गावः॑ । न । वा॒ज्रि॒न् । स्वम् । ओकः॑ । अच्छ॑ । इन्द्र॑ । आ । ग॒हि॒ । प्र॒थ॒मः । य॒ज्ञिया॑नाम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अहेळमान उप याहि यज्ञं तुभ्यं पवन्त इन्दवः सुतासः। गावो न वज्रिन्त्स्वमोको अच्छेन्द्रा गहि प्रथमो यज्ञियानाम् ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अहेळमानः। उप। याहि। यज्ञम्। तुभ्यम्। पवन्ते। इन्दवः। सुतासः। गावः। न। वाज्रिन्। स्वम्। ओकः। अच्छ। इन्द्र। आ। गहि। प्रथमः। यज्ञियानाम् ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 41; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राज्ञा किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे वज्रिन्निन्द्र ! यज्ञियानां प्रथमोऽहेळमानो यं यज्ञं तुभ्यं सुतास इन्दवः पवन्ते तमुप याहि गावो न स्वमाकोऽच्छागहि ॥१॥

    पदार्थः

    (अहेळमानः) सत्कृतः (उप) (याहि) समीपमागच्छ (यज्ञम्) आहारविहाराख्यम् (तुभ्यम्) (पवन्ते) पवित्रीकुर्वन्ति (इन्दवः) सोमलताद्युदकादीनि (सुतासः) निष्पादिताः (गावः) धेनवः (न) इव (वज्रिन्) शस्त्रास्त्रधारिन् (स्वम्) स्वकीयम् (ओकः) निवासस्थानम् (अच्छ) सम्यक् (इन्द्र) परमैश्चर्यप्रद (आ) (गहि) आगच्छ (प्रथमः) आदिमः (यज्ञियानाम्) यज्ञं सम्पालितुमर्हाणाम् ॥१॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। हे राजन् ! प्रजाजनैरुत्तमगुणयोगात् सर्वतः सत्कृतः सन् राज्यपालनाख्यं व्यवहारं यथावत्प्राप्नुहि। यथा धेनवः स्ववत्सान्त्स्वकीयस्थानानि च प्राप्नुवन्ति तथा प्रजापालनाय विनयं याहि ॥१॥

    हिन्दी (1)

    विषय

    अब पाँच ऋचावाले एकतालीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में राजा को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (वज्रिन्) शस्त्र और अस्त्र को धारण करने और (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य्य के देनेवाले (यज्ञियानाम्) यज्ञ का पालन करने के योग्यों का (प्रथमः) पहिला (अहेळमानः) सत्कार किया गया जिस (यज्ञम्) आहार-विहार नामक यज्ञ को (तुभ्यम्) आपके लिये और (सुतासः) उत्पन्न किये गये (इन्दवः) सोमलता आदि के जल (पवन्ते) पवित्र करते हैं उसके (उप, याहि) समीप आइये और (गावः) गौवें (न) जैसे (स्वम्) अपने (ओकः) निवासस्थान को वैसे (अच्छ, आ, गहि) अच्छे प्रकार सब ओर से प्राप्त हूजिये ॥१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे राजन् ! प्रजाजनों से उत्तम गुणों के योग के कारण सब से सत्कार किये गये राज्य-पालन नामक व्यवहार को यथावत् प्राप्त हूजिये और जैसे गौवें अपने बछड़े और स्थानों को प्राप्त होती हैं, वैसे प्रजा के पालन के लिये विनय को प्राप्त हूजिये ॥१॥

    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात इंद्र, राजा, सोमरसाचे गुणवर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर पूर्व सूक्तार्थाची संगती जाणावी.

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे राजा ! प्रजेच्या उत्तम गुणांच्या योगाने यथावत् उत्तम राज्यपालन कर व जशा गाई व वासरे आपले स्थान प्राप्त करतात तसे प्रजापालनासाठी विनयी बन. ॥ १ ॥

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord ruler of glory and power, giver of freedom and dignity, come loving and favourable, grace our yajna of life and living. Drops of soma flow from the press for you and sanctify and brighten up the yajna. O lord of thunder and justice, first and foremost of the holiest guardians of yajna, just as mother cows rush to their stalls for their calves, so eagerly come to us and bless the devotees.

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