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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 58 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 58/ मन्त्र 4
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - पूषा छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    पू॒षा सु॒बन्धु॑र्दि॒व आ पृ॑थि॒व्या इ॒ळस्पति॑र्म॒घवा॑ द॒स्मव॑र्चाः। यं दे॒वासो॒ अद॑दुः सू॒र्यायै॒ कामे॑न कृ॒तं त॒वसं॒ स्वञ्च॑म् ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पू॒षा । सु॒ऽबन्धुः॑ । दि॒वः । आ । पृ॒थि॒व्याः । इ॒ळः । पतिः॑ । म॒घऽवा॑ । द॒स्मऽव॑र्चाः । यम् । दे॒वासः॑ । अद॑दुः । सू॒र्यायै॑ । कामे॑न । कृ॒तम् । त॒वस॑म् । सु॒ऽअञ्च॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पूषा सुबन्धुर्दिव आ पृथिव्या इळस्पतिर्मघवा दस्मवर्चाः। यं देवासो अददुः सूर्यायै कामेन कृतं तवसं स्वञ्चम् ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पूषा। सुऽबन्धुः। दिवः। आ। पृथिव्याः। इळः। पतिः। मघऽवा। दस्मऽवर्चाः। यम्। देवासः। अददुः। सूर्यायै। कामेन। कृतम्। तवसम्। सुऽअञ्चम् ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 58; मन्त्र » 4
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः के विद्यां प्राप्तुमर्हन्तीत्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यं देवासः कामेन कृतं तवसं स्वञ्चं युवानं नरं सूर्याया अददुः स सुबन्धुर्मघवा दस्मवर्चाः पूषा दिवः पृथिव्या इळस्पतिः सन् सुखमादत्ते ॥४॥

    पदार्थः

    (पूषा) भूमिवत्पुष्टः पुष्टिकर्त्ता वा (सुबन्धुः) शोभना बन्धवो भ्रातरः सखायो वा यस्य (दिवः) विद्युतः (आ) (पृथिव्याः) भूमेः (इळः) वाचः (पतिः) स्वामी (मघवा) बह्वैश्वर्यः (दस्मवर्चाः) दस्मेषूपक्षयेषु वर्चः प्रदीपनं यस्य सः (यम्) (देवासः) विद्वांसः (अददुः) ददति (सूर्यायै) सूर्यवत् शुभगुणस्वभावप्रकाशितायै कन्यायै (कामेन) (कृतम्) निष्पन्नम् (तवसम्) बलिष्ठम् (स्वञ्चम्) सुष्ठ्वञ्चन्तं प्राप्तशरीरात्मबलेन युक्तम् ॥४॥

    भावार्थः

    ये ब्रह्मचर्येण पूर्णयुवावस्थां प्राप्ताः स्वसदृशीर्वधूः प्राप्यर्त्तुगामिनो भूत्वा सुदृढाङ्गा बुद्धिबलविद्याशिक्षाप्राप्ता भवेयुस्त एव भूगर्भविद्युदादिविद्यां प्राप्तुं शक्नुवन्ति नेतरे क्षुद्राशया इति ॥४॥ अत्र विद्वत्कृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्यष्टपञ्चाशत्तमं सूक्तं चतुर्विंशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर कौन विद्या को प्राप्त होने के योग्य होते हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (यम्) जिसको (देवासः) विद्वान् जन (कामेन) कामना से (कृतम्) किये हुए (तवसम्) बलिष्ठ (स्वञ्चम्) सुन्दरता से जाते हुए अर्थात् शरीर और आत्मा के बल से युक्त युवा मनुष्य को (सूर्यायै) सूर्य के समान शुभ गुण और स्वभावों से प्रकाशित कन्या के लिये (अददुः) देते हैं वह (सुबन्धुः) सुन्दर भ्राता वा मित्रोंवाला (मघवा) बहुत ऐश्वर्य्ययुक्त (दस्मवर्चाः) नष्ट होते हुए पदार्थों में प्रकाश रखनेवाला (पूषा) भूमि के समान पुष्ट वा पुष्टि करनेवाला (दिवः) बिजुली और (पृथिव्याः) भूमि तथा (इळः) वाणी का (पतिः) स्वामी होता हुआ सुख को (आ) ग्रहण करता है ॥४॥

    भावार्थ

    जो ब्रह्मचर्य्य से पूर्ण युवावस्था को प्राप्त हुए अपने सदृश बहुओं को प्राप्त होकर ऋतुगामी अर्थात् ऋतुकाल में स्त्रीभोग करनेवाले होकर सुन्दर पुष्ट अङ्ग और बुद्धि बल विद्या और शिक्षा को प्राप्त हों, वे ही भूगर्भ वा विद्युदादि विद्या को प्राप्त हो सकते हैं और क्षुद्राशय नहीं ॥४॥ इस सूक्त में विद्वानों के कृत्य का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह अट्ठावनवाँ सूक्त और चौबीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

