Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 47 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 47/ मन्त्र 19
    ऋषिः - गर्गः देवता - इन्द्र: छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः

    यु॒जा॒नो ह॒रिता॒ रथे॒ भूरि॒ त्वष्टे॒ह रा॑जति। को वि॒श्वाहा॑ द्विष॒तः पक्ष॑ आसत उ॒तासी॑नेषु सू॒रिषु॑ ॥१९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒जा॒नः । ह॒रिता॑ । रथे॑ । भूरि॑ । त्वष्टा॑ । इ॒ह । रा॒ज॒ति॒ । कः । वि॒श्वाहा॑ । द्वि॒ष॒तः । पक्षः॑ । आ॒स॒ते॒ । उ॒त । आसी॑नेषु । सू॒रिषु॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युजानो हरिता रथे भूरि त्वष्टेह राजति। को विश्वाहा द्विषतः पक्ष आसत उतासीनेषु सूरिषु ॥१९॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युजानः। हरिता। रथे। भूरि। त्वष्टा। इह। राजति। कः। विश्वाहा। द्विषतः। पक्षः। आसते। उत। आसीनेषु। सूरिषु ॥१९॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 47; मन्त्र » 19
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 33; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स जीवोऽत्र देहे कथं वर्त्तेतेत्याह ॥

    अन्वयः

    यथा कश्चित्सारथी रथे हरिता युजानो भूरि राजति तता त्वष्टेह शरीरे राजति क इह विश्वाहा द्विषतः पक्ष आसते, उताप्यासीनेषु सूरिषु मूर्खाश्रयं कः करोति ॥१९॥

    पदार्थः

    (युजानः) समादधानः (हरिता) हरणशीलावश्वौ (रथे) रमणीये यान इव शरीरे (भूरि) बहु (त्वष्टा) तनूकर्त्ता जीवः (इह) अस्मिञ्छरीरे (राजति) प्रकाशते (कः) (विश्वाहा) सर्वाण्यहानि (द्विषतः) द्वेषयुक्तस्य (पक्षः) परिग्रहः (आसते) आस्ते। अत्र बहुलं छन्दसीत्येकवचनस्य बहुवचनम्। (उत) (आसीनेषु) स्थितेषु (सूरिषु) विद्वत्सु ॥१९॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः ! सदैव मूर्खाणां पक्षं विहाय विद्वत्पक्षे वर्त्तन्ताम्। यथा सुसारथिरश्वान् सन्नियम्य रथे योजयित्वा सुखेन गमनादिकार्य्यं साध्नोति तथा जितेन्द्रियो जीवः सर्वाणि स्वप्रयोजनानि साद्धुं शक्नोति यथा कश्चिद्दुष्टसारथिरश्वयुक्ते रथे स्थित्वा दुःखी भवति तथैवाऽजितेन्द्रियशरीरे स्थित्वा जीवो दुःखी जायते ॥१९॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह जीव इस देह में कैसा वर्त्ताव करे, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    जैसे ( कः) कोई भी सारथी (रथे) सुन्दर वाहन के सदृश शरीर में (हरिता) ले चलनेवाले घोड़ों को (युजानः) जोड़ता हुआ (भूरि) बहुत (राजति) प्रकाशित होता है, वैसे (त्वष्टा) सूक्ष्म करनेवाला जीव (इह) इस शरीर में (राजति) प्रकाशित होता है और (कः) कौन (इह) इस शरीर में (विश्वाहा) सब दिन (द्विषतः) द्वेष से युक्त का (पक्षः) ग्रहण करता (आसते) है और (उत) भी (आसीनेषु) स्थित (सूरिषु) विद्वानों में मूर्ख का आश्रय कौन करता है ॥१९॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! सदा ही मूर्खों का पक्ष त्याग के विद्वानों के पक्ष में वर्त्ताव करिये और जैसे अच्छा सारथी घोड़ों को अच्छे प्रकार वश में करके रथ में जोड़ कर सुख से गमन आदि कार्यों को सिद्ध करता है, वैसे जितेन्द्रिय जीव सम्पूर्ण अपने प्रयोजनों को सिद्ध कर सकता है और जैसे कोई दुष्ट सारथी घोड़ों से युक्त रथ में स्थित होकर दुःखी होता है, वैसे ही अजित इन्द्रियाँ जिसमें ऐसे शरीर में स्थित होकर जीव दुःखी होता है ॥१९॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    missing