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    भावार्थ

    ( यं ) जिसको ( कामेन कृतम् ) कामना युक्त ( तवसं ) बलवान् ( सु-अञ्चम् ) सुभूषित, सुन्दर ढंग करके ( देवासः ) विद्वान् लोग ( सूर्यायै ) सूर्य की दीप्ति के समान उज्ज्वल, कमनीय स्त्री के लिये ( अददुः ) पति रूप से प्रदान करें । ( पूषा ) गृहस्थ का पोषक, गृहपति, ( दिवः ) कामना करने वा उसे चाहने वाली और ( पृथिव्याः ) उसकी पृथिवीवत् आश्रय रूप स्त्री का ( सुबन्धुः ) पूज्य बन्धुवत् प्रिय हो । वह ( इडः पतिः ) भूमि के पालक के समान अपनी ‘इडा’ अर्थात् चाहने योग्य प्रिय पत्नी का पालक और अन्न का स्वामी तथा ( मघवा ) धनादि सम्पन्न और ( दस्म-वर्चा: ) विघ्नों के नाशकारी तेज से सम्पन्न हो। इति चतुर्विंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ पूषा देवता ॥ छन्दः-१ त्रिष्टुप् । ३-४ विराट् त्रिष्टुप् । २ विराड् जगती ।। चतुर्ऋचं सूक्तम् ।।

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    विषय

    देवों का सूर्या के लिये पूषा को देना

    पदार्थ

    [१] (पूषा) = यह पोषक प्रभु (दिवः पृथिव्याः) = द्युलोक व पृथिवीलोक का (आ) = समन्तात् (सुबन्धुः) = उत्तम बाँधनेवाला है यह हमारे जीवनों में मस्तिष्क रूप द्युलोक तथा शरीर रूप पृथिवीलोक को सम्यक् बद्ध करता है। ज्ञान व शक्ति को जोड़ देता है । (इडस्पतिः) = वेदवाणी का स्वामी है, (मघवा) = परमैश्वर्यवाला है। प्रभु ज्ञान व धन दोनों के आधार हैं। (दस्मवर्च:) = शत्रुविनाशक शक्तिवाले हैं [दसु उपक्षये] [२] (यम्) = जिस पूषा को (देवासः) = सब देव (सूर्यायै अददुः) = सूर्या के लिये देते हैं। 'देव' यहाँ दिव्यगुण हैं, 'सूर्या' बुद्धि है। दिव्यगुणों के द्वारा प्रभु का बुद्धि में स्थापन होता है। उस प्रभु को ये दिव्य गुण बुद्धि में स्थापित करते हैं, जो कि (कामेन कृतम्) = कामना से ही सम्पूर्ण संसार को बना डालते हैं,(तवसम्) = बलवाले हैं और (स्वञ्चम्) = उत्तम गतिवाले हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - दिव्य गुणों को धारण करते हुए हम प्रभु को बुद्धि के द्वारा ग्रहण कर पायेंगे । ये प्रभु हमारे जीवनों में ज्ञान व शक्ति का समन्वय करेंगे। अगले सूक्त में 'भरद्वाज बार्हस्पत्य' ऋषि हैं और 'इन्द्राग्नी' देवता है, 'इन्द्र' बल का प्रतीक है तो 'अग्नि' प्रकाश का -

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे ब्रह्मचर्याने पूर्ण युवावस्था प्राप्त करून आपल्यासारख्याच स्त्रीशी विवाह करून ऋतुगामी बनून सुदृढ अंग, बुद्धिबल, विद्या व शिक्षण प्राप्त करून भूगर्भ विद्युत इत्यादी विद्या प्राप्त करू शकतात तसे इतर क्षुद्र लोक प्राप्त करू शकत नाहीत. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Pusha, giver of nourishment, is a noble friend and brother of all from earth to heaven, master of holy speech and light, possessing power, honour and excellence, and commanding extraordinary brilliance. A realised soul inspired with love and desire, mighty strong and self-cultured, the divinities dedicate him to Surya, dawn of a new day.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Who can acquire knowledge is further told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! that Youngman, who is strong nourisher like the earth desirous of wedding with love, mighty, endowed with physical and spiritual power and whom highly learned truthful persons gave away to a virtuous virgin full of splendor like the sun and who has many good kith and kin, has splendor over the weak, the master of the science of electricity, of the earth and fine speech, enjoys much happiness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons only are able to acquire the knowledge of the science of geology and electricity, who have attained youth with the observance of Brahmcharya (abstinence) and having married suitable wives, observing restrain in married life, and are endowed with intellect, strength, true knowledge and education.

    Foot Notes

    (दिवः) विद्युतः।= electricity. (इड:) वाच: । इडेति वाङ्नाम (NG 1, 11 )। = Of speech. (तवसम्) बलिष्ठम् । तव इति बलनाम (NG2,9)। = Very Mighty. (स्वञ्चम्) सुष्ठुवञ्चन्तं प्राप्तिशरीरात्यबलेन युक्तम् । सु + अञ्चु गति पूजनयोः (स्वा.) अत्र गत्यर्थ: गतेः प्राप्त्यर्थमादाय व्याख्या | = Endowed with the attained physical and spiritual power.

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