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( रथे ) रथ में ( हरिता ) वेग से जाने वाले अश्वों को ( युजानः ) लगाता हुआ रथी विराजता है उसी प्रकार राजा भी ( रथे ) अपने रमणीय, उत्तम राष्ट्र में ( हरिता ) कार्य भार उठा सकने में समर्थ संचालकों को ( युजानः ) नियुक्त करता हुआ ( त्वष्टा) तेजस्वी सूर्य के समान चमकता हुआ (इह) इस लोक में (भूरि राजति) बहुत अधिक प्रकाशित होता है। यदि वह इतना तेजस्वी न हो तो (क) कौन अतेजस्वी पुरुष ( विश्वाहा ) सब दिनों ( द्विषतः पक्षः ) शत्रु को सन्तप्त करने हारा होकर (आसते ) विराज सकता है। (उत ) और ( आसीनेषु सूरिपु ) विद्वानों के विराजते हुए उनके बीच में भी कौन तेजस्वी होकर सिंहासन पर विराज सकता है । (२) इसी प्रकार (त्वष्टा) अति कर्ता जीव ( रथे ) इस देह में ( हरिता) विषयों का ग्रहण करने वाले इन्द्रियों को (युजानः) जोड़ता हुआ वा योगी आत्मा (हरिता) प्राण अपान दोनों को दो अश्वों के समान ही योगद्वारा वश करता हुआ ( सूरिषु आसीनेषु ) देह के प्रेरक प्राणों के विराजते हुए भी (द्विषतः पक्षः विराजते ) अप्रीतियुक्त द्वन्दों का भी ग्रहण करता रहता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गर्ग ऋषिः । १ – ५ सोमः । ६-१९, २०, २१-३१ इन्द्रः । २० - लिंगोत्का देवताः । २२ – २५ प्रस्तोकस्य सार्ञ्जयस्य दानस्तुतिः । २६–२८ रथ: । २९ – ३१ दुन्दुभिर्देवता ॥ छन्दः–१, ३, ५, २१, २२, २८ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ८, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ७, १०, १५, १६, १८, २०, २९, ३० त्रिष्टुप् । २७ स्वराट् त्रिष्टुप् । २, ९, १२, १३, २६, ३१ भुरिक् पंक्तिः । १४, १७ स्वराटू पंकिः । २३ आसुरी पंक्ति: । १९ बृहती । २४, २५ विराड् गायत्री ।। एकत्रिंशदृचं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    द्विषतः पक्षः [शत्रुओं को भूननेवाले प्रभु ]

    पदार्थ

    [१] (त्वष्टा) = वे दीप्त [त्वृष्] व निर्माता [त्वक्ष्] प्रभु (इह) = इस हमारे जीवन में (रथे) = शरीररथ में (हरिता) = ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रिय रूप अश्वों को (युजानः) = युक्त करते हुए भूरि राजति खूब ही दीप्त होते हैं। प्रभु ने इन इन्द्रियों में अद्भुत ही शक्ति की स्थापना की है। इन इन्द्रियों में प्रभु की महिमा प्रकट हो रही है । [२] (उत) = और (आसीनेषु) = उपासना में बैठे हुए सूरिषु इन स्तोताओं में (कः) = वे अनिर्वचनीय प्रभु ही (विश्वाहा) = सदा (द्विषतः पक्षः) = शत्रुओं को पका डालनेवाले के रूप में (आसते) = स्थित होते हैं। प्रभु ही उपासक के शत्रुओं को भून डालनेवाले हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु ने शरीर-रथ में इन्द्रियाश्वों को जोता है, इन इन्द्रियों में प्रभु की महिमा प्रकट होती है। प्रभु ही उपासकों के शत्रुओं को भूननेवाले हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! सदैव मूर्खांच्या पक्षाचा त्याग करून विद्वानाच्या पक्षात राहा. जसा उत्तम सारथी घोड्यांना चांगल्या प्रकारे वश करून रथाला जोडून सुखाने यात्रा करतो, तसा जितेंद्रिय जीव आपल्या संपूर्ण प्रयोजनांना सिद्ध करू शकतो. जसा एखादा दुष्ट सारथी अश्वयुक्त रथात बसूनही दुःखी होतो तसे अजितेंद्रिय शरीरात जीव दुःखी होतो. ॥ १९ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    With its powers and potentials yoked to its chariot-like body form, Tvashta, the soul, shines gloriously in its existential form here. It takes the best form of its love and choice by karma, for who would choose to be with the malicious fools day and night when the wise and visionaries are sitting close by?

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How does soul behave in the body-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    As a charioteer yoking horses in the charming chariot shines very well, so the soul shines in the body (which is like a chariot with senses as horses). Who will take the side of the ignorant people, when wise enlightened men are sitting there' ?

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! you should give up the ignorant men and always side with the enlightened men. As a good side of charioteer controls the horses well and by yoking them in the chariot, easily reaches destination, so, a soul by self-control can accomplish all its purposes. As a charioteer feels sad in a chariot yoked with wicked horses, in the same manner, the soul feel miserable in a body without self control.

    Foot Notes

    (हरिता) हरणशीलावश्वौ। = Horses. (रथे) रमणीये यान इव शरीरे | = In the body which is like a charming chariot. (त्वष्टा) तनूकर्ता जीवः । = Subtle soul. The idea of this Veda Mantra is explained in Kathopnishad 1.3.3-6. Ed.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top